॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
श्री सीता रामाभ्याम् नम:
“चारों वेद पुरान अष्टदश, छहों शास्त्र सब ग्रन्थन को रस” जिसमें है उस रामचरित मानस के रचियता कवि श्रेष्ठ तुलसीदास की विनम्रता तो देखिए-कहते हैं इस ग्रंथ की रचना उन्होंने केवल स्वान्त:-सुखाय की है। वास्तव में मानस एक ऐसा अनुपम और अद्भुत ग्रंथ है कि इसमें जिसका मानस जितनी गहरी डुबकी लगा सकता है उसे उतने ही रत्न मिल सकते हैं और उन रत्नों में जो आभा है वह बहुरंगी है जो दिनों दिन और उज्ज्वल होती जाती है। यह भक्त शिरोमणि महाकवि तुलसीदास के बस की ही बात है कि उन्होंने अपने अनन्य आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के शील और गुणों का वर्णन करते हुए ऐसी कथा धारा प्रवाहित की है कि जिसमें अवगाहन कर कौये, कोयल और बगुले, हंस बन जाते हैं-
काक होहिं पिक बकहि मराला ऐसा उनने स्वत: कहा है किन्तु अपने लिए कहते हैं कि-
कवि न होऊँ नहि वचन प्रबीनू, सकल कला सब विधाहीनू।
और
भनिति भदेश, वस्तु भलि वरनी, राम कथा जग मंगल करनी।
इससे ही स्पष्ट है कि राम कथा की रचना-रामचरित मानस की रचना का उद्ïदेश्य लोग-मंगल ही अधिक है, आत्म मंगल कम।
यह तो सच है कि इसकी रचना की प्रेरणा उन्हें उनकी भगवान राम में अनन्त श्रद्धा, भक्ति और विश्वास से उपजी। साथ ही दैवी प्रेरणा से भी। किन्तु रचनाकार को सामायिक सामाजिक परिस्थितियाँ भी अभिव्यक्ति के लिए आधार अवश्य देती हंै और उनसे प्रभावित कवि हृदय अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है।
जिस समय तुलसी दास जी थे भारत वर्ष में विधर्मियों का राज्य था। सीमित धनी सामंत वर्ग वैभव विलास में मस्त एक बड़े निर्धन वर्ग का शोषण कर रहा था। हिन्दु समाज उनसे त्रस्त था, बेसहारा था, दुखी था। तुलसीदास जी ने स्वत: गरीबी और उपेक्षा का दुख भोगा था तरह तरह के ‘दैहिक दैविक भौतिक ताप’ से पीडि़त समाज को एक ऐसी शक्ति और संबल की जरूरत थी जिससे दुखी जीवन को निराशा के अंधकार में आशा के प्रकाश की किरण मिल सके। अत: निर्गुण निराकार ब्रह्मï की उपासना की अपेक्षा उन्हें साकार, सबल, सरलहृदय, दुष्टों का दलन करने वाले, दीन-हीनों को प्रेम से गले लगाने वाले धुनर्धारी भगवान राम की भक्ति, जो सहज ही अधिक आकर्षक और आनंददायी है, को प्रतिपादित की, और भक्तवत्सल राम की मर्यादा, पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित प्रतिमा को जनमन में बैठा ‘निर्बल के बल राम’ का गुणगान किया, समाज को ढाढ़स बँधाया और आदर्श प्रस्तुत किया जो कालजयी है। और आज भी अनुकरणीय है और भविष्य में भी मानवता का पथप्रदर्शक बना रहेगा।
सिया-राम मय सब जग जानी करऊँ प्रणाम जोरि जुग पाणीÓ कहकर उन्होंने कण कण में घट घट में जगत्जननी सीता सहित भगवान श्री राम का निवास प्रतिपादित कर भगवान की भक्ति को ‘कलि मल हरनीÓ ‘संसय विहग उड़ावनहारीÓ सब भाँति हितकारी और एकमेव आश्रयस्थल प्रतिपादित किया है।
कहा है-
‘एक भरोसों एक बल एक आस विश्वास
श्याम सरोरुह राम घन चातक तुलसी दास’
इस पृष्ठ भूमि में यदि हम देखें तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम और जगत्जननी सीता के जीवन के माध्यम से जो आदर्श मानस में प्रस्तुत किये गये हैं वे मनमोहक, अजर अमर और युग युग जनहितकारी व कल्याणकारी हैं। वे 4-5 सौ वर्षों पूर्व के तत्कालीन समाज के लिये जितने अनुकरणीय थे, आज भी हैं, और शायद आज के तीव्र गति से पाश्चात्य विचार धारा से प्रभावित, परिवर्तन शील समाज में, जब हर क्षेत्र में अपने को मॉडर्न प्रदर्शित करने की लडक़े-लड़कियों में होड़ सी लगी है और भी अधिक प्रासंगिक और आवश्यक है। हमारी भारतीय संस्कृति को और इसकी मर्यादाओं को बनाये रखने में जिसकी प्रशंसा हमसे शायद अधिक विदेशी करते हैं और भौतिकता से ऊबकर आध्यात्मिकता की ओर आशाभरी दृष्टि से जोहते हैं।
भारतीय दर्शन में अद्र्ध नारीश्वर की अवधारणा है। व्यक्तित्व की पूर्णता पति-पत्नी की एकरूपता और समरसता में है और यही दृष्टि गृहस्थ जीवन की कुशलता, सफलता और आनन्द के लिए आवश्यक है। नर और नारी एक दूसरे के लिए समर्पित हों तो सुख ही सुख है। इसलिए भारतीय मान्यता पत्नी को अद्र्धागिनी, सहधर्मिणी, गृहस्वामिनी का दर्जा देता है। पाश्चात्य मान्यता में इससे बहुत भिन्न है वे शायद अधिक से अधिक सहचरी व पर्यंंकï शायिनी मानते हैं। यदि नारी को पति की समर्पित अद्र्धागिनी, गृहस्वामिनी के रूप में प्रतिष्ठित होना है तो उसके लिए बचपन से उसकी वैसी ही ट्रेनिंग और तैयारी की जानी चाहिए तो उसका कोई आदर्श तो होना चाहिए। मानस में वह आदर्श सीता के जीवन चरित्र में मिलता है।
क्रमशः …
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈