॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मोक्ष या मुक्ति ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मानव जीवन के चार पुरुषार्थ निर्धारित किये गये हैं। ये हैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। पुरुषार्थ से आशय है उन लक्ष्यों का जो व्यक्ति को अपने जीवन में परिश्रम करके प्राप्त करने चाहिये। अर्थ का अभिप्राय धन कमाना, धर्म का आशय धार्मिक मान्यताओं का परिपालन, काम का मतलब जीवन में धर्मानुसार इच्छाओं की पूर्ति करना, सांसारिक आवश्यकताओं और सुखद महत्वाकांक्षाओं की प्राप्ति कर परिवार में रह सुखोपभोग करना तथा अन्तिम मोक्ष का आशय है शरीर में स्थित जीवात्मा को जीवन यात्रा की समाप्ति पर जीवनदाता परमात्मा में एकाकार कर देना।

मोक्ष या मुक्ति क्या है और यह कैसे प्राप्त होता है, हर भारतीय के मन में यह प्रश्न सदा बना रहता है। अधिकांश विचारकों की मान्यता है कि धर्मपरायण पुण्य कार्य करने वाले परोपकारी व्यक्तियों की आत्माओं को मृत्यु के उपरांत मोक्ष मिलता है। इसीलिये लोग पूजा पाठ, दानपुण्य, तीर्थाटन और विभिन्न खर्चीले धार्मिक अनुष्ठान करते रहते हैं। परन्तु ऐसा सब करने से वास्तव में मोक्ष मिलता है या नहीं निश्चित रूप से कोई नहीं जानता। हां, ऋषियों की दृष्टि से देखा जाय तो मनीषा कहती है कि- मोह का क्षय ही मोक्ष है। जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा करना तथा तृष्णा वासना और अहंकार के बंधनों को काटकर सरल निर्बंध निर्बाध जीवन जीना ही मुक्ति पाना या मोक्ष है। जो इसी जीवनकाल में पुरुषार्थ से साध्य है।

इस मोक्ष देने वाले ज्ञान का स्वरूप भारतीय दर्शन की विभिन्न विधाओं में भिन्न हो सकता है, किन्तु लक्ष्य सभी का एक ही है- जीवन को सांसारिक माया के बंधनों से मुक्त करना। अध्यात्म ज्ञानियों का कथन है कि मानव जीवन मिला ही इसीलिये है कि व्यक्ति ज्ञान और कर्म की साधना से ऐसे कार्य करे जिससे वह मोक्ष बंधन से छूटकर अपने सृष्टिकर्ता परमात्मा को पा सके।

गीता में भगवान कृष्ण ने जीवन जीने की उस उच्चशैली का जो मोक्ष दिलाती है बड़ा सुन्दर और विशद वर्णन कर अर्जुन को समझाया है। उन्होंने कहा है कि संसार में रहते मनुष्य, जो भी कार्य संपन्न करे उसमें वह उसके कर्ता होने का अभिमान न रखे। जो कुछ संसार में व्यक्तियों के द्वारा समय समय पर संपादित होता है उसका कर्ता वह व्यक्ति नहीं कोई और है। व्यक्ति तो कार्य का एक साधन मात्र है। कर्ता कर्म करते हुये स्वत: अपने बंधनों को काटे। लोभ, मोह, अहंकार से खुद को अलग रखे। परमात्मा शक्ति के अनुग्रह से कार्य के सम्पादित होने की अनुभूति कर सफलता का श्रेय परमपिता के चरणें में समर्पित करे। यदि व्यक्ति ऐसा मन बनाकर जीवन जिये तो मोक्ष का तत्वज्ञान समझ कर वह जीवन में सफलतापूर्वक जी सकता है और दुष्प्रवृत्तियों से अलग रह जीवन में ही मुक्ति या मोक्ष पाने का अनुभव कर सकता है।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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