श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है  समसामयिक विषय पर आपका एक विचारणीय आलेख  “आज पितृमोक्ष अमावस्या है”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “आज पितृमोक्ष अमावस्या है” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

पितृपक्ष

चंद्र आधारित कैलेंडर में पंद्रह-पंद्रह दिन के दो पक्ष होते हैं। शुक्ल-पक्ष और कृष्ण-पक्ष। भाद्र मास की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या का कृष्ण-पक्ष पितृपक्ष माना जाता है। इन पंद्रह दिनों में हिंदू धर्मावलम्बी अपने पूर्वजों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धा पूर्वक खाद्य पदार्थ अर्पण करके भोजन ग्रहण करते हैं। इसका वैदिक और उपनिषद में वर्णन किस तरह आया है।

पितरों की आराधना में लिखी ऋग्वेद की एक लंबी ऋचा (10.14.1) में यम तथा वरुण का उल्लेख मिलता है। पितरों का विभाजन वर, अवर और मध्यम वर्गों में किया गया है। संभवत: इस वर्गीकरण का आधार मृत्युक्रम में पितृविशेष का स्थान रहा होगा। ऋग्वेद (10.15) के द्वितीय छंद में स्पष्ट उल्लेख है कि सर्वप्रथम अंतिम दिवंगत पितृ तथा अंतरिक्षवासी पितृ श्रद्धेय हैं। सायण के टीकानुसार श्रोत संस्कार संपन्न करने वाले पितर प्रथम श्रेणी में, स्मृति आदेशों का पालन करने वाले पितर द्वितीय श्रेणी में और इनसे भिन्न कर्म करने वाले पितर अंतिम श्रेणी में रखे जाने चाहिए।

ऐसे तीन विभिन्न लोकों अथवा कार्यक्षेत्रों का विवरण प्राप्त होता है जिनसे होकर मृतात्मा की यात्रा पूर्ण होती है। ऋग्वेद (10.16) में अग्नि से अनुनय है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो। अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा की भटकने से रक्षा करें।

ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है। स्वर्ग के आवास में पितृ चिंतारहित हो परम शक्तिमान् एवं आनंदमय रूप धारण करते हैं।

पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि की प्राप्ति के हेतु पिंडदान देते और पूजापाठ करते हैं। वेदों में पितरों के भयावह रूप की भी कल्पना की गई है। पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके क्षुद्र अपराधों से अप्रसन्न न हों। उनका आह्वान व्योम में नक्षत्रों के रचयिता के रूप में किया गया है। उनके आशीर्वाद में दिन को जाज्वल्यमान और रजनी को अंधकारमय बताया है। परलोक में दो ही मार्ग हैं : देवयान और पितृयान। पितृगणों से यह भी प्रार्थना है कि देवयान से मर्त्यो की सहायता के लिये अग्रसर हों।

हमने फ़ेस्बुक पर एक प्रश्न उछाला कि “किन शास्त्रों में लिखा है कि पुत्रियाँ श्राद्ध नहीं कर सकतीं। किस परिवार का वंश किसी अन्य परिवार की पुत्री के बग़ैर चल सकता है।” जिसके उत्तर में कुछ फ़ेसबुकिया मित्रों के बीच संवाद इस प्रकार है।

अरूण दनायक जी ने कहा- “वाजिब प्रश्न। मनुस्मृति ऐसा कहती है। वंश चलाने के लिए पुत्र का होना आवश्यक है क्योंकि विवाह के बाद पुत्री का गोत्र बदल जाता है। इसलिए लोग बहुत सी सन्तान पैदा करते थे।”

हरि भाऊ मोहितकर ने कहा- “सही कहा आपने ,बहुत सारे जीवन जीने के सिद्धांत समयानुसार बदलते रहते हैं /बदला ना पड़ता है।”

अरूण दनायक जी का विचार आया- “हिंदू धर्म शास्त्र तो यही कहते हैं। आज खबर है कि डाकोर जी गुजरात के रडछोडराय जी के मंदिर में स्त्री पुजारियों को पूजा पाठ से रोक दिया गया जबकि वे मंदिर के दिवंगत सेवक की पुत्रियां हैं। दिवंगत सेवक के कोई पुत्र न था। दूसरी तरफ पुत्रियां अब अंतिम संस्कार भी कर रही हैं और दाह भी दे रही हैं। इलाहाबाद में तो अंतिम कर्मकांड कराने वाली बहुत सी महिलाएं मिल जाएंगी।”

डॉक्टर अनिल कुमार वर्मा का कहना था- “नहीं ऐसा नहीं है। कल ही मेरे छोटे भाई अरुण (Ex DGM BSP) का श्राद्ध उसकी गोद ली हुई बेटी ने किया है।”

अरूण दनायक जी का विचार था- “इसमें दो बातें हैं जब दक्षिणा मिलनी होती है तो एक नियम है और जब दक्षिणा में रुकावट आती है स्त्रियों पर पाबंदी का नियम लागू हो जाता है। यह सब सामाजिक विद्रूपताएं हैं जो ज्यादा से ज्यादा पचास साल और चलेंगी। क्योंकि आगामी पचास वर्षों में बहुसंख्यक लोगों की एक ही संतान होगी पुत्र या पुत्री।”

आदाब खान ने एक कविता लिख कर बताया-

“जमाने भर में बढ़ी, घर की शान बेटी से।

महकता रहता है, सारा मकान बेटी से।।

जरूरी यह नहीं बेटों से नाम रोशन हो।

मेरे पैगम्बर का चला खानदान बेटी से।।”

दिलीप ताम्हने जी का मंतव्य था- “पुत्रियां मुखाग्नि भी दे रही हैं और मृत्यु पश्चात् विधि भी सम्पूर्ण करा रही हैं। मेरे ज्ञान के अनुसार यह शास्त्र सम्मत है। महाराष्ट्र में तो महिलाएं पौरोहित्य भी कर रही हैं।”

राजेंद्र बेहरे जी ने बताया- “आज के समय में लड़कियों के द्वारा अंतिम संस्कार के भी अनेक प्रकरण संपन्न करने के समाचार मिलते रहते हैं।”

सिद्धांत सिर्फ़ शब्द नहीं होते। सिद्धांत बदल रहे हैं। आज लड़कियाँ भी श्राद्ध कर रही हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कृत एस आर भैरप्पा के नवीनतम उपन्यास “आवरण” में एक मुस्लिम बुद्धिजीवी से बिहाई गई शास्त्री जी की बेटी मंदिर में शुद्धीकरण के पश्चात गया प्रयाग और काशी में श्राद्ध करती है और ब्राह्मण उसे शास्त्रोक्त बता कर श्राद्ध करवाते हैं।

हिंदू धर्म में किसी भी प्रथा या परम्परा को अंतिम सत्य नहीं माना गया है। आत्मा-परमात्मा, कर्मवाद और पुनर्जन्म के आधारभूत सिद्धांतों के अलावा सभी चीजें बदल सकती हैं। जैन और बौद्ध इन सिद्धांतों को नहीं मानते फिर भी उनकी जड़ें हिंदू सनातन दर्शन में ही जाकर खुलती हैं।

जिस समय नारियों के हाथ में आर्थिक सत्ता नहीं थी। इस समय पुरुष ही दान-दक्षिणा का निर्णय करते थे। इसलिए पिंडदान और श्राद्ध कर्मकांड पुत्रों से चिपक गया। अब जबकि पुत्रियों आर्थिक सक्षम हो रही हैं ।अब  वे भी अपने माता-पिता का दाह संस्कार और श्राद्ध करके राहत और कर्तव्य परायणता का सुख पाने लगी हैं। हिंदू परम्परा हमेशा बदलने को तैयार रही है। यह एकेश्वरवाद नहीं है जिसमें जो एक बार एक किताब में लिख दिया वह बदला नहीं जा सकता।

 

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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