श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संकल्पों का संविधान…“।)
अभी अभी # 583 ⇒ संकल्पों का संविधान श्री प्रदीप शर्मा
नया वर्ष, नया संकल्प, जितने वर्ष, उतने संकल्प। संकल्प के प्रति इतनी निष्ठा, मानो संकल्प नहीं संविधान हो। संकल्प और संविधान में कोई अंतर ही नहीं रह गया। आम आदमी संकल्प और संविधान दोनों से अनजान होता है। शायद अब उसे बाइबल और रामायण की तरह संविधान का भी पाठ करना पड़े। जागो, नागरिक जागो।
मेरी और संविधान की उम्र लगभग बराबर ही है। हिंदी में कहें तो ” मैं भी ७५ भाग रहा हूं। ” (I am also running 75 .)
संकल्प को तोड़ने की संविधान में कोई सजा नहीं है, लेकिन संविधान का पालन अनिवार्य है। संविधान में अगर कर्तव्य है तो अधिकार भी। संकल्प में केवल आपका विवेक काम करता है, शुभ संकल्प से बड़ा कोई नव वर्ष का उपहार नहीं।।
वैसे तो संकल्प विकल्प मन ही करता है, लेकिन संकल्प मन की लगाम को कसने का एक स्थूल प्रयास है। मन के घोड़े बड़े चंचल होते हैं, और वे किसी चाबुक अथवा लगाम के गुलाम नहीं। यह निर्मोही मन खुद ही हमें मोह के जाल में फांस लेता है और संकल्प की काट, कोई ना कोई सुविधाजनक विकल्प ढूंढ ही लेता है।
आत्मा की तरह मन भी शरीर में कहीं दिखाई नहीं देता। नित्य, शुद्ध और अजर अमर होते हुए भी, जिस तरह जीव के संपर्क में आकर यह जीवात्मा हो जाती है, ठीक उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ और मोह के संस्कारों में पड़कर हमारा शुद्ध और पवित्र मन भी मैला हो जाता हैं।।
घर की मैली चादर तो फिर भी आसानी से धोई, सुखाई जा सकती है, लेकिन मन का मैल साफ करने का कोई सर्फ अथवा डिटर्जेंट अभी ईजाद नहीं हुआ। बस दही की तरह मन को मथकर पहले मक्खन और बाद में उसे तपाकर ही शुद्ध चित्त वाला घी प्राप्त हो सकता है। मन को मथना और फिर उसे तपाना ही तो शुभ संकल्प का विधान है।
जिस तरह बूंद बूंद से घड़ा भरता है, उसी तरह छोटे छोटे संकल्पों से ही मन रूपी दैत्य पर काबू किया जा सकता है। संकल्प का कोई पल नहीं होता, कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता।।
जिस तरह संविधान में अनुच्छेद होते हैं और संविधान की आत्मा को चोट पहुंचाए बिना भी समय और परिस्थिति अनुसार उसमें संशोधन किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार संकल्पों में भी विकल्पों का प्रावधान भी है। आपने एक जनवरी को ही संकल्प ले लिया कि आज से पूरे वर्ष सुबह ठंडे पानी से स्नान करूंगा, लेकिन अगर दो रोज बाद ही अगर जुकाम और बुखार आ जाए, तो संकल्प में भी संशोधन का विधान है। आपातस्थिति में गर्म पानी से भी स्नान किया जा सकता है।
कहीं कहीं तो संकल्पों में भी मध्यम मार्ग ढूंढ लिया जाता हैं, यह चित्त ही कई अगर और मगर लगा लिया करता है। कुछ लोग प्रवास के दौरान सभी संकल्प त्याग देते हैं, तो कुछ लोग विवाह जैसे मंगल कार्य के लिए अपने आपको संकल्प मुक्त कर देते हैं। इस तरह संकल्प के संविधान के सभी अनुच्छेदों में आपको छेद ही भले ही मिल जाएं, लेकिन फिर भी वे कभी संकल्पों की आत्मा के साथ खिलवाड़ नहीं करते। जिस तरह पंडित जी जल के आचमन के साथ कुछ संकल्प लेने को कहते हैं, वे स्वत: ही जल के साथ, आपात धर्म के दौरान, लिया हुआ संकल्प भी छोड़ देते हैं। आखिर संकल्प भी हमारे मन की खेती ही तो है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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