श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर विशेष रचना – आत्मकथा – समाधि का वटवृक्ष। )
☆ पर्यावरण दिवस विशेष – आत्मकथा समाधि का वटवृक्ष ☆
एक बार मैं देशाटन के उद्देश्य से घर से निकला था, और घने जंगलों के रास्ते गुजर रहा था, तभी सहसा उस नीरव वातावरण से एक तैरती आवाज कानों से टकराई,अरे ओ यायावर मानव !कुछ पल रूक मेरी राम कहानी सुनता जा,और अपने जीवन के कुछ कीमती पल मुझे देता जा, ताकि जब मैं इस जहां से जाऊं तो मेरी अंतरात्मा पर पडा़ बोझ थोडा़ हल्का हो जाय ।
जब मैंने कूतूहल बस अगल बगल देखा तो मुझे वहीं पास में ही जड़ से कटे पड़ें धरासाई वटवृक्ष से ये आवाज़ फिजां में तैर रही थी,और दयनीय अवस्था में कटा हुआ जमीन पर गिरा पड़ा वटवृक्ष मुझसे आत्मिक संवाद कर अपनी राम कहानी कह उठा था, मैंने जब उसे ध्यान पूर्वक देखा तो पाया कि उसके तन पर मानवीय आत्याचारों की अनेक अमानवीय कहानियां अंकित थी।उसका तना कट कर अलग-अलग पड़ा था । शाखाएं अलग ही कटी पड़ी थी,वह धराशाई हो पड़ा था.
जहां उसके चेहरे पर चिंता एवम् विषाद की लकीरें खिंची पड़ी थी वहीं पर और लोक उपकार न कर पाने की पीड़ा भी उसके हृदय से झांक रही थी, उसका मन मानवीय अत्याचारों से बोझिल था। उसने अपने जीवन के बीते पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुए मुझसे कहा। प्राकृतिक प्रकीर्णन द्वारा पक्षियों के उदरस्थ भोजन से बीज रूप में मेंरा जन्म एक महात्मा की कुटिया के सामने धरती की कोख से हुआ। धरती की कोख में पड़ा गर्मी सर्दी सहता पड़ा हुआ था,कि सहसा एक दिन काले काले मेघों से पड़ती ठंडी फुहारों से तृप्त हो मेरे उस बीज से नवांकुर निकल पड़े,इस प्रकार मेरा जन्म हुआ, मेरी कोमल लाल लाल नवजात पत्तियों पर महात्मा जी की नजरें पड़ी तो वे मेरे रूप सौन्दर्य पर रीझ उठे, उन्होंने लोककल्याण की भावना से अभिभूत हो अपनी कुटिया के बाहर सामने ही रोप दिया था मेरे बिरवे को । वे रोज शाम को पूजन वंदन के लिए अमृतमयी गंगाजल लाते, और पूजन के बाद शेष बचे जल से मेरी जड़ों को सींचते तो उस जल की शीतलता से मेरी आत्मा खिलखिला उठती ।
इस तरह मंथर गति से समय चक्र चलता रहा,उसी के साथ मेरी आकृति तथा छाया विस्तार होता रहा,इसी बीच ना जाने कब और कैसे महात्मा जी को मुझसे पुत्रवत स्नेह हो गया, मुझे पता भी न चला,वे कभी मेरी जड़ों में खाद पानी डाला करते कभी मिट्टी पाट चबूतरा बनाया करते,जब वे परिश्रम करते करते थक कर निढाल हो मेरी छाया के नीचे बैठ विश्राम करते तो मेरी शीतल छांव से उनके मन को अपार शांति मिलती,और मेरी छाया उनकी सारी पीड़ा सारा थकान हर लेती, उनके चेहरे पर उपजे आत्मसंतुष्टि के भाव देख मैं भी अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव के दर्प से भर उठता,मेरा चेहरा चमक उठता, मेरी शाखाएं झुक झुक अपने धर्म पिता के गले में गलबहियां डालने को व्याकुल हो उठती।
गुजरते वक्त के साथ मेरे विकास का क्षेत्र फल बढ़ता गया, मैं जवान हो गया था, मैंने हरियाली की चादर तान दी थी अपने धर्मपिता की कुटिया के उपर, तथा पूरे प्रांगण को ढक लिया था अपनी शीतल छांव से,मेरी शीतल छाया का आभास धूप में जलते पथिक को होता तथा पके फल खाते पंछियों के कलरव से गूंज उठता कुटिया प्रांगण, उसे सुनकर मेरा चेहरा अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव से भर उठता,और उनके चेहरे काआभामंडल देख मेरा मन मयूर नाच उठता।अब उनकी प्रेरणा से मैं भी लोकोपकार की आत्मानुभूति से संतुष्ट था,उन संत के सानिध्य का मेरी मनोवृत्ति पर बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा था, मेरी जीवन वृत्ति भी लोकोपकारी हो गई थी.
अब औरों के लिए दुख पीड़ा झेलने में ही मुझे सुखानुभूति होने लगी थी । महात्मा जी ने मेरी छाया के नीचे चबूतरे को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था, लोगों का आना जाना तथा सत्संग करना महात्मा जी के दैनिक दिनचर्या का अंग बन गया था । मैंने अपने जीवन काल में महात्मा जी की वाणी तथा सत्संग के प्रभाव से अनेकों लोगों की जीवन वृत्ति बदलते हुए देखा,और एक दिन महात्मा जी को जीवन की पूर्णता प्राप्त कर इस नश्वर संसार से विदा होते देखा,अब मेरी छाया के नीचे बने चबूतरे को ही महात्मा जी का समाधि स्थल बना दिया गया, तब से अब तक महात्मा जी के साथ बिताए पलों को अपने स्मृतिकोश में सहेजे लोक कल्याण की आश का दीप जलाये धूप जाड़े तथा बर्षा सहते उस समाधि को घनी छाया से आच्छादित किये बरसों से खड़ा था। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा,मैं कभी पक्षियों का आश्रयस्थल बना तो कभी किसी थके हारे पथिक की शरणस्थली। पर हाय ये मेरी तकदीर!ना जाने क्यूं ये मानव मूझसे रूठा। मुझे नहीं पता, वो तेजधार कुल्हाड़ी से मेरी शाखाएं काटता रहा था,अपना स्वार्थ सिद्ध करता रहा, मैंने उसे कुछ नहीं कहा,बल्कि मौन हो उस दर्द पीड़ा को सहता रहा हूं, परंतु आज इन बेदर्द इंसानों ने सारी हदें पार कर मेरी जड़े काट मुझे मरने पर बिबस कर दिया,क्यो कि उन्होंने ने वहां मंदिर बनाने का निर्णय लिया है,इस क्रम में उन्होंने पहली बलि मेरी ही ली है।
मैंने सोचा कि जब मैं इस दुनिया से दूर जा ही रहा हूं तो क्यो न अपनी राम कहानी तुम्हें सुनाता चलूं,ताकि मेरे मन का मलाल घुटन पीड़ा कम हो जाय तथा सीने पर पड़ा बोझ हल्का हो जाय।मेरा निवेदन है कि मेरी पीड़ा व्यथा तथा दर्द से समाज को अवगत करा देना ताकि यह मानव समाज और बृक्ष न काटे,इस प्रकार प्रकृति पर्यावरण का संरक्षण का संदेश देते हुए उसकी आंखें छलछला उठी,उसकी जुबां खामोश हो गयी, वह मर चुका था,उस वटवृक्ष की दशा देख मेरा हृदय चीत्कार कर उठा,और मैं उस धराशाही वटवृक्ष को निहार रहा था अपलक किंकर्तव्यविमूढ़ असहाय होकर।
आपका निबंध लेखन अत्यंत सराहनीय है आप बड़ी कुशलता से साहित्यिक शैली में अपने वक्तव्य को स्पष्ट रूप से रखने में महारथी हैं बधाई होIl