श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कांच और कैमरा…“।)
अभी अभी # 466 ⇒ कांच और कैमरा… श्री प्रदीप शर्मा
जिसे दुनिया आइना, शीशा अथवा दर्पण कहती है, हमारे घर में उसे कांच कहा जाता था। तब साधारण घरों में आईने वाली स्टील की आलमारी और दहेज वाली, कांच लगी, ड्रेसिंग टेबल भी नहीं होती थी, ना तो कोई अटैच बाथ होता था और ना ही कोई बैडरूम। हां घरों के आले में एक जगह कांच, कंघा और एक छोटी लोहे की डब्बी, अथवा कांच की शीशी में खोपरे का तेल रखा जाता था। ठंड में खोपरे का तेल ठरक जाता था, यानी जम जाता था। स्कूल जाने की जल्दी में उसे नहाने के गर्म पानी में डुबकी दी जाती थी, वह बेचारा, इस उपकार के फलस्वरूप, अंदर से पिघल जाता था। कभी कभी आपातकाल में सरसों का तेल ही बालों में चुपड़ लिया जाता था। कुछ संपन्न घरों में दीवारों पर फ्रेम में किसी तस्वीर की तरह टंगा, आइना भी नजर आ जाता था।
मुझे कैमरे का शौक ना तब था, न आज है। एक समय था, जब अखबारों और पत्रिकाओं में विज्ञापन आते थे, जापानी कैमरा, वीपीपी डाक से मंगाइए, मात्र ५० रुपए में।
सत्तर और अस्सी के दशक में शादियों के एल्बम धड़ाधड़ बनते थे। जिसके घर भी मिलने जाओ, वह शादी का एल्बम जरूर चाव से दिखाता था। कुछ श्वेत श्याम तस्वीरें तो बाबा आदम के जमाने की लगती थी। लेकिन कितना रंगीन होता था न, शादी का एल्बम। ।
गर्मी की छुट्टियां हों अथवा एलटीसी लिया हो, शिमला मसूरी के साथ साथ तीरथ भी ही जाता था। बहती गंगा में कौन हाथ नहीं धोता। बैडिंग अथवा होल्डाल के साथ साथ एक अदद कैमरे की व्यवस्था भी की जाती थी। बाद में तो कैमरे के रोल भी रंगीन मिलने लग गए थे। यात्रा के बाद कैमरे के रोल धुलवाने पड़ते थे, अच्छा खासा इंतजार हुआ करता था। आज की तरह नहीं कि, लिया मोबाइल और खचाखच बीस पच्चीस एक जैसी तस्वीर खींच डाली। कुछ प्रिंट खराब भी निकल जाती थी। यानी बड़ा महंगा शौक था, फोटोग्राफी का।
कुछ टूरिस्ट स्पॉट्स पर तो पेशेवर फोटोग्राफर घूमा करते थे, आपके फोटो खींचकर बाद में डाक से भिजवा दिया करते थे।
अब तो खुदखेंच का जमाना है, आप चाहो तो मोदी जी के साथ सेल्फी हो जाए। ।
अगर दर्पण झूठ नहीं बोलता, तो कैमरा भी कड़वा सच नहीं छुपाता। कुछ दिनों से मुझे अपना चेहरा बदला बदला, और सिर के बाल उड़े उड़े, यानी
उजाड़ फसल, और बचे खुचे बाल, मानो धूप में सफेद किये हुए, नजर आने लगे हैं।
अपनों से तो आप नजर छुपा सकते हो, लेकिन अपने आपको कैसे छुपाओगे। कैमरा तो दर्पण का भी बाप है। अगर खुद की सूरत से इतना ही प्यार है, तो बालों को डाई करो, अमिताभ की तरह दाढ़ी रख लो, सफेदी वरदान बन जाएगी। ।
यही तो फर्क है, सूरत और सीरत में। पुरानी मशहूर अभिनेत्रियों को ही देख लीजिए, कहां गया उन हूरों का नूर। लेकिन सब कितनी मशहूर। जीवन का
अध्यात्म अपने अंदर झांकने में है, आईने और कैमरे से शिकायत करने में नहीं। बाहर सब कांच ही कांच है, असली हीरा तो हमारे अंदर ही मौजूद है।
शैलेन्द्र ने शायद आज से सत्तर वर्ष पूर्व यानी सन् १९५३ में ही मेरे लिए यह गीत लिखा होगा, फिल्म शिकस्त का, जो मुझे आज भी प्रेरणा दे रहा है, मेरी आंखें खोल रहा है;
नई जिंदगी से प्यार करके देख।
रूप का सिंगार करके देख।।
इसपे जो भी है,
निसार करके देख।
नई ज़िंदगी से प्यार करके देख।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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