॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सुख शांति की खोज ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आज प्रत्येक व्यक्ति, हर परिवार समाज और इस विश्व का हर देश विकास चाहता है, लगातार उन्नत्ति के लिए प्रयत्न शील है,  क्योंकि सुख और शांति तथा आनन्द के भवन का रास्ता, विकास व प्रगति के आंगन से होकर जाता है। प्रगति के लिए श्रम करना जरूरी है और जो कुछ किया जाना है उसे योजना बद्ध तरीके से करना आवश्यक है। योजना-परिश्रम-विकास (प्रगति)-सुख यह क्रम है जिसका क्रमिक अनुसरण सफलता की ओर ले जाता है। जहाँ अमन-चैन होता है वहीं समाज को निर्भय होकर सोचने समझने कला-साधनायें करने और नई-नई खोजें करने के अवसर प्राप्त होते हैं। इतिहास साक्षी है कि सदा सुख-शांति पूर्ण स्वर्ण काल में ही हर देश ने बहुमुखी उन्नत्ति की है सुख-शांति के वातावरण का निर्माण हर देश में मानव मन की चिन्तन कामना रही है।

वर्तमान अन्तरिक्ष यात्राओं के युग में विज्ञान ने नये नये आविष्कारों से मानव जीवन को अप्रत्याशित सुविधाएँ प्रदान की हैं। संचार क्रांति ने व्यक्ति और स्थानों की दूरियों को कम कर विश्व के विस्तारन को संकुचित कर दिया है। कुछ घंटों की उड़ान से विश्व के किसी भी भाग में पहुँचा जा सकता है। पचास वर्षांे पूर्व की तुलना में आज के उपलब्ध आवागमन और संचार के साधनों ने संसार को गाँव का सा रूप दे दिया है जिसे हम ”ग्लोबल विलेज’’ कहने लगे हैं। यह निकटता और विकास हमें विश्व के अन्य देशों से सम्पर्क और सहयोग के लिए, विचार-विनिमय के लिए नये अवसर प्रदान करता है। यह प्रगति का सकारात्मक पक्ष है किन्तु इस का नकारात्मक पक्ष भी हैं जिससे आपसी द्वेष, उलझने, पारस्परिक हितों के टकराव भी उत्पन्न हुये हैं। तार्किक दृष्टि से सुख शांति के लिए नई योजनायें-विकास और धन-अर्जन, जीवन-स्तर का ऊँचा उठाया जाना भली बात है किन्तु वर्तमान समय में जो देखने में आ रहा है वह कुछ उल्टा सा प्रतीत होने लगा है। सुख-शांति की खोज में प्रगति और आर्थिक उत्थान के लिए हर परिवार मानसिक रूप से बेचैन कोल्हू के बैल की भाँति एक चक्र में निरतंर घूम रहा है। अपनी तरक्की के चक्कर में हर जीवन अन्यों से स्पर्धा करते हुए बिना वास्तविकताओं को समझे भागा जा रहा है और सारे पारस्परिक रिश्तों के स्नेहिल व्यवहारों की कीमत पर केवल अधिक कमाने में लगा है। लोग धन को ही सुख और आनंद प्राप्ति का प्रमुख साधन समझने लगे है जबकि सचाई यह है कि सुख और शांति तथा आनंद प्रेम के संबंधो में मिलता है धन से नहीं।

विज्ञान ने हमें ढेर सारी सुविधाएँ तो उपलब्ध करी दी हैं और नित नई नई खोजों से नई सुविधाओं का विस्तार होता जा रहा है किन्तु हमारा सुख-चैन कम हो गया है। तनाव और परेशानियाँ बढ़ गई हैं। औद्योगिक विकास ने हमें प्रकृति की स्नेहिल गोद से उठाकर प्रदूषित वातावरण में धकेल दिया है। वे प्रमुख पंचतत्व जिनसे जीवन का निर्माण हुआ है- अनल, अनिल, जल, गगन और रसा- ये सभी प्रदूषित हो चुके हैं। वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, ध्वनि (आकाश) प्रदूषण, भूमि की उर्वरा शक्ति का प्रदूषण और अनल अर्थात्ï ताप (जो सूर्य से प्राप्त है) का आकाश में ओजोन परत का प्रदूषण हमारी जानकारी में है। प्रदूषण से मानव जीवन संकट में पड़ गया है।

क्या आज के इस वैज्ञानिक विकास ने हमारे ही अज्ञान और अनुचित व्यवहार के कारण हमें भागमभाग और आपाधापी में डालकर हमारे मानसिक तनाव, झुंझलाहट और उलझनें नहीें बढ़ा दी हैं ? यदि यह सच है तो हमें सुख-शांति के लिये अपनी जीवन पद्धति को बदलना चाहिए। धन के अनावश्य बढ़ाये गये महत्व पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। टूटते स्नेह के तागों को सुदृढ़ करने की जरूरत है। भौतिकता के अमर्यादित विकास के स्थान पर आध्यत्मिक चिंतन-मनन अधिक आवश्यक हो गया है। समाज में स्नेह संयम और संतोष पूर्ण व्यवहार की जरूरत है। भौतिक विकास के साथ ही आध्यात्मिक चेतना भी विकसित हो तभी मन को संयम और अनुशासित रखा जा सकेगा। आज की कृत्रिमता को आध्यात्मिकता के रंग में रंगकर ही बढ़ते मनोविकारों से छुटकारा पाया जा सकता है। पारस्परिक आत्मीय  संबंधों की प्रगाढ़ता  से ही बढ़ते विनाशकारी दृष्टि कोण को बदला जा सकता है। सुख और शांति स्नेह की छाया में ही पनपती है। हमारे सोच और व्यवहारों में सही परिवर्तन ही हमें सुख-शांति आनन्द के संसार में पहुँचा कर वांछित अनुभूति देने में समर्थ होंगे।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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