डॉ प्रतिभा मुदलियार
(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत। इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –
जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार
आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी का एक अभिनव प्रयोग ईमेल@अनजान। अभिनव प्रयोग इसलिए क्योंकि आज पत्र भला कौन लिखता है? इस अंक में एक लेखनुमा यात्रावृत। कृपया आत्मसात करें । )
☆ ईमेल@अनजान -2 ☆
कमल कुमार के पासवर्ड उपन्यास को पढ़ रही थी। उसमें चित्रित एक प्रसंग ने कोरिया के उन दिनों की याद ताज़ा करा दी जब मैं सिउल में बतौर हिंदी अतिथि आचार्य के रूप में युनिर्वसीटी में हिंदी पढ़ा रही थी। पासवर्ड में लेखिका अपने चीन जाने के अनुभव को याद करते हुए लिखती हैं कि चीन में किसी समारोह में उनकोवहां के किसी प्रसिद्ध खाद्य पद्धति के अनुसार एक शेफ ने एक सारा मेमना जिसके अंदर कुछ और मांस तथासब्ज़ियां डालकर पकाया था और उसे एक मेज पर सजाया था, का उद्घाटन करने के लिए बुलाया और हाथ में चाकू देकर कहा कि इसे काटकर सभा का उद्घाटन करें। तो उन्होंने इसे अपनी भारतीय परंपरा के विरुद्ध कहकर उस मेमने को काटने के बजाए उसे कुछ पत्ते खिलाकर सभा का उद्घाटन किया जो कि अगले दिन की ब्रेकिंग न्यूज़ बना। इस प्रसंग से मेरी साउथ कोरिया की कुछ यादें ताज़ा हो गयी।
जब मैं सिउल में थी तब हम कुछ भारतीयों को एक ऐसी ही पार्टी में निमंत्रित किया गया था। एंबेसी से जुडी होने के कारण कई बार प्रतिष्ठित व्यक्तियों की पार्टी में जाने का मौका मिलता था और दक्षिण कोरिया की संस्कृति को देखने, समझने का एक अवसर प्राप्त होता था। हम कुछ भारतीयों को खास निमंत्रण दिया गया था। बहुत ही सुंदर आयोजन था। सभी कोरियन स्त्री-पुरूष अपने हनबोक (Hanbok) पारंपरिक पोशाक में सजे धजे थे। उनके मुख से शालीनता ऊमड रही थी और हॉल के दरवाज़े पर खडे होकर बडे आदर से, झुककर वह हमारा अभिवादन करते, ‘अन्योंग हासियो केसोनिम’ अर्थात् नमस्ते प्रोफेसर। और हम भी अपने भारतीय टोन में ‘कमसामिदा’ (धन्यवाद) कहकर उनका स्नेहसिक्त आदर स्वीकार रहे थे। फिर उनमें से कोई एक हमें एक्सकॉर्ट करने आती और हमें हमारी सीट तक छोडकर मुस्कुराती हुई चली जाती। उनकी छोटी-छोटी आँखें कलात्मकता से सजी हुई थीं और वे काफी बड़ी और आकर्षक लग रही थीं। पुरुष भी अपने पारपंरिक पहनावे में रुबाबदार दीख रहे थे। हॉल भी अपनी संस्कृति का परिचय दे रहा था। पारंपरिक पद्धति से स्वागत और भाषण हुए। जहाँ तक याद है किसी ने कोरियाई नृत्य भी प्रस्तुत किया था। हमारी प्रत्येक टेबल पर खाने-पीने की काफी सारी चीज़े रखी गयी थीं। कुछ तो बहुत ही स्वादीष्ट थीं और कुछ तो एकदम से फीकी। खैर, कार्यक्रम खतम हुआ और डिनर की घोषणा हुई और हम डिनर हॉल में प्रविष्ट होने के लिए उठे।
जैसे ही मैंने हॉल में प्रवेश किया मेरी आँखें कुछ पल खुली रही और क्षणार्ध में बंद भी हो गयीं। पहली डिश जो बहुत ही सलीके से रखी गयी ती वह तो बारबेक्यु पोर्क…पूरा का पूरा सुअर छील कर उलटा लटकाया गया था और नीचे से लाल लाल अंगार शान से उस उल्टे टंगे सुअर को बारबेक्यु कर रहे थे। वह अक्खा सुअर देखकर ही हमको मतली सी आ गयी थी। किंतु वह तो कोरियन डेलिकसी थी। वह देखकर तो कइयों की बाछे खिल गयी थीं।
मेरे पीछे सावित्री, मोशा और कुछ भारतीय मित्र थे। उसने पीछे से हलके से मेरा हाथ दबाया और मेरे कान में हलके से फुसफुसायी, बाप रे ये क्या है? हमारे लायक कुछ खाने को मिल भी पाएगा या नहीं? वह शुद्ध शाकाहारी! हम जैसे तैसे आगे बढे। टेबल पर कई सारे पदार्थ बहुत ही करीने से सजाकर रखे गए थे। कोरियन लोग चीजों को कलात्मक रूप से पेश करने में अधिक कॉनशस रहते हैं। उनका चाय पीने और पीलाने का ढंग भी उनके संस्कृति का अहम हिस्सा है।
हम चारों जैसे तैसे एक कोने की टेबल पकड़ कर बैठ गए। हमने वह टेबलपसंद की थी जहाँ से ‘वह’ डेलिकसी न दीख सकें। हमारे खाने लायक जो कुछ था हमने खा लिया। डिनर खतम कर जब हम बाहर आ रहे थे तब देखा उस डेलिकसी का इत्ता सा भी नामो निशान शेष नहीं था। वहां के स्थानीय लोगों ने उसे अपने पेट में जगह दी थी और वे तृप्त होकर खुशी से लौट रहे थे।
वह प्रसंग मैं भूल ही नहीं सकती। उस डेलिकसी समेत उस कार्यक्रम की हर बात कोरियाई पारंपरिक संस्कृति की परिचायक थी। ये लोग बहुत ही स्नेहिल होते हैं। खाने पीने का शौक रखते है। किसी से मिलना है तो वे किसी रेस्तराँ या कॉफी शॉप मिलते हैं। खाना और खिलाना उनकी तहजीब का अंग है।
सुनो, ऐसे किस्सों पर तुम कैसे रिएक्ट करोगे पता नहीं। किंतु यूँ तुमसे बात करना अच्छा भी लगता है। कोविड की वजह से भी मुझे बहुत सारा समय मिला है, जिसका इस्तेमाल मैं पढने लिखने और तुमसे बात करने में बिताती हूँ। जब मैं तुम से बात करती हूँ न तो भीतर से कहीं हलकी और संपन्न भी हो जाती हूँ।
कोरिया में रहते मुझे सांस्कृतिक शॉक काफी मिले। एक दो अनुभव साझा करती हूँ।
जब मैं कोरिया पहँची तब ऑटम लगभग खतम हो रहा था। वैसे बता दूँ कि कोरिया का ऑटम देखने लायक होता है। प्रकृति अपने सुंदरतम रूप में सजी होती है। पेड अपना रंग बदलने लगते हैं। सारा समा ही लुभावना होता है। वहाँ पर ऑटम फेस्ट भी मनाए जाते हैं। योंग इन कैंपस का परिसर तो प्रकृति के रमणीय दृश्यों से लैस हैं। हां, तो जब मैं पहुँची थी तब सर्दी आहिस्ता आहिस्ता अपने पंख फैला रही थी। वह वीक एंड था। वहाँ पहुंचकर बस चार एक दिन ही हुए थे। अपने कमरे बैठे बैठे ऊब गयी तो सोचा एक चक्कर लगा आऊँ। भारत की आदत से बस सलवार कमीज़ पहन कर मैं बाहर निकली। बस घर से कुछ दो एककिलो मीटर ही गयी थी। हमारे क्वॉर्टर से जानेवाली सडक ढलान की है, वह पार कर मैं नुक्क्ड तक गयी, जहाँ से मुझे अपनी बिल्डिंग दिखाई दे सके ताकि रास्ता खोने की समस्या से बचा जा सके। लौटकर आयी और हमारी बिल्डिंग के आहाते में कुछ देर खडी हो गयी, यदि कोई अंग्रेजी बोलनेवाला मिल जाए तो बात कर लूँ। तभी अचानक सर्द हवा का झोंका आया और मेरे रोंगटे खडे हो गए। उस झोंके ने आनेवाले जाडे की सूचना दी थी। और ये जो कहते हैं ना Winter is approaching उसकी intensity क्या होनेवाली है, इसका अहसास हुआ था। मैं दक्षिण की होने के कारण मुझे सर्दी का अंदाजा ही नहीं था जितना की उत्तरवालों को होता है। पर कोरिया में रहते मुझे ‘समर’ से अधिक ‘विंटर’ ही अच्छा लगता था।
हाँ तो, मेरे आने की खुशी में हमारे विभाग के संकाय सदस्यों ने एक वेलकम पार्टी रखी थी। सभी साथ मिलकर एक रेस्तारां में लंच करनेवाले थे। हम एक कोरियन रेस्तरां में गए। वहाँ सारा इंतजाम कोरियाई पद्धति से था। छोटे छोटे बैठे टेबल और नीचे मुलायम तकिए। हम सब बैठ गए। खाना परोसा जाने लगा। मेरी बगल में प्रो. सो बैठे थे। बहुत ही शालीन और हंसमुख व्यक्ति। खाना लगाया गया, सूप, उबली सब्जियाँ, किमची पता नहीं क्या क्या था। जैसे ही मेन कोर्स आया तो उन्होंने एक बाउल मेरे हाथ में दिया। उसमें कुछ था ..गरम गरम बाफ निकल रही थी। मैंने सुंघ कर जानना चाहा कि क्या हो सकता है कि तभी उन्होंने हलके से मेरे कंधे छूकर शुद्ध हिंदी में कहा, ‘प्रतिभा जी यह गाय है’। क्या बताऊं तुमको यार, उनके ऐसा कहते ही मुझे उस बाउल में पूरी की पूरी गाय ही नज़र आने लगी। ऐसा नहीं कि हमारे देश में यह नहीं खाया जाता, पर इतना स्पष्ट उसका उच्चारण भी तो नहीं किया नहीं जाता। तुम तो जानते हो, मैं जितना हो सके नॉन वेज से परहेज ही करती हूँ। मेरा क्या हाल हुआ होगा इसका अंदाजा तुम लगा ही सकते हो।
एक बार हम छात्रों के साथ एक स्थानीय मेले में गए थे। मेला अमूमन रात को लगता है। अक्सर मेरे साथ मेरी तंजानियन दोस्त मोशा साथ रहती थी। हम दोनों अक्सर कोरियाई पर्व, उत्सव आदि का आनंद लेने साथ जाती थीं ताकि साथ भी बना रहे और सुरक्षा भी। हमारे मेलों की तरह यह मेला भी अच्छा ही था। सोशलाइज होने में मेरी सबसे बडी दिक्कत मेरे खाने पीने को लेकर होती थी। मैं चूजी नहीं हूँ पर साधा सिंपल खाना अच्छा लगता है मुझे। पता है तुम्हें। मेले जाओ और कुछ खाओ पीओ नहीं तो उसका क्या मज़ा! छात्र पूछ रहे थे, प्रोफेसर आप कुछ खाएंगी। बहुत बार पूछने पर मैंने सोचा चलो ठीक है, कुछ खा लेते हैं। और मैंने आसपास देखा कि कुछ लाने के लिए कहा जाए। देखा कि एक महिला टोकरी नुमा हांडी में मुंगफली जैसी कुछ ऊबलती हुई चीज बेच रही है। मैंने दूर से ही देखा था मुझे लगा यह खाया जा सकता है, जाडे की रात में कुछ गरम खाने से मज़ा भी आएगा। हमने बस ईशारा करके कहा कि वह लेकर आए। और वह बच्चा तुरंत खुशी से उठा और दौडकर हम दोनों के लिए छोटे छोटे बाउल में वह चीज ले आया। साथ में चम्मच भी था। चम्मच को देखकर मैं समझ गयी कि यह वह चीज नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी। हम हाथ में बाउल लेकर उठे सोचा की खाते खाते घूमेंगे। मैंने उसमें से एक मात्र वह छोटा सा टुकडा उठा लिया और मूँह में डाला, मुझे वह बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा, मैंने लगभग वह थूक ही दिया। दूसरी बार मूँह में डालने का सवाल ही नहीं था। बाकी लोग बडे मज़े में खा रहे थे। फिर पता किया कि यह है क्या, नाम पता लगा ‘बंदगी’।‘ बंदगी’ … कितना सुंदर नाम है। यह तो भारतीय शब्द है। कितना सुंदर अर्थ है उसका। हाँ, यही नाम कहा था, ‘बंदगी’। मैंने दोबारा कनफर्म किया। लेकिन वह क्या है यह मुझे किसी ने नहीं कहा। हम मेले से लौटे। मैने अपना यह अनुभव अपने भारतीय कलिग से शेयर किया और बातों ही बातों में हमने हमारा यह अनुभव एक कोरियाई प्रोफसर से भी शेयर किया और उनको पूछा यह बंदगी क्या चीज है। तो उन्होंने हमें जो कहा वह सुनकर तो मैं दंग ही रह गयी। अरे, वह कैटर पीलर के अंडे है, जो कोरियाई बहुत शौक से खाते हैं। वैसे कोरियाई सुपर मार्केट में कई तरह के अंडे बहुत ही करीने से रखे देखकर मैं अचंभित होती थी। छोटे बडे,रंगीन, पता नहीं किस किस के होते हैं, किसीने मुझसे कहा था, पता नहीं कितना सच या झूठ, पर इसमें सांप के भी अंडे होते हैं। तब से अंडे खाना भी मेरे लिए दुशवार हो गया था। खान पान को लेकर तो कई सारे अनुभव हैं।
कोरिया में तीन साल कैसे बीत गए पता हीं चला। आज इतने सालों बाद वह एक सपना सा लगता है। मेरे घर मेरे छात्र आते थे, उनको भारतीय खाना खिलाने में आनंद आता था। हमने तो एक इंडियन फेस्टिवल में चाय भी सर्व की थी। हमारे इवेंट को अच्छा बनाने के लिए रंगोली डाली थी तो सारे मीडियाकर्मी दौडकर आए थे रंगोली की फोटो लेने के लिए। दिन बहुत अच्छे थे। अकेली थी मैं, पर लोगों से जुडी थी, अपनों से जुडी थी। याहू विडियों कॉल पर सबसे रुबरु होती थी। मेसेंजर पर चैट करती थी। इस प्रवास ने मुझे तकनीक से जुडकर संसार से जुडने का मंत्र सीखा दिया। और ई मेल.. उसका पहला चरण था।
© डॉ प्रतिभा मुदलियार
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006
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