श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सर्वे भवन्तु सुखिन:“।)
अभी अभी # 597 ⇒ सर्वे भवन्तु सुखिन: श्री प्रदीप शर्मा
यह जानते हुए भी, कि सिक्के के दो पहलू होते हैं, जहां दिन होते हैं, वहीं रातें भी होती हैं, जन्म है तो मरण भी, सुख अगर है तो दुख भी, हम सबको सदा सुखी रहो कहना नहीं भूलते, किसी का अशुभ ना हो, प्राणी मात्र का कल्याण हो। कहीं यह हमारी महज मानवीयता अथवा अध्यात्म दर्शन तो नहीं।
जब कि नियति का विधान अपनी जगह है। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप अपनी जगह हैं और असुर हों अथवा दुष्ट राक्षस, जो भी अपने इष्ट को भक्ति और जप तप से प्रसन्न कर लेता है वह मुंहमांगा वरदान पा लेता है और हमारे यहां ऐसे तपस्वी सिद्ध पुरुषों और ऋषि मुनियों की भी कमी नहीं, जो अगर रुष्ट हो जाएं तो देवताओं को भी श्राप दे बैठें।।
सांसारिक सुख, सत्य सनातन नहीं है, यह जानते हुए भी इंसान अपने रहने के लिए, संतोष कुटी, सुखनिवास, गरीबखाने, दौलतखाने अथवा आनंद भवन का ही निर्माण करता है, किसी कोपभवन का नहीं। घर की बगिया में फूलों के साथ, देखादेखी में कैक्टस भले ही उगा ले, कभी कांटे नहीं उगाएगा। दिन में किसी को अगर सुप्रभात कहेगा तो रात्रि को शुभ रात्रि भी कहेगा, जन्मदिन पर बधाई भी देगा और विवाह पर वर वधू को सुखी जीवन का आशीर्वाद भी। लेकिन दुख और कष्ट की घड़ी में बधाई नहीं दी जाती, केवल चिंता और अफसोस व्यक्त किया जाता है। जीते जी किसी से लाख दुश्मनी पाल लें, जाते समय वह भी स्वर्गीय हो ही जाता है।
सुख अगर हमारा दर्शन और प्रदर्शन है तो तकलीफ और परेशानी हमारी दुखती रग है। क्या यह हमारा बड़प्पन नहीं जब हम दुख के क्षणों में भी यही गीत गुनगुनाते हैं ;
खुश रहो, हर खुशी हो
तुम्हारे लिए।
छोड़ दो आंसुओं को
हमारे लिए।।
यह भी सच है, दिल खुश होता है तो वाह निकलती है और जब दिल टूटता है तो आह निकलती है। खुशी में जो दिल बल्लियों उछलता है, गम के वक्त बैठ सा जाता है।
कोई सागर,
दिल को बहलाता नहीं,
बेखुदी में करार आता नहीं।।
सृजन में सुख है। अगर सृजन में सुख नहीं होता तो इस सृष्टि का निर्माण ही नहीं होता। युगों से युगों तक, और कयामत से कयामत तक, कई बार यह सृष्टि बनी और बिगड़ी है।
जिसने सृजन का सुख भोगा है, उसी ने सृजन की पीड़ा भी भोगी है।
हम तो हाड़ मांस के इंसान हैं, वह सर्वशक्तिशाली जो सभी ऐश्वर्यों का स्वामी है, सुखसागर के परमानंद सहोदर में जो वैकुंठवासी, आकंठ डूबा हुआ है, उसने भी सृजन सुख की चाह में ही इस नश्वर संसार की रचना कर दी। हम अपनी मर्जी से नहीं, उसकी ही मर्जी से तो पैदा हुए हैं। हम अगर उसके लिए महज खिलौने हैं तो समझ में नहीं आता, क्या कहीं वह भी तो कोई अबोध बालक तो नहीं। जब तक चाहता है, खिलौने से खेलता है, और जब मन भर जाता है, तो खिलौना तोड़ देता है। लेकिन बड़ा निष्ठुर है यह बालक।।
सुख दुख के इस संसार में जब तक इंसान रहेगा, वह अपना खुद का एक सुखी संसार बनाकर ही रहेगा।
वह दुनिया से भी लड़ेगा और दुनिया बनाने वाले से भी। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या ये दुनिया हमें चांद से बेहतर नजर आती। हमने सूरज से अगर आग लेना सीखा है तो अपनी खुशियों में हमें चार चांद लगाना भी आता है।
एक पल में हम उससे प्रश्न कर बैठते हैं, दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई ! काहे को दुनिया बनाई ? और दूसरे ही पल जब किसी फूल से बच्चे की ओर देखते हैं, तो अनायास ही चहक कर कह उठते हैं, लो एक कली मुसकाई ! उस पल तो वाकई यही लगता है, यही शास्वत सुख है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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