श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिया का घर…“।)
अभी अभी # 534 ⇒ सिया का घर श्री प्रदीप शर्मा
(एक ईश्वरीय चेतना होती है, जो बाल स्वरूप में लीलाएं किया करती हैं।)
अपना घर तब तक अपना नहीं कहलाता, जब तक अपने साथ न हों। अगर घर आंगन हो, और बच्चे ना हों, तो कैसी फुलवारी। बच्चे फूल से कोमल होते हैं, बच्चे अपने पराये नहीं होते, बच्चे सिर्फ बच्चे होते हैं।
मेरा घर कब सिया का घर हो गया, मुझे पता ही नहीं चला। जहां आजकल बच्चों के नाम रिया, रिचा और दीया रखे जा रहे हों, वहां कुछ घरों में आज भी सिया मौजूद है। सीता और गीता तो मेरी बहनें रही हैं, अब इस उम्र में अगर मुझे घर बैठे सिया मिल जाए, तो क्या मेरी झोपड़ी जनक महल नहीं बन जाएगी।।
आपको पड़ोसी से भले ही कोई आस ना हो, फिर भी आस पड़ोस का अपना महत्व होता है। मेरे पड़ोस की ही तो है यह सिया, जो मेरी आंखों के सामने आज डेढ़ बरस की हो गई है। बच्चे की निगाह कहां पड़ जाए, किस पर पड़ जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह तो भरे भुवन में किससे बात कर रहा होता है, कोई नहीं जानता।
उनसे मिली नजर तो मेरे होश उड़ गए। बच्चों में एक ऐसा आकर्षण होता है, जो सिर्फ महसूस किया जा सकता है, बयां नहीं किया जा सकता। एक ईश्वरीय चेतना होती है, जो बाल स्वरूप में लीलाएं किया करती हैं। कब सिया के पांव पहली बार मेरे घर पड़े, पता नहीं, लेकिन उसके पांव पड़ते ही मेरा घर सिया का घर हो गया।।
घर के सामने से, दादा जी की गोद में निकलते वक्त, वह इशारा करती, अंदर चलो, और उसका गृह प्रवेश हो जाता। उसकी निगाहें चारों ओर देखती, परखती, परीक्षण करती, मानो घर की हर वस्तु से उसका बहुत पुराना नाता हो। उसकी निगाहें मुझे तलाशती। उसने अक्सर मुझे चश्मे में देखा है। बिना चश्मे के वह मेरी ओर रुख नहीं करती। जैसे ही चश्मा लगाकर मेरी आंखें चार होती, हमारी आंखें चार हो जाती।
वह मुझ पर कुछ देर त्राटक का प्रयोग करती और बाद में अपने खेल में व्यस्त हो जाती। बच्चों को खिलौनों की जरूरत नहीं होती। वे तो घर के सामान के साथ खेलना चाहते हैं, हर चीज बिखेरना चाहते हैं, तोड़ फोड़ करना चाहते हैं। इसीलिए उनका ध्यान भटकाने के लिए हम उसके सामने खिलौने परोस देते हैं।।
जब वह पहली बार आई तब छ: माह की थी, जमीन पर बैठना सीख गई थी। आज वह ठुमक ठुमक कर इतराती हुई चलती है। हमने ठुमक चलत रामचंद्र, का बचपन भले ही नहीं देखा हो, लेकिन हमने सिया को इठलाते, इतराते जरूर देखा है। केवल काग के भाग ही बड़े नहीं सजनी, हमने इस कलयुग में सिया का बचपन देखा है। उसे माखन रोटी ना सही, चम्मच से खीर, श्रीखंड और आमरस जरूर चखाया है।
अभी तक सिया बोलना नहीं सीखी है, लेकिन मुझे ढाई अक्षर प्रेम के जरूर सिखा रही है। वह तो आंखों आंखों और इशारों इशारों में केवल बात ही नहीं करती, सबका दिल भी चुरा लेती है। इतनी उम्र हो गई, इस हुनर से मैं अब तक अनजान था।।
जगतदुलारी है हमारी सिया। सिर्फ दो बरस की सिया, जब उसकी मां की देखादेखी, कंधे पर पर्स लटकाकर शान से चलती है, तो आप उसके पर्स को छू नहीं सकते। मानो कलयुग के रावणों को आगाह कर रही हो। खबरदार, मैं आज की सिया हूं।।
आजकल उसने पढ़ना लिखना भी शुरू कर दिया है। असली पढ़ाई वैसे भी ढाई आखर से ही शुरू होती है। वह जिस अक्षर पर उंगली रख दे, वह अक्षर ब्रह्म हो जाता है। कई तस्वीरें मेरे मन में बसी हैं सिया की, एक तस्वीर कहां उसके साथ न्याय कर सकती है।
आजकल वह अपने पांवों पर खड़ी हो चुकी है। मेरे दरवाजे पर दस्तक जरूर देती है, लेकिन अंदर नहीं आती क्योंकि उसके पर जो लग चुके हैं। वह मुझे आसक्त कर खुद पूरी तरह से उन्मुक्त हो चली है। कल रात वह अधिकार से आई, पूरे घर का निरीक्षण किया, अपना साम्राज्य उसे यथावत नजर आया। कुछ मीठा खाया, कुछ खिलौने फैलाए, और मेरा मन मोहकर वापस लौट गई।
यह घर अब पूरी तरह सिया का घर हो चुका है और मैं सिया का रसिया।
सियाराम कहूं या सिया सिया तुम्हें सिया चौरसिया।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈