श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शीत लहर और स्नान।)

?अभी अभी # 574 नहीं नहाने का बहाना ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जल ही जीवन है ;

पानी व्यर्थ नहीं बहाना है !

हम जब छोटे थे, तब जल का महत्व नहीं समझते थे। सर्दियों के मौसम को छोड़कर,  हर मौसम में नहाने का मौका ढूंढते रहते थे। बात बात पर कपड़े गीले कर लेना अथवा मिट्टी में खेलने चले जाना,  ताकि नहाकर साफ सुथरे होकर गीले कपड़े उतारना पड़े। कितना पानी बर्बाद किया होगा हमने बचपन में, नहाने में।

पहले गर्मी में बाहर खेलकर पसीने में नहाना, फिर घर आकर ठंडे पानी से नहाना, ऐसी इच्छा होती, अपने आप पर घड़ों पानी डाल लें। गर्मी के मौसम में प्यास और नहाने की आस,  बुझाए नहीं बुझती।।

यही हाल बारिश में होता। जब प्रकृति ने शावर लगा रखा है, तो उसका उपयोग क्यों ना किया जाए। इसमें कौन सा हमारी गिरह का जल खर्च हो रहा है। बहती गंगा में अगर हाथ नहीं धो पाए तो क्या,  भारी बरसात का लुत्फ तो उठाया ही जा सकता है। लेकिन हाय रे बचपन, भीगने पर भी डांट ही सुनना पड़ती थी। जाओ, जल्दी कपड़े बदलो, अगर जुकाम हो गया तो।

और सर्दियों में, जब हम नहीं नहाना चाहते थे, तब भी हमें स्वच्छता की आड़ में नहाना पड़ता था। तब कहां घरों में इलेक्ट्रिक गीजर थे। चूल्हे पर बड़े भगोने में गर्म पानी हुआ करता था। एक अनार सौ बीमार की तरह, राशन की तरह गर्म पानी दिया जाता था। कई बार तो पानी पूरी तरह गर्म भी नहीं हो पाता था। तब से ही ठंड में नहाना एक तरह से सर्दी को ही दावत पर बुलाने जैसा था।।

तब, या तो ठंड अधिक पड़ती थी, अथवा ठंड से बचाव के संसाधन अपर्याप्त थे। रुई वाली रजाई और गद्दे तो थे, लेकिन आज जैसे इंपोर्टेड कंबल नहीं थे। देसी कंबल गर्म तो होते थे लेकिन उनके बाल चुभते थे। अंदर एक सूती चद्दर न जाने कहां खिसक जाती थी। ठंड से बचाव या तो बंडी करती थी, अथवा घरों में मां, बहन अथवा मौसी के हाथों से बुने हुए स्वेटर। हां, सर पर एक गर्म टोपा और गले में मफलर जरूर होता था। और साथ में पढ़ने वाले, सरकारी स्कूलों के बच्चों की तो बस, पूछिए ही मत।

हाथ पांव धोना, एक बारहमासी स्वच्छता अभियान है। बच्चे कितनी भी बार हाथ पांव धो लें, हम बड़े, उनके पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं, जाओ हाथ धोकर आओ, तुमने अभी अभी पिंकी के मोबाइल को हाथ लगाया था। तब हमारे साथ भी यही होता था। कितनी भी ठंड हो, शाम को खेलकर घर आओ, तो पहले हाथ पैर धोकर आओ। तब कहां का गर्म पानी। हम चुपचाप हाथ पांव पर चोरी से सरसों का तेल लगा लेते थे,  लो देखो धूल गायब ! लेकिन थोड़ी देर में पोल खुल जाती, जब तेल के कारण पांवों में धूल और अधिक चिपक जाती।।

नानी हमें बहुत प्यार करती थी, फिर भी ठंड में सुबह सुबह नहाने और स्कूल जाने में हमारी नानी मरती थी। उसे हम पर दया भी आती। वह हम पर जान छिड़कती थी, बेटा, बहुत ठंड है, आज स्कूल मत जा। लेकिन उसकी एक ना चलती। घर में पिताजी का शंकर ऑर्डर जो चलता था।

आज ऐसा कुछ नहीं है। हम अपनी मर्जी के मालिक हैं। बाथरूम में गीजर लगा है, 24 x 7 गर्म पानी उपलब्ध है, लेकिन नहाने के लिए पहले बिस्तर छोड़ना, फिर ठिठुरते हुए वस्त्र त्याग, इस उम्र में, हमसे तो ना हो। माफ करें, इतनी ठंड में तो हम हमाम में भी नंगे ना हों।

हमारा हमाम कोई लाक्षागृह नहीं। क्या वस्त्र सहित नहाने की कोई तरकीब नहीं है।।

रेनकोट स्नान के बारे में सुना था। कितना अच्छा हो, हमारी इज्जत ना उछले, हम हमाम में भी शालीन बने रहें। वैसे भी ठंड में खुद के अथवा दूसरों के कपड़े उतारना हमें पसंद नहीं। नहीं नहाने से पानी की भी बचत होगी और जब नहाएंगे ही नहीं, तो क्या निचोड़ेंगे। बचत ही बचत। पानी की महाबचत।

हमें व्यर्थ पानी

नहीं बहाना है।

नहीं नहाने का बस,

यही एक बहाना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सत्येंद्र सिंह

बहुत सुंदर। सामयिक और शिक्षाप्रद। बधाई।