डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ आलेख ☆ ‘सावधान! शांति कोर्ट में चली गई है!’ – श्री विश्वास देशपांडे ☆ भावानुवाद – डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆
वर्तमान समय की परिस्थिति को देखते हुए ऐसा लगता है कि ‘सुबह के रमणीय और शांत समय में…’ जैसे वाक्य अधिकतर कहानियों तथा उपन्यासों में ही पढ़े जा सकते हैं। भोर या सुबह के शांत और सुखद होने की छवि अब दुर्लभ ही समझिये। तरह-तरह की ध्वनियों ने सुबह की खूबसूरत और शांत बेला को प्रदूषित कर रक्खा है। प्रभात समय के मात्र पाँच बजते ही वाहनों की कर्कश आवाजें आरम्भ हो जाती हैं। चूँकि कुछ गाड़ियाँ जल्दी स्टार्ट नहीं होती इसलिए उनके मालिक इसपर अक्सीर इलाज ढूंढने की बजाय गाड़ी का एक्सीलेटर बढ़ाकर उसे काफी देर तक सक्रिय रखे रहते हैं| आसपास के कुछ मंदिरों और मस्जिदों के भोंगे, आरती, प्रार्थना और अज़ान आदि जोरशोर से शुरू हो जाते हैं। आपके पास ये तेज तर्रार आवाजें सुनने के अलावा कोई विकल्प बचता है क्या? ऐसा माना जाता है कि, प्रभात की परम पवन घड़ियाँ तन्मयता से ध्यान और अध्ययन के लिए सबसे अनुकूल होती हैं। अब इस शोरगुल में ध्यान और पढ़ाई करें तो कैसे करें? सुबह करीबन ६ बजे से स्कूल जाने वाले बच्चों के रिक्शा और बसें कोलाहल मिश्रित हॉर्न बजाना शुरू कर देती हैं। निश्चित जगह से काफी लंबी दूरी से हॉर्न बजाते हुए उनका आगमन होता है, इसलिए कि बच्चे सावधान हो कर लाइन में खड़े रहें| अक्सर बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार होकर खड़े रहते ही हैं, लेकिन इन बस वालों की हॉर्न बजाने की आदत छूटे नहीं छूटती! इस ध्वनि प्रदूषण पर ना तो कोई टैक्स अथवा जुरमाना है, न ही कोई रोकटोक| बिल्ली के गले में भला कौन घंटी बांधे? कोई पहल कर बोल भी दे, तो उसे ही बुरा भला सुनना पड़ता है|
श्री विश्वास देशपांडे
बच्चों के स्कूल जाने पर जरासी राहत की साँस ली नहीं कि, सब्जियां एवं फल बेचने वाले और A to Z कबाड़ खरीदने वाले चिल्लाने को तैयार ही रहते हैं। आप चाहें या न चाहें उनकी गुहार आप को सुननी तो पड़ेगी! यहीं नहीं, अब तो रिकॉर्ड की हुई उन्नत स्वरावली में उनके गाने या कथन गाड़ियों पर लगाए गए स्पीकर्स पर सारे मोहल्ले में गुंजायमान होते रहते हैं| इस कारनामे से भले ही उनके चिल्लाने का तनाव कम होता है, लेकिन जनता के पास इन स्वघोषित वक्ताओं की आवाज सहने के अलावा कोई चारा नहीं बचता| फिर नगर निगम जैसी कार्यक्षम सरकारी संस्था पीछे क्यों रहे? स्वच्छता दूतों के कचरे के ट्रक के आगमन की सुमधुर (?) सूचना देती घंटी बजती है| बीच में उसके स्पीकर से विभिन्न सामाजिक सन्देश, निर्देश एवं उपदेशात्मक गीत अनायास ही बजते रहते हैं| हमारे कर्णरन्ध्रों पर यह अत्याचार शायद सुफल सम्पूर्ण नहीं हुआ, इसलिए कोई पडोसी जोरदार ध्वनि के साथ टीव्ही और/ या रेडिओ लगाने पर उतारू हो जाता है| अब मोबाईल से भिड़े जन कहाँ पीछे हटने वाले हैं? वे गाने सुनने में मशगूल होते हैं, या किसी के साथ बड़ी आवाज में बातचीत करते हुए घर के बाहर आ जाते हैं (पता नहीं उनके मोबाईल की रेंज घर के बाहर ही क्यों प्रतीक्षा करती है)! कुत्तों की ईमानदारी के गुन गाते गाते हमारी उम्र ढल गई, पर अपनी इसी ईमानदारी का सुबूत पेश करने के लिए उनके लावारिस प्रतिनिधि गहन रात्रि के प्रहर क्यों चुनते हैं, यह संशोधन करने का विषय है| इससे मानवजाति की रात की मीठी नींद और प्रभात बेला के गुलाबी स्वप्न में खलल पड़ने का इन मनुष्य जाति के बड़े ही करीबी दोस्तों को रत्तीभर भी अंदाजा क्यों नहीं होता भला? (सोचना उन्हें है, हमें नहीं!) क्या अब भी हम कहें कि, सुबह की सुन्दर घडी शांति से समृद्ध होती है? मुझे विश्वास है कि, पुरातन काल में कहीं न कहीं यह ‘भोर की बेला सुहानी’ रही होंगी तथा उसके सानिध्य से अभिभूत हो कर ही हमारे ऋषिमुनियों एवं लेखक मंडली को इतनी सौंदर्यशाली साहित्यरचनाऐं रचने की प्रेरणा मिली होगी|
अब परसों की ही बात है, एक विवाह के स्वागत समारोह (रिसेप्शन) में जाने का निमंत्रण मिला| उस दिन कई रिश्तेदार और मित्रगण काफी अन्तराल के बाद एक दूसरे से मिल रहे थे| चूंकि यह भेंट काफी दिनों बाद हो रही थी, इसलिए हर एक को बहुतसी बातें करनी थीं| लेकिन कार्यक्रम के आयोजकों ने उसी वक्त संगीत के कार्यक्रम का भी आयोजन किया था| एक ही सभागृह में स्टेज पर दूल्हा-दुल्हन और वहीं एक कोने में भोजन की भी व्यवस्था थी | पार्श्वभूमि में ऑर्केस्ट्रासहित गाने बजाने की आयोजकों की मंशा अच्छी हो, लेकिन गानों की आवाज़ें इतनी तेज़ थीं कि, लंबे समय बाद वहाँ मिले अभिजनों के लिए एक-दूसरे से बातचीत करना मुश्किल हो रहा था| अधिकतर लोग गाने सुनने के मूड में नहीं लग रहे थे| इस कोलाहल में अगर आपको किसी से बात करनी हो तो, अपना मुँह दूसरे के कान से सटाकर ही बोलना जरुरी था। उसी माहौल में उपस्थित लोगों का भोजन संपन्न हुआ और वर-वधू को बधाई एवं शुभाशीर्वाद दिए गए| अगर उन कर्कश गीतों की जगह वातावरण को प्रसन्नता से भर देने वाली शहनाई की मंगलमय मद्धम धुन बजती रहती, तो सोचिये क्या ही अच्छा होता!
एक और प्रसंग! मेरे घर के निकट ही एक विवाह समारोह था| विवाह की पूर्व संध्या पर हल्दी का कार्यक्रम हुआ| घर के सामने ही मंडप लगा था| कार्यक्रम स्थल पर शाम पांच बजे से डीजे प्रारम्भ हो गया। हल्दी का सम्पूर्ण कार्यक्रम खत्म होने तक डीजे बजता रहा। उसके ख़त्म होने पर मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई| परन्तु मित्रों, यह सुख अल्पजीवी साबित हुआ (वैसे भी प्राचीन ग्रन्थ-सन्दर्भों के अनुसार सुख के क्षण थोड़े ही होते हैं)| भोजन अवकाश के ख़त्म होते ही नयी ऊर्जा के साथ डीजे फिर कार्यान्वित हुआ| देर रात तक वहाँ उपस्थित सभी लोग डीजे की धुन पर थिरकते रहे। यह आम बात है कि, सार्वजनिक स्थानों पर, सड़क पर मंडप खड़े होते हैं, कर्णकटु डी.जे. चिल्लाते हैं| इस बात का किसी के मन में जरासा भी ख़याल नहीं आता कि, आसपास रहने वाले या वहाँ से गुजरने वाले किसी अन्य व्यक्ति को तकलीफ़ हो सकती है| इसके बजाय क्या ऐसे कार्यक्रम इस तरह आयोजित नहीं किये जा सकते, जिससे दूसरों को परेशानी न हो? इस पर सामाजिक विचारमंथन क्या जरुरी नहीं? या ‘तेरी भी चुप, मेरी भी चुप’ वाला अनकहा नियम है यहाँ? लगता है इस कर्ण-कठोर ध्वनि के कारण हमारे कानों के परदों को पक्षाघात का सदमा पहुँच चुका है| नतीजन हमारी सामाजिक चेतना भी लुप्त होती जा रही है। ऐसे अवसरों पर कृपया आयोजकों के कुछ ‘उच्चकोटि’ के विचार जान लीजिये| “दूसरों को क्या लेना देना? कार्यक्रम मेरा, पैसा मेरा! अगर किसी को कष्ट हो रहा है तो मुझे क्या! जब दूसरों के ऐसे प्रोग्राम चलते रहते हैं, तब ये लोग कहाँ होते हैं?” इस प्रकार हर कोई अपने दायरे में सहजता से और बिना किसी अपराधबोध के इन गतिविधियों को दुगनी ऊर्जा से जारी रखता है|
एक कल का जमाना था, जब सिर्फ दीपावली के पर्व पर ही पटाखे फोड़े जाते थे| आज का जमाना यह है कि, सम्पूर्ण साल भर बस मौका मिल जाए, जब भी हो, जहाँ भी हो, पटाखों को फूटना ही है| शादी, जुलूस, जन्मदिन, नए साल का आरम्भ, पार्टी, क्रिकेट मैच, छोटी मोटी जीत या उपलब्धि हों तो जश्न होना ही है, जो आतिशबाजी और डीजे के बिना अधूरा है| कई लोग अपनी बहादुरी दर्शाने के लिए आधी रात के बाद का मुहूर्त खोजते हैं पटाखे फोड़ने के लिए, शायद लोगों की नींद उड़ाने से उनकी ख़ुशी दुगुनी हो जाती है| यह राहत की बात है कि, फ़िलहाल किसी व्यक्ति के स्वर्ग सिधारने पर यह सिलसिला शुरू नहीं हुआ है|
मित्रों, एक मजेदार किस्सा याद आया| कुछ दिन पहले एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहां विभिन्न राज्यों से लोग दर्शन के लिए आये थे| मंदिर में दर्शन के लिए जाते समय खुली जीप में एक जुलूस रास्ते से गुजर रहा था| उसमें ‘उत्सवमूर्ति’ सेना से एक सेवानिवृत्त सैनिक के स्वागत का माहौल था| जगह जगह उनके स्वागत और अभिनन्दन के पोस्टर भी लगे थे| जीप के सामने कर्कश डीजे चल रहा था| उसके सामने जुलूस में शामिल कई महिला-पुरुष बेसुध हो कर नृत्य कर रहे थे| हैरानी की बात यह थी कि, वह रिटायर फौजी और उसकी पत्नी भी उनमें शामिल थे| शायद यह उन सभी के लिए खुशी और गर्व का अवसर हो, लेकिन जुलूस मंदिर के सामने की छोटी गली से गुजर रहा था, जिससे भक्तों को काफी असुविधा हो रही थी। परन्तु, इससे किसीको क्या लेना देना? यहाँ आवाज उठाने वाला कौन था? देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिकों के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान और गर्व है। ये जवान देश में शांति बनाए रखने के लिए सीमा पर अपनी जान की बाजी लगाकर लड़ते हैं, लेकिन यह दृश्य देखकर मुझे बहुत हैरानी हो रही थी और दुःख भी!
अहम प्रश्न यह है कि, क्या हम सचमुच शांति से ऊब चुके हैं? क्या ‘शोर’ ही हमारा पसन्दीदा उम्मीदवार बन चुका है? अंग्रेजी में कहते हैं “स्पीच इज सिल्वर एंड साइलेंस इज गोल्ड।” यानि, बेकार की बातचीत से मौन बेहतर है। शांति एक अमूल्य विरासत है| मनुष्य सहित सभी प्राणियों के स्वस्थ और सुन्दर जीवन के लिए शांति बहुत महत्वपूर्ण है। आजकल स्कूलों में पर्यावरण विज्ञान पढ़ाया जाता हैं। इसमें वायु, ध्वनि, जल आदि सम्मिलित हैं। हम प्रदूषण के अनेकानेक प्रकारों के बारे में सीखते हैं, उनपर चर्चा करते हैं। लेकिन क्या हम सम्बंधित नियमों को आचरण में लाते हैं? यह तो तोते की तरह रटने जैसा हुआ| देर रात डीजे बजाना और आतिशबाजी करना कानून के खिलाफ है। लेकिन जब तक ये कानून सख्ती से लागू नहीं किये जाते, तब तक इनका कोई फायदा नहीं है। निःसंदेह, कानून के परे सामाजिक जागरूकता का होना जरूरी है। वह दिन सौभाग्यशाली होगा जब हम महसूस करने लगेंगे कि, हमारा व्यवहार दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन सकता है।
प्रसिद्ध साहित्यकार विजय तेंडुलकर का एक मराठी नाटक ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ बेहद लोकप्रिय हुआ था| अदालत की कार्यवाही के समय जिस निश्चल शांति की अपेक्षा की जाती है, वहीं शांति हम वास्तविक जीवन में भी चाहते हैं। अगर हम उसे प्राप्त न कर पाए तो वहीं शांति हमसे रूठ कर अदालत में ही अपना घर बसा ले तो?
मूल लेख (मराठी) – सावधान ! शांतता कोर्टात गेली आहे. ..! – श्री विश्वास विष्णु देशपांडे
मुक्त अनुवाद (हिंदी): डॉक्टर मीना श्रीवास्तव
ठाणे
मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈