श्रीमती उज्ज्वला केळकर
(आज प्रस्तुत है वरिष्ठ मराठी साहित्यकार, ई-अभिव्यक्ति ( मराठी ) की सम्पादिका एवं हमारी मार्गदर्शक श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी का एक अप्रतिम ललित लेख “स्पर्श”. हम जीवन में ऐसे कई शब्दों से परिचित होते हैं। किन्तु, उन शब्दों की गहराई में जाने की चेष्टा कभी नहीं करते। एक छोटा सा शब्द “स्पर्श” किन्तु, उसका हमारे जीवन में कितना गहरा सम्बन्ध है , यह आप इस आलेख को पढ़ कर ही जान पाएंगे। ऐसे विचारणीय आलेख के लिए श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी का ह्रदय से आभार।)
☆ आलेख ☆ स्पर्श (ललित लेख) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆
स्पर्श तरह तरह के… स्पर्श प्यारे… प्यारे… स्पर्श न्यारे…न्यारे … स्पर्श कोमल… वत्सल.. स्पर्श अधीर… उत्सुक… स्पर्श आक्रामक… उत्तेजक. स्पर्श स्निग्ध मलाई जैसे, स्पर्श नाजुक फूल की पंखुडी जैसे … स्पर्श कठोर, कडक ठूठ की खाल जैसे … स्पर्श आकर्षक मयूरपंख के पर जैसे… स्पर्श फिसलते… स्पर्श दबोचते… कंटीले स्पर्श, मुलायम स्पर्श… जानलेवा स्पर्श… संजीवक स्पर्श. कभी स्पर्श न होते हुए भी होने का आभास दिलाते है. कभी स्पर्श होते हुए भी न होने का अहसास दिलाते है.
माँ के गर्भाशय में भ्रूण अपने लिए जगह बनाता है. वहाँ वह पनपता है. विकसित होता है. उसका वहाँ हिलना, डुलना, हाथ-पांव चालाना, माँ के शरीर और अंतस को कितना सुख, कितना आनंद देता है! उसी स्पर्श से वह कितनी रोमांचित होती है! कभी कभी मन ही मन भयभीत भी होती है.
एक दिन वेदना के आग में झुलसते हुए माँ बच्चे को जन्म देती है. दोनों जीवों को बांधनेवाला बंधन टूटता है. एक जीव दूसरे को स्पर्श करते हुए बाहर आता है. अलग हो जाता है. अपने से ही बाहर आयी यह गठरी माँ अपने हृदय से लगाती है. उसे अपने गोद में सुलाती है. बच्चे का वह नरम-गरम स्पर्श माँ की सारी वेदनाओं को मिटा देता है. अपने सुकोमल होठों से स्तनपान करनेवाले बच्चे का स्पर्श माँ को स्वर्गसुख का आनंद दिलाता है.
अपनी माँ के स्निग्ध, स्नेहील स्पर्श का अनुभव करते हुए शिशु बढने लगता है. उस की टट्टी, पेशाब, उसे नहलांना-धुलाना, उस के कपडे बदलना, उसे खिलाना, सुलाना कितने ही काम …किंतु माँ के लिये ये काम, काम थोडे ही है? उस के लिये तो ये काम आनंद ही आनंद है. ममतामयी स्पर्श का माँ और बच्चा दोनों अनुभव करते है.
शिशु करवटे बदलने लगता है. घुटनों के बल पर आगे बढता है. बैठने लगता है. खडा होता है. ठुमक – ठुमक कर चलने लगता है, तो पाँव तले की जमीन उसे सम्हालती है. आत्मविश्वास देती है. अब आगे चलकर जिंदगी भर उस जमीन का साथ रहेगा, मांनो वह उस की दूसरी माँ हो.
जब माँ की उंगली पकड कर बच्चा, घर की देहरी लांघ कर आंगन में आता है, तब उस की आंखों के सामने एक नई दुनिया का नजारा प्रगट होता है. इस नई दुनिया को वह आपनी आंखों के स्पर्श से देखना, जानना, पहचानना चाहता है. माँ से पूछने लगता है, ये क्या है… वो क्या है…. इधर क्या है… उधर क्या है… कितने प्रश्न… अनगिनत प्रश्न…. बच्चा अब और बडा होता है. स्कूल जाने लगता है. शुरू में माँ को छोड कर स्कूल में बैठना उसे असुरक्षित, नामुमकिन–सा लगता है. उसे रोना आता है. बाद में आदत-सी हो जाती है. यहां हमउम्र अन्य बच्चो से दोस्ती होती है. स्कूल में, खेल के मैदान में, समवयस्क दोस्तों के साथ हाथ मिलाना, गले लगाना, धक्कामुक्की, हाथापाई कितने तरह के स्पर्श… तरह – तरह की भावना व्यक्त करनेवाले स्पर्श… प्यार, आत्मीयता, आधार, आश्वासन, नफरत, अवहेलना, शत्रुभाव…
भविष्य में जहां…तहां… ऐसे स्पर्श मिलते ही रहते है॰
बाल्यावस्था, किशोरावस्था की सीढियां चढते चढते अब व्यक्ति जवानी की सीढ़ी पर खड़ी होती है. शिक्षा-दीक्षा पूरी होने के बाद वाह नौकरी-व्यवसाय में जुट जाती है. घर में अब उस के विवाह को लेकर बातों का दौर चलने लगता है.
कुछ भाग्यवान ऐसे होते है, जो विवाह के पूर्वं ही प्यार की डोर में बंध जाते है. बाद में विवाह की रस्म पूरी की जाती है. बहुतेरे लोग विवाह वेदी पर ही ’एक दूजे के’ होने का वादा करते है. पंडित और अन्य लोगों के सामने वचनबद्ध होते है. पति-पत्नी का रिश्ता बाजे-गाजे के साथ जुड जाता है.
लोगों के सामने दोनों में सिर्फ नयनस्पर्श ही होता है. यह स्पर्श दोनों दिलों में मधु मधुर संवेदनाओं को जगाता है. एकांत में हस्तस्पर्श, देहस्पर्श का दौर शुरू होता है. शुरू शुरू में ये स्पर्श लजीले, सुकोमल नाजुक होते है. धीरे धीरे स्पर्श ढीठ हो जाते है. उत्कट, उन्मुक्त होते जाते है. मन कहता है, यह क्षण यहीं रुक जाय लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसा कुछ होता नहीं. देखते देखते दोनों नींद की आगोश में समा जाते है.
स्पर्श जीवन का अहं हिस्सा है किंतु एकमात्र नही. जीवन अपनी गति से बहता रहता है. समय आगे आगे निकलता है. बच्चों का जन्म होता है. बच्चे, पत्नी, माँ-बाप सभी के प्रति अपना दायित्व होता है. जिम्मेदारीयाँ निभानी पडती है. रोजमर्रा की जिंदगी में रोजी रोटी के जुगाड में नौकरी, उद्योग, व्यवसाय पर जाना अपरिहार्य होता है. वहां दिन भर निर्जीव वस्तुओं का ही स्पर्श. अलिप्त, भावहीन स्पर्श … जैसे कागज, फाईल्स, संगणक … दिन भर उन का ही साथ…. उनकी ही स्पर्शसंवेदना.
शाम को थके-मांदे घर लौटने के बाद, जब बच्चे दौडते दौडते पास आते है, गले लगते है, झप्पी देते लेते है, कंधे पकड कर उछल कूद करते है, तब इन का मधुर स्पर्श सारी थकान मिटा देता है. उन का यह स्पर्श नई संजीवनी प्रदान करता है. अधेड उम्र और वृद्धावस्था में यही सुख, यही आनंद पोते –पोतियों पर प्यार-दुलार लुटाने से प्राप्त होता है किंतु आज-कल के टूटते परिवार या एकल परिवार संस्कृति के कारण बहू – बेटे साथ रहते ही कहां है कि उन्हें उन के सहवास का सुख मिल जाय. स्पर्श तो दूर की बात! अगर साथ रहते भी हो, तो इस गतिमान युग में न तो बहू-बेटे- बेटियों को पास बैठकर दो बातें करने की फुरसत है न पोते-पोतियों को. सब कुछ होते हुए भी ये लोग अपने आत्मीय जनों के ममता भरे, प्यार भरे स्पर्श के लिए तरसते रहते है… तरसते ही रहते है…
© श्रीमती उज्ज्वला केळकर
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