॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ जग का पालनकर्ता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

छत्रपति शिवाजी लोकप्रिय प्रजावत्सल योग्य शासक थे। एक बार उनके राज्य में वर्षा न होने के कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई। जनता को रोजगार उपलब्ध करा भोजन दे सकने की भावना से उन्होंने कुछ निर्माण कार्य शुरु कराये। हजारों गरीब परिवारों का उससे पेट पलने लगा।

एक दिन महाराज स्वत: निरीक्षण करने के लिये निर्माण स्थल गये। यह देखकर वे फूले न समाये कि भारी संख्या में मजदूर कार्य कर रहे थे। उनके मन में भाव आया कि वे इतने अधिक लोगों को आजीविका प्रदान कर बड़ा उपकार कर रहे हैं। यदि वे निर्माण कार्य शुरु न किये गये होते तो कितनों को भूखा मरना पड़ता। तभी अपनी यात्रा पर निकले उनके गुरु समर्थ स्वामी रामदास अचानक वहां से जाते दिखे। शिवाजी महाराज ने उन्हें विनत प्रणाम किया और बताया कि कैसी उदारता से धनराशि व्यय कर उन्होंने गरीबों के लिये नये निर्माण कार्य शुरु कर उनकी उदरपोषण की व्यवस्था प्रदान की है। गुरुदेव को शिवाजी के कथन में गर्वोक्ति की गंध का आभास हुआ। उस दिन यह सुनकर वे कुछ न बोले। मौन सिर हिला, आशीर्वाद दे वे अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गये। एक दिन किसी अन्य क्षेत्र में चल रहे निर्माण कार्य का अवलोकन करने को महाराज के विशेष आमंत्रण पर वे वहां गये। तालाब खुदवाया जा रहा था। बड़ी संख्या में मजदूर कार्य पर थे। उन्होंने गुरुवर को बताया कि राज्य में विभिन्न क्षेत्रों में गरीबों को भोजन देने के लिये ऐसे ही कई कार्य शुरु कराये गये हैं। तालाब के लिये खोदे जाने वाली जमीन में आई एक चट्टान को तुड़वाने का गुरुजी ने निर्देश दिया। शिवाजी महाराज ने गुरु आज्ञा का पालन करते हुये एक मजदूर को चट्टान तोडऩे का आदेश दिया। उसके टूटते ही सबने आश्चर्य से देखा कि उसके बीच में से गीली मिट्टी से उछलकर एक मेंढक बाहर कूदा। मेंढक की ओर उंगली उठाते हुये स्वामी रामदास जी ने शिवाजी से प्रश्न किया- क्या इस मेंढक के पालन-पोषण के लिये भी राजकोष से खर्च किया जाता है? शिवाजी महाराज निरुततर थे। इसका भला वे क्या उत्तर देते? उनका गर्व का भाव चट्टान की भांति ही चूर-चूर हो गया। उन्हें अपनी भूमिका का बोध हुआ। वे समझ गये कि राजा के रूप में प्रजानन की रक्षा, सहायता और प्रतिपालन के लिये शायद वे केवल एक माध्यम हैं। सृष्टि के समस्त प्राणियों की रक्षा और प्रतिपालन तो ईश्वर ही करता है। यदि ऐसा न होता तो चट्टान के भीतर मेंढक सुरक्षित और जीवित कैसे रहता। राजा या शासन तो प्रजा के हित साधन का व्यवस्थापक है। सभी को निरभिमान भाव से अपना कर्तव्य करना उचित है। अपने गुरुदेव के दिये गये सूत्रों को समझकर सत्पथ पर चलने की शक्ति पा शिवाजी युग के इतिहास पुरुष बन यशस्वी शासक हो सके।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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