श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राजकुमार…“।)
अभी अभी # 657 ⇒ राजकुमार
श्री प्रदीप शर्मा
जो अंतर आज एक मुंबई के भाई और हमारे भाई में है, वही अंतर हमारे कॉलेज के एक दादा और घर के दादा अथवा दादाजी में तब होता था। जिस तब का अब जिक्र होने जा रहा है, वह आज से ५५ वर्ष पुराना है।
कॉलेज के दिन थे। रैगिंग की शुरुआत ही समझिए। हम आर्ट्स के लोग, मेडिकल कॉलेज, और इंजीनियरिग कॉलेज की रैगिंग के किस्से सुन सुनकर ही काम चला लेते थे।
कॉलेज में कुछ लोग पढ़ने आते थे, कुछ दादागिरी करने। कथित पढ़ाकू लड़के आगे की बेंच पर बैठते थे और वरिष्ठ छात्र लॉर्ड ऑफ़ द लास्ट बेंच कहलाते थे।
हमारे आज के पात्र राजकुमार भी एक ऐसे ही दादा थे।।
बद अच्छा, बदनाम बुरा !
लेकिन जिसकी जैसी इमेज एक बार बन जाती है, उसमें से बाहर निकलना उसके लिए बड़ा मुश्किल हो जाता है। राजकुमार को हम आगे से सुविधा के किए राज कहेंगे। मेरा उससे कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था। उसके पिताजी एक ठेकेदार थे।
हम साइकिल पर चलने वाले, वह जीप में बैठकर कॉलेज आने वाला। उसका हमारा क्या मेल।
जिस प्रकार रजिया गुंडों में फंसती है, यह राज हमारे बीच फंस गया था। जी हां, उसने गलती से एक विषय अंग्रेजी साहित्य ले लिया था, जिसके कारण वह एक ही क्लास में कई सालों से अटका हुआ था। मुझे इस बात की जानकारी नहीं भी होती, अगर कॉलेज में यह घटना नहीं होती।।
इंग्लिश लिटरेचर नाम से ही लोग प्रभावित हो जाते थे, क्योंकि लोहिया के अंग्रेजी विरोधी आंदोलन के बाद अंग्रेजी का ऐसा ही बहिष्कार शुरू हो गया था, जैसा आजकल चीनी उत्पादों का हुआ है। आज का स्वदेशी नारा, और कल का अंग्रेजी विरोधी नारा, यानी विदेशी संस्कृति से किनारा। लेकिन फिर भी तब, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला था।
मैंने हमारी लिटरेचर की क्लास में एक पिकनिक का सुझाव क्या दे दिया, पिकनिक की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही आन पड़ी। हर छात्र, प्रोफेसर से पांच पांच रुपए, हां जी सिर्फ पांच पांच रुपए जमा किए गए। हमारे वरिष्ठ प्रोफेसर चंदेल साहब के प्रभाव से सांघी बेवरेजेस का एक ट्रक आ गया, जिसमें गद्दे तकिए लगाकर शान से हमारी ट्रिप इंदौर के पास ही एक स्थान पर सानंद संपन्न हुई। लिटरेचर की सभी लड़कियां, पूरा टीचिंग स्टाफ एवं सभी छात्र शामिल लेकिन कुछ लोगों के सुझाव पर सिर्फ राज उर्फ राजकुमार को इस पिकनिक में शामिल नहीं किया गया।।
गाज तो मुझ पर ही गिरनी थी ! हम एक दिन अकेले में घेर लिए गए। आशा के विपरीत राज साहब बड़े अदब से पेश आए लेकिन उनका लहजा निहायत शिकायत भरा था। वे आहत थे, कि उनकी छवि इतनी खराब है कि उनका पिकनिक से बहिष्कार किया गया। मेरे पास कोई जवाब नहीं था, कोई सफाई नहीं थी। मैं सिर्फ शर्मिंदा था।
धीरे धीरे राज साहब का राज खुलने लगा। वे मेरे करीब आने लगे। एक दिन बोले, चार साल से इस अंग्रेजी के कारण आगे नहीं बढ़ पा रहा हूं आप एक दिन मुझे पूरा मैकबेथ हिंदी में समझा दो। तब इन विषयों की गाइड अथवा कुंजी उपलब्ध नहीं होती थी। मुझे लगा, मुझे प्रायश्चित के लिए अवसर मिल रहा है। कॉफी हाउस की कुछ बैठकों में उन्हें शेक्सपीयर से अवगत करा दिया गया तथा कुछ समय रात में वे मेरे पास पढ़ने भी आए। उसके बाद उनकी गाड़ी ऐसी सरपट दौड़ी कि उन्होंने एम. ए. ही नहीं, एल एल. बी. भी कर लिया और एक सफल अधिवक्ता भी बन गए।।
अपनी बहन की खातिर उन्होंने आखरी समय तक विवाह नहीं किया। कॉलेज के भी वे असफल प्रेमी रहे जिसके कारण अवसादग्रस्त ही रहे। कभी कभी नजर आ जाते हैं। ज़िन्दगी से थके हारे से, टूटे हुए से। दिन बुरे होते हैं, हालात बुरे होते हैं, आदमी तो बुरा नहीं होता।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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