॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ विज्ञापन का युग ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आज का युग विज्ञापन का युग है। हर वस्तु का महत्व उसके विज्ञापन से बढ़ जाता है। बिना विज्ञापन के अत्यन्त उपयोगी, महत्वपूर्ण व गुणकारी वस्तु भी अनजान और उपेक्षा के अंधकार में दबी रह जाती है। जो बात वस्तु के लिये लागू होती है वही व्यक्ति के लिये भी है। सुयोग्य गुणवान व्यक्तियों को समाज में वह उभार नहीं मिल पाता है जो किसी प्रचार या विज्ञापन से एक अयोग्य व्यक्ति में मिल जाता है और उसकी ख्याति दूर तक फैल जाती है। प्रभावी विज्ञापन से महत्वहीन वस्तु या व्यक्ति बाजार में चमकने लगते हैं। विपणन व्यवस्था की प्रखर नीति से वस्तु के वास्तविक मूल्य से बहुत अधिक उसका मूल्यांकन किया जाने लगता है और उसके भाव बढ़ जाते हैं। विज्ञापन लोगों के मन में एक रुझान या आकर्षण पैदा करता है और उसे पाने की लालसा जगाता है। पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापनों की भाषा और टीवी पर प्रदर्शित किये जाने वाले विज्ञापनों के प्रदर्शन से विज्ञापन के तत्व को समझा जा सकता है। शब्द थोड़े किन्तु आकर्षक और ध्वन्यातक होते हैं। दृश्य ऐसे जो बेधक और मनमोहक होते हैं। विपणन हेतु प्रकाशित की जाने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता को प्राय: फिल्म जगत के ऐसे अभिनेता के द्वारा वर्णित कर व्याख्यापित किया जाता है जो जनसाधारण के प्रिय मनबसे होते हैं। आजकल खेल जगत, राजनीति या नृत्य संगीत के क्षेत्र में विख्यात हीरो या हीरोईन का भी इस हेतु उपयोग में विज्ञापनों में रुझान देखा जा रहा है। मनोविज्ञान के तत्वों के आधार पर सुन्दर व आकर्षक विज्ञापन प्रस्तुत करना अब एक कला है जो विपणन की प्रभावी तकनीक के रूप में विकसित हो रही है। नई वस्तु के बाजार में आने के पहले उसके विज्ञापन प्रकाशित किये जाने लगे हैं, ताकि खरीददारों को लुभाकर अनका समुदाय तैयार कर लिया जाय। ऐसे करने से वस्तु के विपणन में सरलता होती है। हर उत्पाद जो बाजार में लाया जाता है, उससे उत्पादक लाभ कमाना चाहता है। यह लाभ वस्तु की बिक्री की मात्रा से संबंधित होता है। जितनी बिक्री बढ़ेगी उतना ही लाभ बढ़ेगा, इसलिये विज्ञापन के विभिन्न साधनों का दिनोंदिन अधिक उपयोग किया जाने लगा है। कहीं भी किसी रास्ते में निकल जाइये, बड़े-बड़े शहरों में प्रमुख भीड़ के स्थानों में बड़े-बड़े होर्डिंग्स देखने को मिलते हैं। ये शहर की सुंदरता और म्यु. कमेटी या कार्पोरेशन की आमदनी के भी स्रोत बन गये हैं। जिन वस्तुओं के विज्ञापन नहीं है उनकी बिक्री भी नहीं हो पाती और जिनके जितने अधिक स्रोतों से विज्ञापन हो रहे हैं उनकी उतनी ही अधिक बिक्री होती है और उनसे लाभ मिलता है। हर उत्पाद के समानान्तर अनेकों उत्पाद बाजार में अनेक विकल्प के रूप में उपलब्ध हैं किन्तु बिक्री उन्हीं की ज्यादा हो रही है जिनके विज्ञापनों ने उपभोक्ताओं का मन मोह लिया है और उत्पाद में गुणवत्ता है। अब तो विश्व-बाजार की संस्कृति का युग है। एक ही कंपनी अपने उत्पाद सारे विश्व में प्रस्तुत कर रही है। अत: विज्ञापन विपणन और भारी लाभ की संभावनायें तेजी से बढ़ी हैं परन्तु उतनी प्रतियोगिता भी बढ़ी है और उद्योगों में संघर्ष भी। बिना विज्ञापन व्यापार अब संभव नहीं।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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