श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आत्म-समर्पण…“।)
अभी अभी # 437 ⇒ आत्म-समर्पण… श्री प्रदीप शर्मा
समर्पण शब्द से ही आत्म-समर्पण शब्द अस्तित्व में आया है। समस्त का अर्पण ही समर्पण है। समर्पण किसी ध्येय, आदर्श, व्यक्ति अथवा ईश्वर के प्रति भी हो सकता है। मातृ -भूमि के लिए समर्पण सर्वश्रेष्ठ है।
समर्पण को अधिकतर सकारात्मक अर्थ में ही लिया जाता है। इसमें जब अतिशयोक्ति होती है, तो टोटल सरेंडर अर्थात पूर्ण समर्पण का भाव होता है। पत्नी का प्रति के पति समर्पण, एक श्रवणकुमार का अपने माता-पिता के प्रति समर्पण, आराध्य का अपने इष्ट के प्रति और शिष्य का सद्गुरु के प्रति समर्पण, समर्पण का आदर्श स्वरूप है। ।
एक समर्पण अपराधी का होता है ! उसे आत्म-समर्पण क्यों कहते हैं, यह भी एक पहेली है।
स्वयं या खुद के लिए, “आत्म ” का प्रयोग होता है। यही “आत्म” जब सन्तुष्टि के साथ प्रयुक्त होता है, तो एक सकारात्मक संदेश प्रेषित करता है, लेकिन समर्पण के साथ आत्म जुड़ते ही, इसका अर्थ से अनर्थ कैसे हो जाता है, यह समझ से बाहर का मामला है।
अंग्रेज़ी भाषा में समर्पण सिर्फ सरेंडर है, वहाँ self-सरेंडर जैसा कोई प्रावधान नहीं है। आपका सरेंडर सकारात्मक है या दण्डात्मक, यह परिस्थितिजन्य है। हाँ ! दया शब्द के साथ यह भाषा उदार व दयालु हैं। वहाँ भी आत्म-दया की तरह, self pity मौजूद है। जहाँ अगर कंट्रोल है, तो सेल्फ-कन्ट्रोल भी है। ।
कोई अपराधी जब आत्म-समर्पण करता है, तब वह मज़बूरी में होता है या आत्मा की आवाज़ पर होता है ?आज के आर्थिक अपराधियों के पास जब कोई विकल्प नहीं बच रहता, तब वे आत्म-समर्पण करते हैं। उनकी आत्मा को बड़ा कष्ट होता है, जब उनका पासपोर्ट तक ज़ब्त कर लिया जाता है। आत्मा जब कष्ट पाती है, तो शरीर भी व्याधियुक्त हो जाता है। हर आत्म-समर्पण वाले अपराधी की आत्मा एक बार एम्स (AIMS) में प्रवेश के बाद ही संतुष्ट होती है।
जिनकी आत्मा निष्पाप होती है वे विजय माल्या और नीरव जैसी महान शख्सियत होती हैं, जो इस भ्रष्टाचार-युक्त भारत-भूमि में छटपटाती है और इस भूमि से पलायन कर एक रणछोड़ सा आत्म-संतोष प्राप्त करती है।
विदेशों का द्वार ही उनकी द्वारका होता है। ।
समर्पण बुरा नहीं, आत्म-समर्पण भी बुरा नहीं ! काश ! हम अपने आत्म के साथ खिलवाड़ न करें ! शरीर नश्वर है, और आत्मा अमर। इस नश्वर शरीर के पीछे अपनी आत्मा को यहाँ-वहाँ अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए गिरवी ना रखें। सारी स्विस बैंक का पैसा भी इस आत्मा को ऋणानुबंध से मुक्त नहीं कर सकता।
थोड़ा शरीर का कष्ट भोग लें !
मन को भौतिकवाद की मैराथन से अलग कर लें। सीमित संसाधनों में अपनी आत्मा को अपराध-बोध से मुक्त ही रखें।
तब आपका समर्पण सच्चा आत्म-समर्पण होगा, जो आपके स्वयं के समक्ष होगा। प्रायश्चित ही उसका दण्ड होगा, आत्म-बल और विवेक उसे सत्य, शिव और सुंदर की ओर प्रेरित करेंगे।
हर दिन नया होगा, हर रात नई होगी। एक नई रौशनी अन्तस् से प्रकट होगी। ।
© श्री प्रदीप शर्मा
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