श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तब और अब …“।)
अभी अभी # 508 ⇒ तब और अब श्री प्रदीप शर्मा
आपने अख़बारों में विज्ञापन देखें होंगे – तब और अब ! एक तस्वीर में एक गंजे सज्जन खड़े हैं, और दूसरी में एक बाल वाले। यह हमारे तेल का कमाल है। कल जहां रेगिस्तान था, आज वहां फसल लहलहा रही है। फेयर एंड लवली के विज्ञापन में भी एक मुहांसे वाली और दूसरी ओर इटालियन टाइल्स जैसी चिकनी चुपड़ी सूरत। प्रकृति के सिद्धांत के विपरीत बूढ़े से जवान होइए। तब और अब में अंतर देखिए।
बुजुर्गों के किस्से कहानियों में तब का गुणगान होता था, और अब की आलोचना ! उनके लिए वह गर्व करने वाला अंग्रेजों का जमाना था। चीजें इतनी सस्ती थी कि क्या बताएं ! उनके परिवार में कोई न कोई रायबहादुर, जमींदार अथवा दीवान अवश्य निकल आता था। राजा साहब द्वारा दी गई तलवार दीवार पर लटकी रहती थी। शिकार के किस्से न हुए, तो किस्से ही क्या हुए। ।
मुझे भी यह अख्तियार है कि मैं तब और अब के किस्से सुनाऊं ! रात होती तो आप सो जाते। दिन में तो केवल चाय ही बोरियत दूर कर सकती है। तो पेश हैं मेरे तब और अब के बोरियत भरे किस्से।
मुझे तब और अब में ज़्यादा कुछ बदला नज़र नहीं आता ! तब भी मैं, मैं ही था, और आज भी मैं, मैं ही हूं। यह मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। लोग कल कुछ और थे, और आज कुछ और हैं।
जो समय के साथ बदला नहीं, वो इंसान नहीं। तो बताइए, मैं कौन हूं। ।
तब भी मेरे पास वे चीजें नहीं थीं, जो लोगों के पास थीं, और आज भी ऐसी कई चीजें, जो लोगों के पास है, मेरे पास नहीं है। तब हमारे पास फ्रिज नहीं था, लोगों के पास था। जिनके पास था, उनके फ्रिज के ऊपर एक डब्बा रखा रहता था, जिसे वोल्टेज स्टेबलाइजर कहते थे।
मैं उसकी कांपती सुई की ओर देखा करता। जब वोल्टेज कम ज़्यादा होता है तो स्टेबलाइजर उसे कंट्रोल कर लेता है। यही हाल तब के टीवी का था। बड़ी महंगी चीजें थीं, इसलिए स्टेबलाइजर भी जरूरी था।
मेरे घर जब तक फ्रिज और टीवी आया, वोल्टेज स्टेबलाइजर इन बिल्ट हो चुके थे। मेरे यहां तब भी स्टेबलाइजर नहीं था, आज भी नहीं है। लाइट तब भी जाता था, आज भी जाता है। लोग इन्वर्टर और जेनरेटर रखने लगा गए हैं। मेरे पास तब भी इन्वर्टर नहीं था, आज भी नहीं है। ।
एक समय लूना जितनी कॉमन थी, आज कार उतनी कॉमन हो गई है। लोग लूना से कार पर आ गए। मेरे पास तब लूना ज़रूर थी, लेकिन अब मेरे पास न लूना है, न कार है। बस, कभी सिटी बस है, तो कभी ग्यारह नंबर की बस। अब तो मेरे पास मेट्रो भी आ रही है।
तब और अब में जो सबसे महत्वपूर्ण है और जिसके लिए मुझे गर्व है, अभिमान है, फख्र है, घमंडवा है, वह यह, कि मेरी मुट्ठी तब भी बंद थी, और आज भी बंद है। कहते हैं, बंधी मुठ्ठी लाख की होती है। और इसका श्रेय मैं अपने पिताजी को देता हूं। मैंने उन्हें अपने जीवन में कभी किसी के आगे हाथ पसारते नहीं देखा। अगर उनका हाथ खुला, तो किसी को देने के लिए ही, मांगने के लिए नहीं। ।
जो न नवीन हो, न पुरातन हो, तब भी वैसा ही हो, और अब भी वैसा ही हो, वह सनातन होता है। संसार चलता रहता है, इसलिए यह समय के साथ बदलता रहता है। मूल्य बदलते हैं, परिभाषाएं बदलती हैं, लोगों की फितरत बदलती है। जो आज जड़ दिखाई देता है, वह कभी चेतन था, जो आज चेतन है, वह कभी जड़ था।
सृष्टि के कुछ नियम है, कुछ मर्यादाएं हैं। सूरज पूरब से निकलता है, पश्चिम में अस्त होता है। ऋतुएं तीन हैं, सुर सात हैं। दो और दो चार होते हैं। जब दो और दो पांच होने लग जाएंगे, पूरब पश्चिम मिलने लग जाएंगे, रात रानी दिन में खिलने लगेगी, नियम टूट जाएंगे, मर्यादाएं भंग हो जाएंगी। तब और अब में फर्क मिट जाएगा। सनातन पर संकट छा जाएगा। ।
एक वो भी दीवाली थी, एक ये भी दीवाली है। तब दस रुपए के पटाखों के लिए थैला ले जाना पड़ता था, अब ठेले भर पटाखे, सिर्फ paytm से आ जाते हैं। तब दीयों से रोशनी होती थी, अब बिजली की झालर से मॉल और भवन सजाए जाते हैं।
मिठाई तब भी बनती थी, आज भी बनती है। घर की सफाई तब भी होती थी, आज भी होती है। खुशियां कम ज़्यादा हो जाएं, कमरतोड़ महंगाई क्यों न हो जाए, खुशियों को गले लगाना मनुष्य का स्वभाव तब भी था, आज भी है। सुख दुख सनातन हैं। हम तब भी खुश थे, आज भी खुश हैं।
सूरज का रोज सुबह उगना, फूलों का सुबह खिलना, झरनों का निरंतर बहना, पक्षियों का चहचहाना क्या खुशियों का सबब नहीं ? हम क्यों सुबह के अभिवादन में सुप्रभात अथवा गुड मॉर्निंग ही कहते हैं, bad morning अथवा एक मनहूस सुबह नहीं कहते। हम जानते हैं, खुशियां ही जीवन की सकारात्मकता है। तब भी थी आज भी है। खुशियां बांटने से बढ़ती है। दीपावली की शुभकामनाएं। खुशियों से आपका जीवन जगमगाए। ।
© श्री प्रदीप शर्मा
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