॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ दृष्टिकोण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

दिनभर की निरन्तर यात्रा पूर्ण कर सूर्यदेव का रथ अस्ताचल के शिखर से नीचे उतर गया था। पश्चिम दिशा रक्ताभ थी। पूर्व की ओर से कालिमा की अवनिका क्रमश: उतरती और पसरती जा रही थी।

किसी पुराने किले के खंडहर के विवर से एक उलूक ने बाहर झांका और अपने बच्चों से बोला- बच्चों! अंधेरा हो रहा है। अब चिंता की कोई बात नहीं, तुम्हारी क्षुधा शांति के लिये मैं अभी शिकार करके लाता हूं। कष्टों की समाप्ति निकट है। मेरे स्वेच्छ संचार और काम्य व्यापार के लिये इष्ट तथा सुखद समय आ गया। फलोद्यान के वृक्ष पर बैठे कीर ने कहा- ‘मित्रों चलो अब नीड़ पर लौटकर विश्राम का समय आ गया है। यह बाग अब अंधकार में भयावह दिखाई देने लगा है।’

नगर के घने बाजार के पास की बस्ती की अट्टालिका से रंगीन दीपों की निकलती रश्मियों के साथ घुंघरुओं की झनकार तथा सुरम्य वाद्यों की आकर्षक ध्वनियों को सुनकर किसी पथिक ने कहा- कैसी मधुर और मोहक स्वर लहरी है। कितना सुहाना समा है।

तपस्वी पुत्र ने वनान्चल में निशानिमज्जित वातावरण को निहारते हुये कहा- ‘सारा संसार नैश नीरवता में निस्पन्द है। मानसिक एकाग्रता की साधना, उपासना और ज्ञान संचेतना के लिये संध्यावन्दन का उचित समय हो गया।’

कवि चिन्तन कर रहा था- ‘सूर्य की अनुपस्थिति में अंधकार का साम्राज्य तो थोड़े ही समय का होता है। रात हो गई, अब विहान के आगमन के मार्ग में कोई व्यवधान कहां? नवप्रभात की स्वर्णरश्मियों को झलकना तो सुनिश्चित है। बस कुछ समय की ही देर है।’

तभी कोई दार्शनिक लिख रहा था- ‘जिसे रात्रि कहा जाता है वह दिन से भिन्न नहीं है। दिन का ही तो दूसरा पहलू है। सूर्य तो निरन्तर प्रकाशमान है। पृथ्वी के परिभ्रमण के कारण जो भाग सूर्य के सामने आता वहां प्रकाश हो जाता और जो भाग सूर्य की विपरीत दिशा में चला जाता वहां अंधेरा हो जाता है। यह तो प्रकृति का सहज नियम है। मनुष्य ने जाने क्यों इस प्रक्रिया को मनोभावों से रंगकर दो अलग नाम दे रखे हैं- ‘दिन और रात’

संसार में सब लोग जो देखते, सुनते और समझते हैं वह सच में उनके मनोभावों और दृष्टिकोणों का ही प्रतिरूप होता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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