हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मार्गदर्शक चिंतन॥ -॥ परिवेश का प्रभाव॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ परिवेश का प्रभाव ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

बौद्ध धर्म में जीवदया प्रमुख सिद्धांत है। हिंसा वर्जित है। इसीलिये मांसाहार निषिद्ध है। महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं को मौन भिक्षा प्राप्त करने का उपदेश दिया था। आशय था कि किसी द्वार पर आवाज दे भिक्षा देने का आग्रह न किया जाय। पात्र में दानी की स्वेच्छा से जो कुछ आ जाये उसी में भिक्षु निर्वाह करे। प्रथम दाता से जो प्राप्त हो उसमें ही संतोष करे। मानसिक हिंसा तक से बचने और संतोष करने का बड़ा सीधा और सरल कार्य है यह। एक दिन हाथ में भिक्षा पत्र धरे एक भिक्षु भिक्षा लेने को निकला। मार्ग में ऊपर उड़ता हुआ एक बाज पक्षी अपने पंजों में मांस का टुकड़ा लिये जा रहा था। संयोगवश वह मांस का टुकड़ा अचानक ही भिक्षु के भिक्षापात्र में आ टपका। प्रथमदाता से भिक्षु को प्राप्त वह आकस्मिक भिक्षा थी। भिक्षु के लिये बड़े असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई। वह क्या करे कुछ निश्चय न कर सक रहा था। नियमानुसार प्रथमदाता से प्राप्त भिक्षा स्वीकार की जानी उचित थी। अहिंसा की वृत्ति के कारण मांसाहार निषिद्ध था।

स्वत: कोई निर्णय कर सकने में असमर्थ होने के कारण उसने अपने अन्य साथियों से उनकी राय जानने के लिये दैवयोग से घटित वह सारी घटना सुना दी। घटना विचित्र थी। दोनों तरह से उसकी व्याख्या की जा सकती थी। एक यह कि भिक्षा पात्र में बिना याचना के दाता द्वारा जो कुछ मिला था वही उस दिन का भिक्षु का आहार होना चाहिये और दूसरा यह भी कि चूंकि मांसाहार वर्जित या त्याज्य है अत: उसे स्वीकार न किया जाय। भिक्षु निराहार रहे। कोई भी निर्णय न हो सकने पर सब भिक्षु महात्मा बुद्ध के पास गये। उनका निर्णय जानने उनसे निवेदन किया। सुनकर महात्मा बुद्ध मौन रहे। सोचकर उन्होंने कहा- समस्या की दोनों व्याख्यायें सही हैं। भिक्षु को स्वीकार न कर निराहार रहने को कहना भी तो हिंसा होगी, अत: उन्होंने स्वविवेक का उपयोग करने का आदेश दिया। ऐसे अटपटे उलझनपूर्ण प्रसंग जीवन में कभी-कभी उत्पन्न होते हैं। जहां नियम निर्णायक की भूमिका नहीं निभा पाते। स्वविवेक ही सबसे बड़ा निर्णायक होता है। कहते हैं भिक्षु ने महात्मा बुद्ध की भावना को स्पष्ट न समझ स्वविवेक से अन्य साथियों की भावना का सम्मान करते हुये पहले विकल्प को स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि उसी भावना और निर्णय को आधार मान चीन, जापान, मंगोलिया, लंका अािद देशों के बुद्ध धर्मावलंबी मांसाहार को वर्जित नहीं मानते। सच्चाई चाहे जो भी हो पर कभी एक छोटी सी स्वविवेक की धटना ऐसे महत्व की बन जाती है कि देश और विश्व के इतिहास की दिशा बदल देती है, जो लाखों-लाख के जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती है। सन् 1947 में भारत के विभाजन और फिर काश्मीर में एल.ओ.सी. अर्थात् लाइन ऑफ कंटोल की रेखा का निर्माण की स्वीकृति परिस्थितिवश स्वविवेक के उपयोग की ऐसी ही घटनायें हैं- जिनसे कौन कब तक प्रभावित होंगे, कहना कठिन है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈