॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ अभिभावकों का दायित्व सन्तान को सदाचारी बनाने का यत्न कीजिये ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
आज का युग पहले से बहुत बदल गया है। युगान्तरकारी परिवर्तन हो चुके हैं। पहले जहां छ: वर्ष के पहले स्कूल में प्रवेश नहीं दिया जाता था, वहां अब बच्चा को तीन साल का होने के पहले ही किसी नर्सरी, मोंटेसरी या किंडर गार्टन स्कूल में प्रवेश दिला दिया जाता है। माता-पिता बच्चे का स्कूल में मोटी रकम देकर नाम लिखा कर प्रसन्न तथा निश्चिंत हो जाते हैं। स्कूल यूनीफार्म पुस्तकें आदि खरीदकर आने जाने की वाहन व्यवस्था में भारी खर्चा करते हैं और बस अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं। माँ-बाप दोनों ही चूंकी कहीं सर्विस करते हैं अत: दिनभर थककर शाम को जब घर लौटते हैं तो निरंतर व्यस्तता के बीच बच्चे के सही पूर्ण विकास की ओर ध्यान देने, पूछताछ करने और मार्गदर्शन देने का अवसर ही उनके पास नहीं होता। बच्चा अगली कक्षाओं में पढ़ता बढ़ता जाता है। माता-पिता बच्चों के भविष्य के विषय में बड़ी-बड़ी कल्पनाओं सजाकर ट्यूशन आदि की व्यवस्था भी कर देते हैं, परन्तु बच्चे के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक विकास की ओर पूरा ध्यान और समय नहीं दे पाते हैं। पढ़े-लिखे माता-पिता भी व्यक्तिगत रूप से बच्चे के शिक्षण कार्यक्रम में सहयोग नहीं दे पाते। बच्चे स्कूल और नौकरों के भरोसे पलते और बड़े होते हैं। माता-पिता के सर्विस में बाहर होने के कारण स्कूल से आकर बच्चे घर में अकेले या अन्य साथियों के साथ मनमौजी तरीके से या तो सडक़ पर खेलते होते हैं या घर में टीव्ही देखने में मस्त होते हैं। पढ़ाई में होमवर्क करते हैं तो पुस्तक की नकल कर उत्तर लिख जाते हैं। कई बार तो अधिकांश शिक्षक-शिक्षिकायें भी उत्तर लिखने को बालक की मौलिक योग्यता और भाषा को हतोत्साहित करते हैं और पुस्तक की भाषा में रटे हुये उत्तर को अधिक महत्व देते हैं, जो शिक्षा के मूल उद्देश्य के विरुद्ध है। पुस्तकीय ज्ञान और भाषा से अधिक महत्वपूर्ण छात्र के अपने अनुभव पर आधारित अपने शब्दों में लिखे गये उत्तर होते हैं। परन्तु उसकी मौलिकता को स्कूलों में भी आज कम सराहा जाता है। सदाचार की शिक्षा तो दूर की बात है, सदाचार के सही व्यवहार भी उन्हें स्कूल और समाज में देखने और समझने को कम मिलते हैं। अत: बच्चों का सही विकास नहीं हो पाता। शिक्षा से न तो सदाचार का पालन करना आता है न ही उनके संस्कार बनते हैं। एकल परिवार के कारण घर में बड़े-बूढ़े भी नहीं होते। अत: स्वास्थ्य, सदाचार, संस्कार की नींव मजबूत करना वास्तव में माता-पिता की ही जिम्मेदारी रह गई है, जो आज के जाने-अज्ञाने पूरी नहीं कर पा रहे हैं। सदाचारी न होने पर आदतें बुरी पड़ती हैं, दुराचार की प्रवृत्ति बढ़ती है। यही कारण है कि आज अनाचार और अपराध बढ़ते जा रहे हैं। माता-पिता को इससे यह दायित्व और भी अधिक समझने जिम्मेदारी से जरूरत है कि वे बच्चों को बचपन से ही सदाचारी बनाने के यत्न करें। दुराचारी व्यक्ति न केवल परिवार के लिए वरन पूरे समाज और राष्ट्र के लिये घातक और समस्यामूलक होते हैं।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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