श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों के अध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. हम प्रयास करेंगे कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें. )

 

☆ गांधीजी के सिद्धांत और आज की युवा पीढी ☆

 

मध्य प्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, भोपाल प्रतिवर्ष हिंदी भवन के माध्यम से प्रतिभा प्रोत्साहन राज्य स्तरीय वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करता है और श्री सुशील कुमार केडिया अपने माता पिता स्व. श्री महावीर प्रसाद केडिया व स्व. श्रीमती पन्ना देवी केडिया की स्मृति में पुरस्कार देते हैं। इस वर्ष भी यह आयोजन दिनांक 12.10.2019 को हिंदी भवन में हुआ और महात्मा गांधी के 150वें जन्मोत्सव के सन्दर्भ में  वाद विवाद का विषय था  ‘जीवन की सार्थकता के लिए गांधीजी के सिद्धांतों का अनुकरण आवश्यक है’।

वाद-विवाद में 26 जिलों के स्कूलों से पचास छात्र आये, 25 पक्ष में और 25 विपक्ष में। इन्होने  अपने विचार जोशीले युवा अंदाज में लेकिन मर्यादित भाषा में प्रस्तुत किए। विपक्ष ने भी कहीं भी महामानव के प्रति अशोभनीय भाषा का प्रयोग नहीं किया और अपनी बात पूरी शालीनता से रखी । विषय गंभीर था, विषय वस्तु व्यापक थी, चर्चा के केंद्र बिंदु में ऐसा व्यक्तित्व था जिसे देश विदेश सम्मान की दृष्टी से देखता है और भारत की जनता उन्हें  राष्ट्र पिता कहकर संबोधित करती है। गांधीजी के सिद्धांत भारतीय मनस्वियों के चिंतन पर आधारित हैं, समाज में नैतिक मूल्यों की वकालत करते हैं, विभिन्न धर्मों के सार से सुसज्जित हैं  और इन विचारों पर अनेक पुस्तकें भी उपलब्ध हैं, आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में कुछ न कुछ  छपता रहता है। अत: पक्ष के पास बोलने को बहुत कुछ था और उनके तर्क भी जोरदार होने ही थे । दूसरी ओर विपक्ष के पास ऐसे नैतिक मूल्यों, जिनकी शिक्षा का  भारतीय समाज में व्यापक प्रभाव है, के विरोध में तर्क देना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था, फिर उन्हें लेखों व पुस्तकों से ज्यादा सहयोग नहीं मिलना था अत: उन्हें  अपने तर्क स्वज्ञान व बुद्धि से प्रस्तुत करने थे।

हिन्दी भवन के मंत्री और संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त ने मुझे, श्री विभांशु जोशी तथा श्री अनिल बिहारी श्रीवास्तव के साथ  निर्णायक मंडल में शामिल किया लेकिन जब  वाद विवाद की विषयवस्तु  मुझे पता चली तो मैं थोड़ा दुविधागृस्त भी हुआ क्योंकि गांधीजी के प्रति मेरी भक्तिपूर्ण आस्था है।  जब हमने छात्रों को सुना तो निर्णय लेने में काफी मशक्कत करनी पडी। विशेषकर कई विपक्षी  छात्रों के तर्कों  ने मुझे आकर्षित किया। आयशा कशिश ने रामचरित मानस से अनेक उद्धरण देकर गांधीजी के सिद्धांत सत्य व अहिंसा को अनुकरणीय मानने से नकारा तो बुरहानपुर की मेघना के तर्क अहिंसा को लेकर गांधीजी की बातों की पुष्टि करते नज़र आये। विपक्ष ने मुख्यत: गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत को आज के परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद से लड़ने व सीमाओं की सुरक्षा के लिए अनुकरणीय नहीं माना और पक्ष के लोग इस तर्क का कोई ख़ास खंडन करते न दिखे। कुछ विपक्षी वक्ताओं ने तो तो 1942 में गांधीजी के आह्वान ‘करो या मरो’ को एक प्रकार से  हिंसा की श्रेणी में रखा। अनेक विपक्षी वक्ता  तो इस मत के थे कि हमें आज़ादी दिलाने  में हिंसक गतिविधियों का सर्वाधिक योगदान है।   ऐसे वक्ता कवि की इन पक्तियों  ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल´ से सहमत नहीं दिखे । उनके मतानुसार आज़ाद हिन्द फ़ौज के 26000 शहीद सैनिकों   और सरदार भगत सिंह जैसे अनेक  क्रांतिकारियों का बलिदान युक्त  योगदान देश को आज़ादी दिलाने में है जिसे नकारा नहीं जा सकता। विपक्ष ने गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत को भी अनुकरणीय नहीं माना, वक्ताओं के अनुसार इस सिद्धांत के परिपालन से लोगों में धन न कमाने की भावना बलवती होगी और यदि अमीरों के द्वारा कमाया गया धन गरीबों में बांटा जाएगा तो वे और आलसी बनेंगे। विपक्षी वक्ताओं को गांधीजी का ब्रह्मचर्य का सिद्धांत भी पसंद नहीं आया उन्होंने इसे स्त्री पुरुष के आपसी सम्बन्ध व उपस्थित श्रोताओं के इसके अनुपालन न करने से जोड़ते हुए अनुकरणीय नहीं माना। उनके अनुसार यह सब कुछ गांधीजी की कुंठा का नतीजा भी हो सकता है।  पक्ष ने गांधीजी के इस सिद्धांत के आध्यात्मिक पहलू पर जोर दिया और बताने की कोशिश की कि गांधीजी के ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग हमें इन्द्रीय तुष्टिकरण से आगे सोचते हुए काम, क्रोध, मद व लोभ पर नियंत्रण रखने हेतु प्रेरित करते हैं।  अपरिग्रह को लेकर भी विपक्षी वक्ता मुखर थे वे वर्तमान युग में भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु संम्पति के अधिकतम संग्रहण को बुरा मानते नहीं दिखे। विपक्ष के कुछ वक्ताओं ने गांधीजी की आत्मकथा से उद्धरण देते हुए कहा कि वे कस्तुरबा के प्रति सहिष्णु नहीं थे और न ही उन्होंने अपने पुत्रों की ओर खास ध्यान दिया। हरिलाल का उदाहरण  देते हुए एक वक्ता ने तो यहाँ तक कह दिया कि गजब गांधीजी अपने पुत्र से ही अपने विचारों का अनुसरण नहीं करवा सके तो हम उनके विचारों को अनुकरणीय कैसे मान सकते हैं। औद्योगीकरण को लेकर भी विपक्ष मुखर था। आज उन्हें गांधीजी का चरखा आकर्षित करता नहीं दिखा। छात्र सोचते हैं कि चरखा चला कर सबका तन नहीं ढका जा सकता। वे मानते हैं की कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने से अच्छी आमदनी देने वाला रोजगार नहीं मिलेगा, स्वदेशी को बढ़ावा देने से हम विश्व के अन्य देशों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे  और न ही हमें नई नई वस्तुओं के उपभोग का मौक़ा मिलेगा।

वादविवाद प्रतियोगिता में गांधीजी के सरदार भगत सिंह को फांसी से न बचा पाने, त्रिपुरी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ सहयोगात्मक  रुख न अपनाने  व अपना उत्तराधिकारी चुनने में सरदार पटेल की उपेक्षा कर  जवाहरलाल नेहरु का पक्ष लेने को लेकर भी विपक्ष के वक्ताओं ने मर्यादित भाषा में टिप्पणियां की।

पूरे वाद विवाद में पक्ष या विपक्ष ने गांधीजी के सर्वधर्म समभाव, साम्प्रदायिक एकता, गौरक्षा, आदि को लेकर कोई विचार  कोई चर्चा नहीं की शायद यह सब विवादास्पद मुद्दे हैं और छात्र तथा उनके शिक्षकों ने उन्हें इस प्रतियोगिता हेतु मार्गदर्शन दिया होगा इस पर न बोलने की सलाह दी होगी।

वाद विवाद से एक तथ्य सामने आया कि प्रतियोगी सोशल मीडिया में लिखी जा रही निर्मूल बातों से ज्यादा प्रभावित नहीं है। एकाध त्रुटि को अनदेखा कर दिया जाय तो अधिकाँश बाते तथ्यों व संदर्भों पर आधारित थी । पक्ष ने जो कुछ बोला उसे तो हम सब सुनते आये हैं लेकिन विपक्ष की बातों का समुचित समाधान देना आवश्यक है और यह कार्य तो गांधीजी के सिद्धांतों के अध्येताओं को करना ही होगा अन्यथा नई पीढी अपनी शंकाओं को लिए दिग्भ्रमित रही आयेगी। मैंने भी इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश अपने अल्प अध्ययन से की है ।

यह सत्य है कि गान्धीजी के सिद्धांतों में अहिंसा पर बहुत जोर है। उनकी अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है और न ही डरपोक बनने हेतु प्रेरित करती है। गांधीजी की अहिंसा सत्याग्रह और हृदय परिवर्तन के अमोघ अस्त्र से सुसज्जित है। दक्षिण अफ्रीका में तो गांधीजी पर मुस्लिम व ईसाई समुदाय के लोगों ने अनेक बार  प्राणघातक हमले किये पर हर बार गान्धीजी ने ऐसे क्रूर मनुष्यों का ह्रदय परिवर्तन कर अपना मित्र बनाया। भारत की आजादी के बाद जब कोलकाता में साम्प्रदायिक दंगे हुए और अनेक हिन्दुओं के दंगों मे मारे जाने की खबरों में सुहरावर्दी का नाम लिया गया तो गांधीजी ने सबसे पहले उन्हें ही चर्चा के लिए बुला भेजा। दोनों के बीच जो बातचीत हुई उसने सुहरावर्दी को हिन्दू मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया। गांधीजी ने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए आत्म बलिदान की बातें कहीं, जब कबाइली कश्मीर में घुस आये तो तत्कालीन सरकार ने फ़ौज भेजकर मुकाबला किया। इस निर्णय से गांधीजी की भी सहमति थी। हम हथियारों का उत्पादन  राष्ट्र की रक्षा के लिए करें और उसकी अंधी खरीद फरोख्त के चंगुल में न फंसे यही गांधीजी के विचार आज की स्थिति में होते। आंतकवादियों, नक्सलियों, राष्ट्र विरोधी ताकतों की गोली का मुकाबला गोली से ही करना होगा लेकिन बोली का रास्ता भी खुला रहना चाहिए ऐसा कहते हुए मैंने अनेक विद्वान् गांधीजनों को सुना है। हमे 1962 की लड़ाई से सीख मिली और सरकारों ने देश की रक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए अनेक कदम उठाये। इसके साथ ही बातचीत के रास्ते राजनीतिक व सैन्य स्तर पर भी उठाये गए हैं इससे शान्ति स्थापना में मदद मिली है और 1971 के बाद देश को किसी  बड़े युद्ध का सामना नहीं करना पडा। सभी मतभेद बातचीत से सुलझाए जाएँ यही गांधीजी  का रास्ता है।  बातचीत करो, अपील करो, दुनिया का ध्यान समस्या की ओर खीचों। समस्या का निदान भी ऐसे ही संभव है। हथियारों से हासिल सफलता स्थाई नहीं होती। विश्व में आज तमाम रासायनिक व परमाणु हथियारों को खतम करने की दिशा में प्रगति हो रही है यह सब गांधीजी के शिक्षा का ही नतीजा है। भारत और चीन के बीच अक्सर सीमाओं पर सैनिक आपस में भिड़ते रहते हैं और यदा कदा  तो चीनी सैनिक हमारी भूमि में घुस आते हैं, पर इन सब घटनाओं को  आपसी बातचीत और समझबूझ से ही निपटाया गया है। युद्ध तो अंतिम विकल्प है।

देश की आज़ादी का आन्दोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में लम्बे समय तक चला। इस दौरान गरम दल , नरम दल, हिंसा पर भरोसा रखने वाले अमर शहीद भगत सिंह व आज़ाद सरीखे  क्रांतिकारी और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज ने अपने अपने तरीके से देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया। लगभग सभी विचारों के नेताओं ने  आज़ादी के  आन्दोलन में  महात्मा गांधी के नेतृत्व को स्वीकार किया। स्वयं महात्मा गांधी ने भी समय समय पर  इन सब क्रांतिवीरों के आत्मोत्सर्ग व सर्वोच्च बलदान की भावना की प्रसंशा की थी ।गांधीजी केवल यही चाहते थे कि युवा जोश में आकर हिंसक रास्ता न अपनाएँ। इस दिशा में उन्होंने अनथक प्रयास भी किये, वे स्वयं भी अनेक क्रांतिकारियों से मिले और उन्हें अहिंसा के रास्ते पर लाने में सफल हुए। वस्तुत: सरदार भगत सिंह की फांसी के बाद युवा वर्ग गांधीजी के रास्ते की ओर मुड़ गया इसके पीछे अंग्रेजों का जुल्म नहीं वरन गांधीजी की अहिंसा का व्यापक प्रभाव है।

गांधीजी ने देश के उद्योगपतियों के लिए ट्रस्टीशिप का  सिद्धांत प्रतिपादित किया था। जमना लाल बजाज, घनश्याम दास बिरला आदि ऐसे कुछ देशभक्त उद्योगपति हो गए जिन्होने  गांधीजी के निर्देशों को अक्षरक्ष अपने व्यापार में उतारा। गांधीजी  से प्रभावित इन उद्योगपतियोँ का उद्देश्य  केवल और केवल मुनाफा कमाना नहीं था। गांधीजी चाहते थे कि व्यापारी अनीति से धन न कमायें, नियम कानूनों का उल्लघन न करें, मुनाफाखोरी से बचें और समाज सेवा आदि की भावना के साथ कमाए हुए धन को जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च करें। गांधीजी का यह सिद्धांत सुविधा-प्राप्त धनाड्य वर्ग को समाप्त करने के समाजवादी विचारों के उलट है। गांधीजी अमीरों के संरक्षण के पक्षधर हैं और मानते थे कि मजदूर और मालिक के बीच का भेद ट्रस्टीशिप के अनुपालन से मिट जाएगा और इससे पूंजीपतियों के विरुद्ध घृणा का भावना समाप्त हो जायेगी और यह सब अहिंसा के मार्ग को प्रशस्त करेगा। गांधीजी मानते थे कि ट्रस्टीशिप की भावना का विस्तार होने से शासन के हाथों शक्ति के केन्द्रीकरण रुक सकता है। आज अजीम प्रेमजी, रतन टाटा, आदि गोदरेज  या बिल गेट्स सरीखे अनेक उद्योगपति हैं जिन्होंने अपने जीवन में अर्जित सम्पति को  समाज सेवा और जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च करने हेतु ट्रस्ट बनाए हैं।

गांधीजी के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने अपने पुत्रों की ओर ध्यान नहीं दिया। हरिलाल जो गांधीजी के ज्येष्ठ पुत्र थे उनका आचरण गांधीजी के विचारों के उलट था लेकिन गांधीजी के अनेक आन्दोलनों में, जोकि दक्षिण अफ्रीका में हुए, वे सहभागी थे। भारत में भी यद्दपि हरिलाल यायावर की जिन्दगी जीते थे पर अक्सर बा और बापू से भेंट करने पहुँच जाते। ऐसा ही एक संस्मरण कटनी रेलवे स्टेशन का है जहाँ उन्हें बा को संतरा भेंट करते हुए व बापू से यह कहते हुए दर्शाया गया है कि उनके महान बनने में बा का त्याग है। अपने ज्येष्ठ पुत्र के इस कथन से गांधीजी भी कभी असहमत नहीं दिखे ।  गांधीजी के अन्य तीन पुत्रों सर्वश्री मणिलाल, रामदास व देवदास ने तो बापू के सिद्धांतों के अनुरूप ही जीवन जिया। मणि लाल दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के आश्रमों की देखरेख करते रहे तो राम दास ने अपना जीवन यापन वर्धा में रहकर किया, देवदास गांधी तो हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक रहे। आज गांधीजी के पौत्र प्रपौत्र चमक धमक से दूर रहते हुए सादगी पूर्ण जीवन बिता रहे हैं और उनमे से कई तो अपने अपने क्षेत्र में विख्यात हैं। इन सबका विस्तृत विवरण गांधीजी की प्रपौत्री सुमित्रा कुलकर्णी ( रामदास गांधी की पुत्री ) ने अपनी पुस्तक ‘महात्मा गांधी मेरे पितामह’ में बड़े विस्तार से दिया है।

अपनी पत्नी कस्तूरबा को लेकर गांधीजी के विचारों में समय समय के साथ परिवर्तन आया है। कस्तूरबा तो त्यागमयी भारतीय पत्नी की छवि वाली अशिक्षित महिला थीं। विवाह के आरम्भिक दिनों से लेकर दक्षिण अफ्रीका के घर में पंचम कुल के अतिथि का पाखाना साफ़ करने को लेकर गांधीजी अपनी पत्नी के प्रति दुराग्रही दीखते हैं।  लेकिन पाखाना साफ़ करने के विवाद ने दोनों के मध्य जो सामंजस्य स्थापित किया उसकी मिसाल तो केवल कुछ ऋषियों के गृहस्त जीवन में ही दिखाई देती है। कस्तूरबा, बापू के प्रति पूरी तरह समर्पित थी। गांधीजी ने अपने जीवन काल में जो भी प्रयोग किये उनको कसौटी पर कसे जाने के लिए कस्तूरबा ने स्वयं को प्रस्तुत किया। गांधीजी के ईश्वर अगर सत्य हैं तो कस्तूरबा की भक्ति हिन्दू देवी देवताओं के प्रति भी थी। गांधीजी ने कभी भी उनके वृत, वार-त्यौहार में रोड़े नहीं अटकाए।  जब कभी कस्तूरबा बीमार पडी गांधीजी ने उनकी परिचर्या स्वयं की। चंपारण के सत्याग्रह के दौरान महिलाओं को शिक्षित करने का दायित्व गांधीजी ने अनपढ कस्तूरबा को ही दिया था। गांधीजी ने कस्तूरबा के योगदान को सदैव स्वीकार किया है।

छात्रों के मन में गांधीजी के यंत्रों व औद्योगीकरण को लेकर विचारों के प्रति भी अनेक आशंकाएं हैं।  कुटीर व लघु उद्योग धंधों के हिमायती गांधीजी को युवा पीढी  यंत्रों व बड़े उद्योगों का घोर विरोधी मानती है।  वास्तव मैं ऐसा है नहीं, हिन्द स्वराज में गांधीजी ने यंत्रों को लेकर जो विचार व्यक्त किये हैं और बाद में विभिन्न लेखों, पत्राचारों व साक्षात्कार  के माध्यम से अपनी बात कही है वह सिद्ध करती है कि गांधीजी ऐसी मशीनों के हिमायती थे जो मानव के श्रम व समय की बचत करे व रोजगार को बढ़ावा देने में सक्षम हो। वे चाहते थे कि मजदूर से उसकी ताकत व क्षमता से अधिक कार्य न करवाया जाय।

गांधीजी ने मशीनों का विरोध स्वदेशी को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं वरन देश को गुलामी की जंजीरों का कारण मानते हुए किया था। वे तो स्वयं चाहते थे कि मेनचेस्टर से कपड़ा बुलाने के बजाय देश में ही मिलें लगाना सही कदम होगा। यंत्रीकरण और तकनीकी के बढ़ते प्रयोग ने रोज़गार के नए क्षेत्र खोले हैं। इससे पढ़े लिखे लोगों को रोजगार मिला है लेकिन उन लाखों लोगो का क्या जो किसी कारण उचित शिक्षा न प्राप्त कर सके या उनका कौशल उन्नयन नहीं हो सका। यंत्रीकरण का सोच समझ कर उपयोग करने से ऐसे अकुशल श्रमिकों की  आर्थिक हालत भी सुधरेगी। प्रजातंत्र में सबको जीने के लिए आवश्यक संसाधन और अवसर तो मिलने ही चाहिए।

अमर शहीद भगत सिंह की फांसी को लेकर हमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्वयं भगत सिंह अपने बचाव के लिए किसी भी आवेदन/अपील/पैरवी के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने अपने पिता किशन सिंह जी को भी दिनांक 04.10.1930 को कडा पत्र लिखकर अपनी पैरवी हेतु उनके द्वारा ब्रिटिश सरकार को दी गयी याचिका का विरोध किया था।दूसरी तरफ अंग्रेजों ने यह अफवाह फैलाई कि गांधीजी अगर वाइसराय से अपील करेंगे तो क्रांतिकारियों की फांसी की सजा माफ़ हो जायेगी। ऐसा कर अंग्रेज राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करना चाहते थे। गांधीजी ने लार्ड इरविन से व्यक्तिगत मुलाक़ात कर फांसी की सजा को स्थगित करने की अपील भी की थी और वाइसराय ने उन्हें आश्वासन भी दिया था  पर उनके इन प्रयासों को अंग्रेजों की कुटिलता के कारण सफलता नहीं मिली। नेताजी सुभाष बोस व गांधीजी के बीच बहुत प्रेम व सद्भाव था। नेताजी का झुकाव फ़ौजी अनुशासन की ओर शुरू से था। कांग्रेस के 1928 के कोलकाता अधिवेशन में स्वयंसेवकों को फ़ौजी ड्रेस में सुसज्जित कर नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष को सलामी दिलवाई थी, जिसे गांधीजी ने पसंद नहीं किया। त्रिपुरी कांग्रेस के बाद तो मतभेद बहुत गहरे हुए और नेताजी ने अपना रास्ता बदल लिया तथापि गांधीजी के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति में कोई कमी न आई। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने वाले प्रथम भारतीय सुभाष बोस ही थे तो 23 जनवरी 1948 गांधीजी ने नेताजी के जन्मदिन पर उनकी राष्ट्रभक्ति व त्याग और बलिदान की भावना की भूरि भूरि प्रशंसा की थी।  पंडित जवाहरलाल नेहरु व सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वाधीनता के अनेक पुजारियों में से ऐसे दो दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिन पर गांधीजी का असीम स्नेह व विश्वास था। जब अपना उत्तराधिकारी चुनने की बात आयी होगी तो गांधीजी भी दुविधागृस्त रहे होंगे। सरदार पटेल गांधीजी के कट्टर अनुयाई थे और शायद ही कभी उन्होंने गांधीजी की बातों का विरोध किया हो। सरदार पटेल कड़क स्वभाव के साथ साथ रुढ़िवादी परम्पराओं के भी विरोधी न थे। उनकी ख्याति अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भी कम ही थी। दूसरी ओर नेहरूजी मिजाज से पाश्चात्य संस्कृति में पले  बढे ऐसे नेता थे जिनकी लोकप्रियता आम जनमानस में सर्वाधिक थी।उनके परिवार के सभी सदस्य वैभवपूर्ण जीवन का त्याग कर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे और अनेक बार जेल भी गए थे ।  वे स्वभाव से कोमल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे। उनका  अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से अच्छा परिचय था और स्वतंत्र भारत को, जिसकी छवि पश्चिम में सपेरों के देश के रूप में अधिक थी, ऐसे ही नेतृत्व की आवश्यकता थी । अपनी कतिपय असफलताओं के बावजूद पंडित नेहरु ने देश को न केवल कुशल नेतृत्व दिया, अनेक समस्याओं से बाहर निकाला और देश के विकास में दूरदृष्टि युक्त महती योगदान दिया। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है।

मैंने छात्रों और युवाओं के मनोमस्तिष्क में गांधीजी को लेकर घुमड़ते  कुछ प्रश्नों का उत्तर खोजने  की  कोशिश की है। गांधीजी ने अपने विचारों को सबसे पहले हिन्द स्वराज और फिर सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा में लिखा। बाद के वर्षों में वे यंग इंडिया और हरिजन में भी लिखते रहे अथवा अपने भाषणों और पत्राचार के द्वारा स्वयं  के विचारों की व्याख्या करते रहे। गांधीजी के विचार, उनके प्रयोगों का नतीजा थे और अपने  विचारों तथा मान्यताओं पर वे आजीवन  दृढ़ रहे। गांधीजी पर अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय विद्वानों ने आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी हैं। इन सबको पढ़ पाना फिर उनका यथोचित विश्लेषण करना  सामान्य मानवी के बस में नहीं है। हमें आज भी गांधीजी के विचारों को बारम्बार पढने, उनका मनन और चिंतन करने की आवश्यकता है। विश्व की अनेक परेशानियों का हल आखिर गांधीजी सरीखे महामानव ही दिखा सकते हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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