श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है। आज प्रस्तुत है स्वतंत्रता दिवस पर विशेष आलेख –  “बुंदेलखंड में स्वतंत्रता आन्दोलन”)

☆ स्वतंत्रता दिवस विशेष – बुंदेलखंड में स्वतंत्रता आन्दोलन ☆ 

बुंदेलखंड पथरीला है दर्पीला है और गर्वीला भी। इसकी सीमाएं नदियों ने निर्धारित की हैं

“ इत यमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस।

छत्रसाल से लरन की, रही न काहू हौस।I”

वर्तमान  में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच विभक्त बुंदेलखंड में स्वतंत्रता की सुगबुगाहट तो 1857 की पहली क्रान्ति से ही शुरू हो गई थी। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में बुंदेले धर्म और जाति का बंधन भूलकर एक झंडे के नीचे एकत्रित हो गए और उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति का बिगुल फूंक दिया। यद्दपि 1847 के बुन्देला विद्रोह को, जिसमें कुछ देशी रियासतों व जागीरदारों ने भाग लिया था, अंग्रेजों ने क्रूरता से कुचल दिया था और इस कारण ओरछा, पन्ना, छतरपुर, दतिया आदि  बड़ी रियासतों ने झाँसी की रानी का साथ न देकर अंग्रेजों से सहयोग किया और विद्रोह को कुचलने में अपनी रियासतों से सैन्य दल भेजे तथापि बांदा के नवाब अली बहादूर, शाहगढ़ के राजा बखत बली, बानपुर के राजा मर्दन सिंह आदि ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में न केवल भाग लिया वरन अपनी तलवार का तेज दिखाया।

इस क्रान्ति के असफल होने के बाद लम्बे समय तक बुंदेलखंड में स्वंत्रतता की चिंगारी दबी  रही। लेकिन 1915 में गांधीजी के भारत  आगमन, 1917 के चम्पारण सत्याग्रह और जालियाँवाला बाग़ काण्ड और फिर 1921 में कांग्रेस द्वारा शुरू किए असहयोग आन्दोलन की ख़बरें बुंदेलखंड पहुँचने लगी, और रियासतकालीन बुंदेलखंड में इन आन्दोलनों की, महात्मा गांधी की चर्चा होने लगी। काकोरी में रेलगाड़ी से अंग्रेजों का खजाना लूटने के बाद,काकोरी काण्ड के नायक चंद्रशेखर आज़ाद, बहुत समय तक ओरछा के जंगलों मे छद्म वेश में रहे और आसपास  की रियासतों ने उन्हें हथियार उपलब्ध करवाकर क्रान्ति की मशाल को जलाए रखने में सहयोग दिया।  छतरपुर और अजयगढ़ रियासत के किसानों ने चंपारण सत्याग्रह से प्रेरित होकर लगान बंदी आन्दोलन 1932 में  शुरू कर दिया। रियासतों ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए गोलियां चलाई और अनेक लोग इस गोलीचालन में शहीद भी  हो गए। अजयगढ़ रियासत में लगान बंदी आन्दोलन का नेतृत्व गया प्रसाद शुक्ला ने किया। जब मैं स्टेट बैंक की वीरा शाखा में पदस्थ था तो उनके वंशजों, जिनके भवन में हमारी शाखा लगती थी,  से इस आन्दोलन के किस्से सुने थे। बाद में अंग्रेजी शासन ने इन  आन्दोलनों को कुचलने के प्रयासों की जांच करवाई  और लगान में कुछ रियायतें दी गई।

जब 1937 गांधी इरविन समझौता हो गया और संयुक्त प्रांत स्थित  ब्रिटिश शासनाधीन बुंदेलखंड में विधान सभाओं के चुनाव हुए तब जवाहर लाल नेहरु जैसे राष्ट्रीय नेताओं का दौरा  इस क्षेत्र में हुआ और उस दौरान वे रियासती बुंदेलखंड में भी गए। इन दौरों का असर यह हुआ कि छोटी छोटी रियासतों में भी स्वतंत्रता के नारे गूंजने लगे। राजा-महाराजा अंग्रेजों को खुश करने के प्रयास में इन आन्दोलनों को कुचलने का प्रयास करते, गोली चलवाते पर महात्मा गांधी के एकादश व्रतों में से एक अभय ने जनता के मन से पुलिस के डंडे, जेल, गोली, मौत आदि का भय ख़त्म कर दिया था। 

कालान्तर में अनेक रियासतों के राजतंत्र विरोधी व्यक्तित्व, कांग्रेसी नेताओं के संपर्क में आये।उनके  जबलपुर और इलाहाबाद के कांग्रेसी नेताओं के प्रगाढ़ संबधों के चलते, बुंदेलखंड में भी  कांग्रेस का संगठन, प्रजा परिषद् के नाम से गठित किया गया। यह संगठन झंडा जुलूस निकालता, और नारे लगाता। बुंदेलखंड और पूरे देश में उन दिनों एक नारा बहुत प्रसिद्ध था “ एक चवन्नी चांदी की जय बोलो महात्मा गांधी की।” प्रजा परिषद ने 15 अगस्त 1947 के बाद अनेक रियासतों में जबरदस्त जन आन्दोलन चलाए।  इसकी परिणामस्वरूप देशी रियासत के शासकों में भारत संघ में विलय करने की भावना जागृत हुई और मैहर जैसी कुछ रियासतों को छोड़कर सभी ने विलय पत्र पर आसानी से हस्ताक्षर कर दिए।

महात्मा गांधी के संपर्क में आये अनेक युवाओं ने भी इन रियासतों में महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य शुरू किये। ऐसे ही एक विलक्षण पुरुष वियोगी हरी, जिनका जन्म छतरपुर में हुआ था, महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यों को धरातल में उतारने  1925 के आसपास पन्ना  रियासत में शिक्षा अधिकारी बन कर आये। वे लगभग छह वर्ष तक पन्ना में रहे और शिक्षा के प्रचार प्रसार में उन्होंने  महती भूमिका निभाई। उन्होंने पन्ना रियासत के सरदारों, पुलिस अधीक्षक, महाराजा  आदि से अपनी चर्चा के आधार पर  यह निष्कर्ष निकाला कि उनके स्वराज संबंधी विचारों को सरदार  शंका की दृष्टि से देखते थे और सहसा विश्वास नहीं करते थे कि स्वराज आ सकता है। महाराजा भी यह जानते हुए कि वियोगी हरी कांग्रेसी विचारों के समर्थक हैं उन्हें विशेष तौर आमंत्रित कर अपनी रियासत में लाये थे, पर उनकी बातों को वे पसंद नहीं करते थे। वियोगी हरी ने देशभक्ति की भावना बढाने के उद्देश्य से छत्रसाल स्मारक (मूर्ति) की स्थापना   और छत्रसाल के ग्रंथों का सम्पादन व प्रकाशन हेतु महाराजा को तैयार किया। उन्होंने नए स्कूल खुलवाये, बालिका शिक्षा को बढ़ावा दिया और काफी विरोध के बावजूद हरिज़न उत्थान व छुआछूत को मिटाने अभियान चलाये। ऐसे ही प्रयासों से देशी  रियासतों में परिवर्तन की बयार बहने लगी।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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