श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अबला और बलमा।)  

? अभी अभी # 93 ⇒ अबला और बलमा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हर औरत अबला नहीं होती, विशेष कर, वह तो कभी नहीं, जिसका बलमा उसके लिए मोटर कार लेकर आया हो। बला की खुशनसीब औरतें होती हैं वे महिलाएं, जिनके अपने बलम होते हैं। बालम कहें, बलम कहें, अथवा बालमा। कुछ रसिक, तो कुछ, जुल्मी भी होते हैं।

इश्क की ही तरह भाषा पर भी किसी का जोर नहीं चलता। बला और अबला में भले ही जमीन आसमान का अंतर हो, सनम और सजन में भला क्या भेद हो सकता है। सनम ही की तरह केवल सजन अथवा साजन नहीं होते, सजनी भी होती है। हमें नहीं पता था, बम्बई के बाबू ऐसे भी होते थे ;

चल री सजनी अब काहे सोचे

कजरा ना बह जाए रोते रोते

हमने तो ऐसे भी साजन देखे हैं जो बड़े प्यार से अपनी सजनी से कहते हैं ;

एक बात कहता हूं तुमसे

ना करना इन्कार !

क्या ?

आ तोहे सजनी, ले चलूं नदिया के पार ;

और सजनी को भी देखिए जरा ;

तेरे बिना साजन,

लागे ना जिया हमार। ।

स्त्री के प्यार और समर्पण की तुलना कभी पुरुष के प्यार अथवा निष्ठा से नहीं की जा सकती। कितनी भोली होती होगी वह नायिका जो अपने नायक के लिए ऐसे भाव रखती होगी ;

बलमा अनाड़ी मन भाए

काह करूं, समझ न आए

लेकिन इस स्वार्थी पुरुष अथवा तथाकथित मर्द की पसंद कोई अबला, अभागी, दुखियारी नारी नहीं होती। उसे तो बस उसकी रेशमी जुल्फें, गुलाबी गाल और शराबी आंखें ही पसंद आती हैं।

ताली हमेशा दो हाथों से बजती है। क्या आपने सुना नहीं !

भंवरा बड़ा नादान रे। फिर भी जाने ना, कलियन की पहचान रे।

और उधर पुरुष को देखिए ;

कलियों ने घूंघट खोले

हर फूल पे भंवरा डोले ;

यानी हिसाब बराबर, इधर मन डोले, तन डोले, और उधर, ये कौन बजाए बांसुरिया। ।

पुरुष के लिए प्यार हमेशा जिंदाबाद रहा है और रहेगा लेकिन अगर एक बार औरत ने अपनी दास्तान सुनाई, तो आप रो पड़ेंगे।

साहिर तो हमेशा मर्दों के पीछे हाथ धोकर ही पड़े रहते हैं ;

औरत ने जनम दिया मर्दों ने उसे बाजार दिया।

जब जी चाहा, मचला कुचला

जब जी चाहा दुत्कार दिया। ।

साहिर और निराला की वह तोड़ती पत्थर वाली औरत अब समय के साथ चलना सीख चुकी है। मां, बहन, बेटी और पत्नी के अलावा आज उसके कई रंग रूप हैं, कई उत्तरदायित्व हैं। आज वह परिस्थितियों से लोहा लेना सीख गई है।

त्याग और समर्पण के साथ संस्कार परम्परा और संस्कृति का निर्वाह आज भी वह वैसे ही कर रही है, जैसा सदियों से करती आ रही है। कभी पुरुष के हाथ में हाथ, तो कभी मां के रूप में आंचल का प्यार और सर पर हाथ, तो कभी प्रेमिका के रूप में, शायद यह शुभ संकेत देती हुई ;

तुम्हारे संग मैं भी चलूंगी

जैसे पतंग संग डोर ..

रोज एक नई सुबह,

नया रंग, नया रूप

कहीं जीवन संगिनी

तो कहीं जीवन डोर। ।

♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_printPrint
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments