श्री अरुण कुमार डनायक
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी का महात्मा गाँधी जन्मदिवस पर विशेष आलेख “महात्मा गांधी और विश्व शांति के लिए अहिंसा ”)
☆ महात्मा गाँधी जन्मदिवस विशेष – महात्मा गांधी और विश्व शांति के लिए अहिंसा ☆
महात्मा गांधी की 152वीं जन्म जयंती के अवसर पर विश्व शांति की मंगलकामनाएं ।
महात्मा जी के मन में अहिंसा का जनआन्दोलन में उपयोग करने का विचार कब और कैसे आया होगा? यह शोध का विषय है । लेकिन उनके अहिंसा संबंधी विचारों को विश्व ने माना, अनेक देशों के राजनेताओं ने अपने-अपने देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने अहिंसा के सिद्धांत को अपनाया, विभिन्न राजनीतिक विचारधारा के लोगों ने राज सत्ता के समक्ष अपनी मांगे रखने के लिए अहिंसक मार्ग को चुना, कर्मचारी संघठनों ने, प्रबंधन से चर्चा करने के लिए इसी मार्ग का सहारा लिया और सफलता पाई। यह ऐसे चंद उदाहरण हैं, जो गांधीजी की अहिंसा के सिद्धांत की, सर्वकालिक प्रासंगिकता को स्वमेव सिद्ध करते हैं । यहां तक कि उनके विचारों के धुर विरोधी, दक्षिणपंथी और हिंसा में विश्वास रखने वाले भी लोग भी अहिंसा संबंधी गांधीजी के विचारों का खंडन तर्क से नहीं कर पाते हैं और इसलिए वे उसका मजाक उड़ाने लगते हैं । ‘अहिंसा ने हमें कायर बना दिया’, ‘गांधी मार्गियों से थप्पड़ खाने के लिए अपना गाल आगे करने’ की बातें, ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’, ‘चरखे ने आजादी दिला दी’ आदि ऐसे कुतर्क हम अक्सर सुनते रहते हैं।
अहिंसा को लेकर गांधीजी ने अपने विचार विभिन्न लेखों और अपने कार्य के माध्यम से समय समय पर आम जनमानस के सामने रखे। लेकिन उनका समेकित स्वरूप हमें पढ़ने मिलता है, गांधीजी के बीज ग्रंथ ‘मंगल-प्रभात’ में । छोटी सी यह पुस्तिका हमें इस महामानव के एकादश व्रतों के बारे में विस्तार से बताती है और उसमें सत्य के बाद अहिंसा का स्थान है । शेष 9 व्रत नहीं दोनों सिद्धांतों पर आधारित हैं ।
गांधीजी ने अहिंसा को कभी भी कायरों को अस्त्र नहीं माना । वे तो इसे आत्मबलिदान की भावना से प्रेरित, मानवता की रक्षा करने और अत्याचार का मुकाबला करने का एक ऐसा अचूक तरीका मानते थे, जो स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने वाली तानाशाह, क्रूर, हिंसक राजसत्ता का मुकाबला करने के लिए डटी रहती है । गांधीजी राज्य की हिंसा को मानवता के लिए सबसे ज्यादा हानिकारक मानते थे । आम जनता, राज्य की हिंसा का मुकाबला, अपने सीमित संसाधनों से नहीं कर सकती है। यह विभिन्न देशों में घट रही घटनाओं से , जिसमें विरोध का दमन करने पुलिस और सेना के निर्दयी बल प्रयोग और राजनीतिक विरोधियों को समाप्त करने के लिए पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ का सहारा लेकर हत्या कर देना, प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध हो जाता है। भूगोलीकरण के इस दौर ने अर्थतन्त्र को मजबूती प्रदान की है और अनेक लोगों को असीमित संपत्ति अर्जित करने का अवसर दिया है । ऐसे लोग आजकल राजसत्ता के नए हिंसक तरीके का शिकार हो रहे हैं । अपने विरोधी का दमन करने, संपत्ति धारकों से अधिक से अधिक धन वसूली की लिप्सा ने, सरकार ने उसके पास उपलब्ध सरकारी एजेंसियों के माध्यम से, जांच व छापे मारने के दुरुपयोग को जन्म दिया है । यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि छापे केवल राजनीतिक विरोधियों के ठिकानों पर क्यों पड़ते हैं ? और राज्य की ऐसी हिंसा, जिसके चंद उदाहरण ऊपर पढ़ने में आए हैं, के विरोध का एक मात्र तरीका अहिंसक मार्ग पर चलते हुए, उस दमनात्मक कारवाई के विरोध में, राजसत्ता के सामने डट कर खड़े रहकर ही किया जा सकता है । गांधीजी की अहिंसा, हमें आत्मबलिदान की भावना के साथ, अन्याय का मुकाबला करने की प्रेरणा देती है। वह हमें दमन स्थल से भागने के लिए नहीं कहती । डटकर मुकाबले में खड़े रहने की भावना वीरता और साहस का प्रतीक है । इसलिए अहिंसा कायरों का नहीं वरन आत्मबलिदानियों का मार्ग है ।
गांधीजी कहते थे कि अगर कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो हमें दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए, हिंसा का सहारा लिए बिना अपने सत्य पर अडिग रहना चाहिए । अहिंसक मार्ग पर चलने को उत्सुक ऐसे आत्मबलिदानियों के सामने, अंततः हिंसक मनुष्य भी झुक जाएगा और वह हिंसा का परित्याग करने विवश हो जाएगा । गांधीजी मानते थे कि अपने सक्रिय रूप में अहिंसा का अर्थ है ज्ञानपूर्वक कष्ट सहना ! गांधीजी की अहिंसा, अन्यायी के आगे दबकर घुटने टेक देने की नीति नहीं है, वरन वह अत्याचारी की क्रूरतम मनोदशा के आगे आत्मा की सारी शक्ति लगाकर विरोध करते रहने की भावना से ओतप्रोत है । और भारत के इस प्राचीन आदर्श का पालन करते हुए एक अकेला आदमी भी, अपने सम्मान,धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए, किसी भी अन्यायी, यहां तक कि शक्तिशाली व बलशाली राजसत्ता, को भी चुनौती दे सकता है । ऐसे अहिंसक विरोध प्रदर्शन कर वह सुधार की नींव रख सकता है । गांधीजी जब अपने अनुयायियों को एक गाल पर थप्पड़ खाने पर दूसरा गाल आगे कर देने की शिक्षा देते हैं तब उनका मकसद होता है कि अहिंसक रहते हुए अन्याय का प्रतिकार करो, जुल्मी के आगे डटे रहो । यह तरीका हमने आजादी के आंदोलन में बार-बार कारगर होते देखा और सुना । विश्व भर की तानाशाह सरकारें भी ऐसे विरोध प्रदर्शन के आगे अंतत: झुकने को विवश हो गई । यह तरीका त्वरित परिणाम नहीं देता पर जो परिणाम इस मार्ग पर चलकर प्राप्त होते हैं वे स्थाई होते हैं ।
‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ वे लोग मानते हैं जिन्होंने हमारे स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पढ़ा ही नहीं है । गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से, जनरल स्मिटज की भेदभावपूर्ण नीतियों का अहिंसक तरीके से मुकाबला कर और अनेक ईसाइयों व मुस्लिम युवाओं, जिन्होंने उन पर प्राणघातक हमले किए थे, का हृदय परिवर्तन कर, भारत वापस आए तो लोगों ने उनसे भारत की स्वतंत्रता में योगदान देने हेतु न केवल आग्रह किया वरन उनके तरीके को भी स्पष्ट करने को कहा । गांधीजी ने तब यह कहा था कि अभी आगामी दो वर्षों तक वे भारत का भ्रमण करेंगे, जनता के विचार जानेंगे तब अपनी योजना सबके सामने रखेंगे । अपने देशव्यापी दौरे के बाद जब वे कांग्रेस के सामने प्रस्तुत हुए तो उन्होंने यही शर्त रखी की आजादी की लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी जाएगी तभी वे इस आंदोलन का नेतृत्व करेंगे । भारत के लोगों से उन्होंने अहिंसा अपनाने इसलिए नहीं कहा की भारतीय कमजोर हैं, उनमें वीरता का अभाव है । गांधीजी को भारत के निवासियों के बल और उसकी वीरता का भान था और इसीलिए उन्होंने उन्हें अहिंसा के मार्ग पर चलने की सलाह दी । उनके आह्वान को देश भर से समर्थन मिला और तमाम विरोधों के बावजूद वे अगले तीस वर्षों तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करते रहे । अपने नवोन्मेष तरीकों, राजनीतिक चातुर्य से अंग्रेजों और देश की विघटनकारी शक्तियों के नापाक इरादों को ध्वस्त करते हुए देश को आजादी दिलाने के अपने प्रयासों में कामयाब हुए। उनके आंदोलनों ने उस वक्त ब्रिटिश साम्राज्य को घुटने टेकने मजबूर कर दिया। और इसीलिए गांधीजी मजबूरी नहीं मजबूती का नाम है ।
चरखे को गांधीजी के स्वतंत्रता आंदोलन का ऐसा अहिंसक हथियार बना दिया जिसने न केवल ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाई वरन भारत के करोड़ों गरीबों को दो जून की रोटी कमाने और खाने का आसान तरीका उपलब्ध कराया । चरखा और उससे सूत कातने को गांधीजी ने स्वराज प्राप्ति का साधन माना । उनके अनुसार जब अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएंगे तब देश को राजनीतिक आजादी मिलेगी लेकिन सच्चा स्वराज तो तभी आएगा जब हर हाथ को काम और दो वक्त की रोटी शांति से खाने को मिलेगी । खादी और चरखा जिसका उनके रचनात्मक कार्यक्रमों में अभिन्न व महत्वपूर्ण स्थान था, वह केवल प्रतीक नहीं था I I एक आंकड़े के अनुसार 1940 में तीन लाख ग्रामीणों ने कताई, पिंजाई, बुनाई, आदि से लगभग पैतीस लाख रुपये की मजदूरी कमाई थी I चरखा और खादी उत्पादन को वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानते थे । चरखे ने तो देश और विदेश में स्वदेशी की धूम मचा दी थी I तभी तो राजा से लेकर रंक तक ( महाराजा नाभा ने अपनी महारानी के साथ चरखा चलाना शुरू किया था तो नेहरूजी का परिवार भी सूत कातने लगा था ) सभी ने गांधीजी के आह्वान पर चरखा चलाना, स्वयं के काते सूत के कपडे पहनना शुरू कर दिया था और जब गांधीजी द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने लन्दन गए तो 26सितम्बर 1931 को लंकाशायर की कपडा मिलों के बंद हो जाने से बेरोजगार मजदूरों से भी उनकी मुलाक़ात हुई I मजदूरों को उनके चरखा आन्दोलन से शिकायत थी I लेकिन जब गांधीजी ने भारत के बुनकरों के बेरोजगार होने और उनकी गरीबी का कारण लंकाशायर की मिलों के कपडे को बताया तो बेरोजगार मजदूर भी उनके समर्थन में दिखे, तमाम अखबारों ने भारत की विदेशी परतंत्रता के युग मे चरखा व खादी को गांधीजी की मौलिक खोज बताने में परहेज नहीं किया।
विश्व के अनेक देशों ने महात्मा गांधी की प्रतिमाएं अपने यहां स्थापित की, मार्गों और सड़कों के नाम गांधीजी पर रखे गए, विश्व के समकालीन लेखक, साहित्यकार, कवि, राजनेता, फिल्मी कलाकार, पत्रकार, राजनेता उनसे मिलने सदैव उत्सुक रहते थे । नोबल समिति ने उन्हे शांति के लिए नोबल पुरस्कार न दे पाने पर अनेक बार खेद जताया और ऐसे अनेक लोगों को यह पुरस्कार दिया जिन्होंने गाँधीमार्ग से प्रेरणा लेते हुए मानवता के कल्याण के लिए सतत प्रयास किए ।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने उनके सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों को मान्यता देते हुए उनके जन्म दिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाने का संकल्प लिया । यह सब हम भारतीयों के लिए गर्व और गौरव का विषय है।
© श्री अरुण कुमार डनायक
42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39