श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नीचे गिरने की कला …“।)
अभी अभी # 650 ⇒ नीचे गिरने की कला
श्री प्रदीप शर्मा
आप इसे आकर्षण कहें या गुरुत्वाकर्षण, गिरना पदार्थ का स्वभाव है। जंगलों में बहता पानी पत्थरों और पहाड़ों के बीच रास्ता बनाता हुआ, झरना बन नीचे ही गिरता है, पहाड़ पर नहीं चढ़ता। गंगोत्री हो या अमरकंटक, भागीरथी गंगा हो या माँ नर्मदे, पहाड़ों, पठारों के बीच होती हुई, नीचे की ओर कलकल बहती हुई सागर में ही जाकर मिलती है।
इंसान भी जब गिरता है, तो धुआंधार गिरता है और जब उठता है, तो सनी देओल की भाषा में उठ ही जाता है। वैसे गिरना उठना किस्मत का खेल है ! अब आप सेंसेक्स को ही लीजिए, कितनों को ऊपर उठाया, और कितनों को नीचे गिराया। जो काम पहले सट्टा बाज़ार करता था, वह काम आजकल सत्ता का बाज़ार कर रहा है। किसी को उठा रहा है, किसी को गिरा रहा है। पहलवानों की भाषा में, इसे ही उठापटक कहते हैं।।
साहित्यिक भाषा में इसे उत्थान और पतन कहते हैं। इतिहास भी क्या है। सिकंदर भी आए, कलन्दर भी आये, न कोई रहा है, न कोई रहेगा। प्रसिद्धि के बारे में भी कहा गया है। कितना भी ऊँचा उठ जाओ, उसकी सीमा है। गिरने की कोई सीमा नहीं। वे फिर भी भाग्यशाली होते हैं, जो आसमान से गिरते हैं और खजूर में अटकते हैं। अगर ज़मीन पर गिरते तो क्या हश्र होता।
आप इसे क्या कहेंगे, अतिशयोक्ति अलंकार ही न ! तुम इतना नीचे गिरोगे, मैंने सोचा भी न था। क्या कोई ऊपर भी गिरता है। गिरने का मतलब नीचे गिरना ही होता है। किसी के ऊपर तो कोई कभी नहीं गिरता। वे कितने समझदार हैं, जिनका सरनेम गिरपडे़ है। वे कभी नहीं कहते, नीचे गिर पड़े। बस गिर पड़े, तो गिरपड़े।।
एक नीचे उतरना भी होता है।
यह बड़ा सभ्य और शालीन तरीका होता है। लोग कार से नीचे उतरते हैं, हवाई जहाज से नीचे उतरते हैं, मंत्री हेलीकॉप्टर से नीचे उतरते हैं। लेकिन साउथ अफ्रीका में मोहनदास को काला समझ गोरों ने ट्रेन से क्या उतारा, वो महात्मा बन गया। पहाड़ पर अगर चढ़ा जाता है, तो नीचे भी उतरा जाता है। बस केवल एक ऊँट ही है जो बड़ी मुश्किल से पहाड़ के नीचे आता है।
चरित्र का गिरना बुरा और किसी राजनीतिक पार्टी का गिरना अच्छा माना जाता है, ऐसा क्यों ? एक गिरा हुआ आदमी, कितना गिरा हुआ है, इसकी कोई पहचान नहीं, कोई मापदंड नहीं। कितने गिरे हुओं को समाज और कानून दंड देता है, इसका कोई हिसाब किताब नहीं। झूठ बोलने की कोई सज़ा नहीं, चोरी करके पकड़े जाने की सज़ा है। कितने भी मच्छर मारिए, कोई सज़ा नहीं, किसी पुलिस वाले को हाथ लगाकर तो देख लें।।
जो आदमी जितना नीचे गिरता है, वह उतना ही ऊँचा उठता है, इसे राजनीति कहते हैं। यहाँ विज्ञान का कोई सिद्धांत लागू नहीं होता। क्योंकि यह राजनीति विज्ञान है। समय आने पर लोग भूल जाते हैं, वह कितना गिरा हुआ था, उसे सर आँखों पर बिठाया जाता है। बस वह अपनी सत्ता की कुर्सी सम्भालकर रखे। क्योंकि कुर्सी पर बैठा इंसान कभी गिरा हुआ नहीं कहलाता।
गिरना एक कला है, यह सबके बस की बात नहीं। आप अगर गिरें और ठोकर खाएँ, तो समझदारी इसी में है, उठ खड़े हों और आगे से संभलकर चलें।
जिन्हें वक्त ने लात मारकर नीचे गिराया है, उन्हें भी उठाएं, गले से लगाएँ। गलत तरीकों से ऊपर उठना, नीचे गिरना ही कहलाता है। यह पतन का मार्ग है, आत्मा के उत्थान का नहीं।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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