श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दियासलाई …“।)
अभी अभी # 461 ⇒ दियासलाई… श्री प्रदीप शर्मा
गुलज़ार ने पहले माचिस बनाई, फिर उससे बीड़ी जलाई और शोर मचा दिया कि जिगर में बड़ी आग है। आज रसोई में गैस लाइटर है, लेकिन भगवान की दीया बत्ती, माचिस से ही की जाती है। हम कभी माचिस को गौर से नहीं देखते। अगर घर में इन्वर्टर न हो, और लाइट चली जाए, तो नानी नहीं, माचिस की ही पहले याद आती है।
दो चकमक पत्थरों को आपस में रगड़कर पाषाण युग में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती थी। कुछ सूखी लकड़ियाँ भी ऐसी होती थीं, जिनके घर्षण से आग पैदा हो जाती थी। कालांतर में आग लगाने और आग बुझाने के कई साधन आ गए। पेट्रोल तो पानी में भी आग लगा देता है। लोग पहले तो नफ़रत की आग लगाते हैं, फिर प्रश्न पूछते हैं, ये आग कब बुझेगी।।
जिस तरह जहाँ धुआँ होता है, वहाँ आग होती है, उसी तरह जहाँ धूम्रपान होता है, वहाँ दियासलाई होती है। जब भी अंधेरे में माचिस की तलाश होती है, एक धूम्रपान प्रेमी ही काम आता है। वह देवानंद की फिल्मों का दौर था, और हर फिक्र को धुएँ में उड़ाने की बात होती थी, हर सिगरेट-प्रेमी के पास एक सिगरेट लाइटर होता था। अपने लाइटर से किसी की सिगरेट जलाना तहजीब का एक अनूठा नज़ारा पेश करता था। तुम क्या जानो, धूम्रपान-निषेध के मतवालों।
एक माचिस, माचिस नहीं, अगर उसमें तीली नहीं। मराठी में माचिस को आक्पेटी कहते हैं, और तीली को काड़ी ! मराठी भाषा में काड़ी के दो मतलब हैं। काड़ी का हिंदी में एक ही मतलब है, उँगली। इस मराठी वाली काड़ी से, हर आम आदमी, फुर्सत में कभी तो कान का मैल निकालता है, या फिर खाना खाने के बाद, दाँतों में फँसे हुए अन्न कण निकालता है। इसे शुद्ध हिंदी में काड़ी करना कहते हैं। जिनके दाँतों में सूराख है, उनके लिए माचिस की एक तीली किसी जेसीबी मशीन से कम नहीं। लगे रहो मुन्नाभाई।।
एक फ़िल्म आई थी दीया और तूफ़ान। उसमें सिर्फ दीये और तूफान का जिक्र था, दियासलाई का नहीं। अगर तूफान दीये को बुझा सकता है, तो एक दियासलाई दीये को वापस जला भी सकती है। कितना खूबसूरत शब्द है दियासलाई ! वह सलाई जिसने दीये को रोशनी दिखाई। दियासलाई आग नहीं लगाती, बुझते दीयों को जलाती है।
एक और सलाई होती है, जिसे दीपावली पर जलाया जाता है, उसे फुलझड़ी कहते हैं। कुछ लोग इसे दीये से जलाने की कोशिश करते हैं, फुलझड़ी तो जल जाती है, लेकिन दीया बुझ जाता है। आखिर एक फुलझड़ी की उम्र ही कितनी होती है ? नाम ही उसका फूल और झड़ी से मिलकर बना है। जवानी भी एक फुलझड़ी ही तो है, जब तक आग है, चमक है, बाद में सब धुआं धुआं। बस एक दीपक प्रेम का जलता रहे, दियासलाई में ही निहित हो, सबकी भलाई।।
जब से बिजली के उपकरण बढ़ गए हैं, केवल दीया बाती के वक्त ही माचिस की याद आती है। वे भी दिन थे, जब शाम होते ही, चिमनी और लालटेन जलाई जाती थी। बरसात में माचिस की एक बच्चे की तरह हिफ़ाजत करनी पड़ती थी। जितनी बार केरोसिन का स्टोव बुझता था, उतनी बार माचिस जलती थी। अगर माचिस नमी के कारण सील जाती तो उसे हाथ की गर्मी दी जाती थी।
एक माचिस में कितनी तीलियाँ होती हैं, उस पर लिखा हुआ होता है। जीवनोपयोगी वस्तुओं का विज्ञापन नहीं होता। टाटा ने नमक बनाया, माचिस नहीं। टाटा का, देश का, iodized नमक आज 20 ₹ का है, जब कि एक माचिस आज भी सिर्फ एक रुपए की है। हमने घोड़ा छाप माचिस देखी है। माचिस पर भी घोड़े की छाप ! अरे कोई कारण होगा।।
योग असंग्रह की बात करता है और कुछ लोगों को संग्रह का शौक होता है। स्टाम्प टिकट और खाली माचिस के संग्रह का शौक। जो जीवन में कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर नहीं बन पाते वे टिकट कलेक्टर बनने के बजाय स्टाम्प टिकट और कॉइन कलेक्टर बन जाते हैं। एक माचिस की तरह जुनून भी एक आग है। अच्छा शौक पालना बुरा नहीं। बुरा शौक पालना, अच्छी बात नहीं।
घर घर को रोशन करे दियासलाई ! माचिस की तरह अपनी प्रतिभा का सदुपयोग करें। मानवता प्रकाशित हो, जगमगाए ! आपकी माचिस कभी किसी की ज़िंदगी में आग न लगाए। हैप्पी दियासलाई।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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