डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ आलेख ☆ महाराष्ट्र दिवस विशेष – ‘जय जय महाराष्ट्र मेरा’- १ मई २०२४ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆
नमस्कार पाठकगण,
आप सबको महाराष्ट्र दिन के अवसर पर बहुत सारी शुभकामनाएँ !
एक मई, २०२४, महाराष्ट्र दिवस, मेरे लाडले महाराष्ट्र का “दिल से” बखान करने का दिन! जिस पवित्र भूमि पर मैंने जन्म लिया, उस भूमि का गुणगान, कीर्तन, पूजन, अर्चन इत्यादि कैसे करूँ? उसके बजाय इस मंगलमय दिन शब्दपुष्पों की सुन्दर माला ही उसके कंठ में डालती हूँ!
महाराष्ट्र के पुण्य भूमि में जन्म लिया, यह निश्चित ही मेरे पूर्व जन्मों के पुण्य का ही फल होगा! इस महान महाराष्ट्र देश के गौरवशाली वैभव तथा प्रचुरता मैं एक मुख से कैसे वर्णन करूँ? उसके लिए प्रतिभाशाली शब्दप्रभू गोविंदाग्रज रचित “मंगल देश” महाराष्ट्र का मनमोहक महिमा-गीत ही सुनना होगा!
प्रिय मित्रों, महाराष्ट्र यानि छत्रपती शिवाजी महाराज, परन्तु छत्रपती शिवाजी महाराज यानि महाराष्ट्र, यह संकुचित विचार मन में लाना यानि, साक्षात् शिवाजी महाराजा का अपमान हुआ, उनकी संघटन शक्ति का उदाहरण दूँ तो उनकी दूरदृष्टि हमें अचंभित किये बगैर रहती नहीं| महाराज की फ़ौज में उनके सहवास में आकर पावन हुए तथा पहले से ही पवित्र रहे १८ प्रकार की जातियों के और प्रत्येक धर्म के मावळे स्वराज्य कंकण को अभिमान से प्रदर्शित करते हुए उनके प्रत्येक स्वराज्य-अभियान में अत्यंत आत्मविश्वासपूर्वक, लगनसे और जी जान से शामिल होते थे| उनका शौर्य, पराक्रम, बुद्धिमत्ता, रणकौशल्य इत्यादि इत्यादि के बारे में मेरे जैसी क्षुद्र व्यक्ति क्या लिखे, केवल नतमस्तक हो कर कहती हूँ “शिवराय का स्मरण करें रूप, शिवराय का स्मरण करें प्रताप”! उन्होंने मुघल बादशहा औरंगजेब और सारे नए-पुराने अस्त्र-शस्त्र के साथ सज्जित उसकी फौज का आक्रमण रोका, इतना ही नहीं, उनका पारिपत्य भी किया| यह करते हुए अपनी मुठ्ठी भर फौज की सहायता से “गनिमी नीति” अमल में लाते हुए इस “दक्खन के चूहे” ने औरंगजेब के नाक में दम कर दिया| उसका वर्चस्व नकारते हुए “स्वराज्य की पताका” लहराने वाले हमारे वास्तविक हृदयसम्राट गो-ब्राम्हण प्रतिपालक ऐसे शिवाजी महाराज!
हमारी भक्ति से जुडे है हमारे प्रिय विठ्ठ्ल (जो हमारी माऊली (माता) के रूप में पंढरपूर में स्थित हैं), दुर्गा के साढे तीन शक्तिपीठ और गणेशजी के आठ रूप (अष्टविनायक), शेगाव के गजानन महाराज तथा शिर्डी के साईबाबा इत्यादी इत्यादी! मेरा महाराष्ट्र देश संतों के वास्तव्य से पुनीत हुआ है| “चलें पंढरी की राह पर” इस बुलावे पर संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ, संत तुकाराम, संत नामदेव, इत्यादि संतों के पीछे हजारों की संख्या में “दिंडी” में सम्मिलित हो कर “राम कृष्ण हरी” का ताल और मृदुंग सहित जयघोष करनेवाले “वारकरी” आज भी उसी भक्ति से “वारी” करते हुए इस अनमोल भक्ति का उपहार विठठ्ल के चरणों में अर्पण कर रहे हैं| भक्तिमार्ग की सर्वसमावेशक प्रतीक यह “पंढरी की वारी” महाराष्ट्र की बहुमोल सांस्कृतिक विरासत है!
महाराष्ट्र के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजकीय और समाज प्रबोधन की धनी विरासत का क्या वर्णन करें? बस नाम का उच्चारण ही पर्याप्त होगा, अपने आप ही हाथ जुड़ जायेगे आदर सहित प्रणाम करने के लिए! हम जिस स्वतंत्रता का मनमौजी हो कर उपभोग कर रहे हैं, वह प्राप्त करने हेतु यहाँ के अनेक क्रांतिकारकोंने अपना सर्वस्व अर्पण किया| कितने ही नाम लें! आइये, आज हम उनके स्म्रुति-चरणों में नतमस्तक होते हैं!
अभिजात भाषा और कितनी समृद्ध हो सकती है? सरकार के दरबार में “मराठी”, मेरी मातृभाषा को यह दर्जा कब प्राप्त होगा? इस महाराष्ट्र में निर्मित साहित्य यानि साक्षात अमृतकलश! कई वर्षों पूर्व (१२९०) उसकी महिमा का गान गाते हुए “ज्ञानेश्वर माऊली ने रचे ये शब्द “माझ्या मराठीचे बोल कवतुके। परी अमृतातेंही पैजा जिंके। ऐसी अक्षरे रसिकें। मेळवीन॥“(रसिक जनों, मेरी मराठी के मधुर और सुन्दर बोलों का क्या बखान करूँ, अमृत से भी शर्त जीत ले, ऐसे अक्षरों का मैं निर्माण करूँगा)! जिस महाराष्ट्र में सुसम्पन्न सुविचारों तथा अभिजात संस्कारों के स्वर्णकमल प्रफुल्लित हैं, जहाँ भक्तिरस से ओतप्रोत अभंग और शृंगाररस से सरोबार लावण्यखणी लावणी जैसे बहुमोल रत्न एक ही इतिहास की पेटिका में आनंद से विराजते हैं, वहीँ रसिकता की संपन्नता के नित्य नूतन अध्याय लिखे जाते हैं|
इस अभिजात साहित्य के रचयिता हरी नारायण आपटे, आचार्य अत्रे, राम गणेश गडकरी, कुसुमाग्रज, पु. ल. देशपांडे, कितने ही नाम लूँ, कम ही होंगे! इस साहित्य का स्वर्ण जितना ही लुटाऊँ, उतना ही वृद्धिंगत होगा! महाराष्ट्र की संगीत परंपरा बहुत ही पुरातन और समृध्द है| संगीत नाटकों की परंपरा यानि हमारे महाराष्ट्र की खासियत तथा उसका एकाधिकार ही समझ लीजिए! स्त्री सौंदर्य के नवोन्मेषयुक्त मानदंड निर्माण करने वाले बालगंधर्व! उनका हम रसिकोंको बहुत विस्मयकारक कौतुक है! जिनके स्त्रीसुलभ विभ्रम साक्षात् यहाँ की स्त्रियों को इतना मोहित करें कि, वें उनका अनुकरण करने लगें, ऐसा रसिकों को अक्षरशः पागल कर देने वाला यह अनोखा कलाकार!
मुंबापुरी और कोल्हापूर यानि सिनेमा उद्योग की खान ही समझें! सिल्वर स्क्रीन के “प्रथम पटल” का निर्माण करने वाले दादासाहेब फाळके ही थे! दूसरे प्रांतों से मुंबई की मायानगरीत में आकर बसे हुए और कर्म से मराठी का अभिमानपूर्वक बखान करने वाले संगीतकारों, गायकों, गीतकारों तथा कलाकारों की सूची खत्म ही नहीं होती| ऐसे महाराष्ट्र को १ मई १९६० के दिन स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया| इस स्वतंत्र महाराष्ट्र के पहले मुखमंत्री थे, यशवंतराव चव्हाण!
अब हम महाराष्ट्र दिवस का इतिहास जानने का प्रयास करते हैं| इस इतिहास में मनोरंजन का तनिक भी अंश नहीं है, अपितु है एक काला चौखटा जिसमें बंदिस्त हैं स्मृतियाँ हुतात्माओं के रक्तलांछित बलिदानों की! २१ नवम्बर १९५६ के दिन मुंबई में स्थित फ्लोरा फाउंटन के आसपास तनाव महसूस हो रहा था| इसका कारण था, राज्य पुनर्रचना आयोगने महाराष्ट्र में मुंबई को विलीन करने का प्रस्ताव नकार दिया था| इस अन्यायकारक निर्णय के फलस्वरूप मराठी लोगोंका क्रोध चरम सीमा पर पहुँच गया था| जगह-जगह होने वाली छोटी-बड़ी सभाओं में इस निर्णय का सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन हो रहा था। इसका परिणाम वहीँ हुआ जिसकी अपेक्षा थी, मराठी अस्मिता जाग उठी और सारे संघटन इकट्ठा हुए| सरकार का विरोध करने हेतु फ्लोरा फाउंटेन के सामने चौक पर श्रमिकों के एक विशाल मोर्चे की योजना बनाई गई| उसके पश्चात् एक बड़ा जनसमुदाय एक तरफ से चर्चगेट स्थानक की ओर से तथा दूसरे तरफ से बोरीबंदर की ओर से अत्यंत विद्वेष सहित घोषणा देते हुए फ्लोरा फाउंटन के स्थान पर इकट्ठा हुआ| पुलिस ने उसे तितर-बितर करने के लिए लाठी चार्ज किया| लेकिन मोर्चे में शामिल श्रमिक टस से मस नहीं हुए| उसके बाद मुंबई राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने पुलिस को फायरिंग करने का आदेश दिया| इसके कारण संयुक्त महाराष्ट्र के संघर्ष में १०६ आंदोलक हुतात्मे हुए| इन हुतात्माओं के बलिदान के फलस्वरूप और मराठी प्रजा के आंदोलन की वजह से सरकार को झुकना पड़ा और अंत में १ मई, १९६० के दिन मुंबई का समावेश हो कर संयुक्त महाराष्ट्र की स्थापना हुई| इन १०६ हुतात्माओंने जहाँ बलिदान किया उस फ्लोरा फाउंटन के चौक में १९६५ को हुतात्मा स्मारक खड़ा किया गया| अब यह चौक हुतात्मा चौक के नाम से ही परिचित है| प्रिय मित्रों, जब-जब हम इस मुंबई नगरी को “आमची मुंबई” के नाम से स्मरण करते हैं, तब-तब हमें इन हुतात्माओं के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए|
1 मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। ४ मई १८८६ के दिन अमरीका के श्रमिकोंने आठ घंटे काम करने को नकार दिया और अपने न्यायहक़ के लिए आंदोलन किया, शिकागो के हेमार्केट में बम विस्फोट होने के कारण श्रमिकों में हड़बड़ मच गई| उसके बाद परिस्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए पुलिस ने आंदोलन करने वाले श्रमिकों पर गोलियां चलाई, उसमें कई श्रमिक मारे गए। फिर १८८९ में इन श्रमिकों की स्मृति में १ मई को अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में मनाये जाने की घोषणा समाजवादी संमेलन में की गई| उसके पश्चात् हर साल 1 मई को दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है।
मैंने इस पवित्र भूमि में जन्म लिया और यहीं पली बढ़ी हूँ| जहाँ बहुत अधिक स्वर्णालंकार और रत्न नहीं थे, परन्तु प्रचुर मात्रा में थी सुवर्णकांचन जैसे दमकती असली संस्कारों की गरिमा! पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ते, नाटकों को देखते-देखते और उम्र के बढ़ते-बढ़ते परिचय हुआ यहाँ के साहित्यिक वैभव का! मन में हिलोरें उठती और वह पूछता आचार्य अत्रे रचित “कऱ्हेचे पाणी” का स्वाद चखूँ, या गडकरी द्वारा निर्मित सुधाकर और सिंधू के परिवार की दुर्दशा करनेवाले “एकच प्याला” के रंगों के रंगमंच पर दर्शन करूँ, या फिर पु. ल. देशपांडे निर्मित चुलबुली फुलराणी का प्रसिद्ध “तुला शिकवीन चांगलाच धडा!” यह स्वगत आत्मसात करूँ, या मृत्युंजय के उत्तुंग तथा बहुरंगी व्यक्तिमत्व से स्तिमित हो जाऊं! इन दो हाथों में कितना बटोर सकूंगी, ऐसी अवस्था हो उठती थी मेरी! मेडिकल की शिक्षा प्राप्त की, वह भी नागपुर के प्रसिद्ध वैद्यकीय महाविद्यालय में, नौकरी भी की वहीँ, मैं धन्य हुई और जीवन सार्थक हुआ| इस मिटटी का ऋण चुकाने का विचार तक मन में नहीं ला सकती, कैसे आए? इतना विशाल है वह! ईश्वर के चरणों में “दिल से” प्रार्थना करती हूँ कि, मैं इसी मिटटी में बारम्बार जन्म लूँ और उसीकी पवित्र गोद में अंतिम विश्राम करूँ| इससे अधिक सौभाग्य और क्या हो सकता है?
किसी ने कहा है कि ठेस लगने पर “आई ग!” कर जो दुःख से आह भरे, वहीँ है “असली मराठी माणूस”, परन्तु अब अंग्रेजियत से लैस, ओरिजिनल मराठी बॉय और गर्ल कहेंगे “ओह मम्मा!” वे भी तो मराठी ही हुए ना! दूसरे प्रांतों आये, इस मिटटी से नाता जोड़कर अब “महाराष्ट्रीयन” हुए लोगोंका क्या? (इसका उत्तर मैं नहीं दूंगी, बल्कि आप अवधूत गुप्ते का गाना अवश्य सुनिए और देखिए, लेख के अंत में लिंक दी है!) वे भी “दिल से” गा रहे हैं “जय जय महाराष्ट्र मेरा!” आखिरकार अगर दिल मिल गए तो मिटटी से नाता तो जुड़ना ही है भैया! बंबैय्या मराठी की बस आदत लग जाए तो हर एक चीज एकदम आसानी से फिट हो जाए!
इस दिन का उपभोग केवल सार्वजनिक छुट्टी के रूप में न करते हुए मराठी अस्मिता जगाने का और उसे जतन करने का है| यह हमें निर्धारित करना है कि अत्यंत उत्त्साहित होकर विविध कार्यक्रमों का आयोजन करते हुए धोतर, फेटा, नऊवार साडी, नथ इत्यादि पारम्परिक वेशभूषाओं और “मराठी पाट्या (board)” तक मराठी अस्मिता को सीमित रखें या इससे भी बढ़कर जो इस भूमि का गौरवशाली तथा जाज्वल्य इतिहास है उसे अपने मन में जतन करें!!!
जय हिंद! जय महाराष्ट्र!
इसी जयघोष के साथ अब आपसे विदा लेती हूँ,
धन्यवाद!
टिप्पणी – दो गानों की लिंक जोड़ रही हूँ, लिंक न खुलने पर यू ट्यूब पर शब्द डालें
‘बहु असोत सुंदर संपन्न की महा’ – श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर (समूहगान)
‘जय जय महाराष्ट्र माझा’ – अवधूत गुप्ते (गायक-अवधूत गुप्ते)
© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव
ठाणे
मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
Very nice post…
Did not know about the significance of this day. Thanks for enlightening! _/\_