श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 26 – छविगृह व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश में बॉलीवुड शब्द अमेरिका के हॉलीवुड की नकल है। हमारी फिल्में, संगीत आदि भी बहुत कुछ यहां की कॉपी है ऐसा लोग कहते हैं। कभी कभी अनुमति अवश्य ले ली जाती है, जिसका शुल्क भी अदा किया जाता हैं।
विदेश में पास के एक छोटे से कस्बे में रीगल नामक छविगृह हैं। जिसमें दो हिंदी फिल्में चल रही थी, पहला दिन और पहला शो, तीन सौ सीट के हाल में हमारे सहित कुल दस लोग थे। सत्तर के दशक में कॉलेज के दिन याद आ गए। परिचित कर्मचारी से एक दिन पूर्व मिल कर टिकट की व्यवस्था या छविगृह में साईकिल स्टैंड वाले से अतिरिक्त राशि देकर टिकट प्राप्त की जाती थी।
यहां छविगृह में वाहन पार्किंग निशुल्क थी। हमारे समय में तो साइकिल की पार्किंग के लिए दस पैसे बचाने के लिए दो मित्र एक ही साइकिल पर चल देते थे।
यहां टिकट प्राप्ति के लिए कियोस्क से अपनी पसंद की पिक्चर चुनकर कार्ड से या नगद राशि से भुगतान कर मशीन से टिकट प्राप्त की जा सकती हैं। छविगृह में चौदह अलग स्क्रीन हैं। प्रवेश के लिए कोई टॉर्च लिया हुआ गेटकीपर भी नहीं है।
छविगृह में सीजन पास की भी व्यवस्था है। पूरे अमेरिका में स्थित दो सौ रीगल में कहीं भी अनगिनत पिक्चर्स देखी जा सकती है। कार्ड धारक को मद्यपान छोड़ कर सभी खानपान में विशेष छूट का प्रावधान है। पॉपकॉर्न का बड़ा डिब्बा या ठंडे पेय की बोतल को कितनी बार दुबारा मुफ्त में भरने की सुविधा सब के लिए उपलब्ध है।
पिक्चर में मध्यांतर नहीं होता है। सबसे अच्छी बात हमारे जैसे उम्र दराज दर्शकों को टिकट में विशेष छूट की व्यवस्था भी है।
© श्री राकेश कुमार
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