॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ लोभ ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मायाकृत मनोविकारों ने मनुष्य को फंसा रखा है। उसका दास बना मनुष्य उनकी इच्छानुसार नाचता रहता है। मन कभी यहां, कभी वहां आकर्षित करता रहता है, जिससे मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ध्यान नहीं कर पाता, भटकता रहता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर उसे अपने अनुसार जाल में फंसाकर घुमाते रहते हैं। लोभ भी काम के समान ही एक प्रबल मनोविकार है, जिसने हर एक को अपने वश में कर रखा है। लोभ का अर्थ है लाभ पाने की उत्सुकता में चक्कर में घूमते रहना।

मनुष्य जीवन की आवश्यकतायें तो थोड़ी होती हैं परन्तु वे अनन्त भी हैं। आवश्यकतायें सुविधा के प्रलोभन देकर आदमी को चक्कर में घुमाती रहती हैं। कुछ नया प्राप्ति के मोह ने हर एक को लोभ में फंसाया है। अपने सरल और सादे जीवन को मनुष्य ने आडम्बरमय बना रखा है। उसकी जरूरत बेहद बढ़ गई है। मन में जो इच्छायें लोभवश उत्पन्न होती हैं उन सबको जीवन में जुटा पाना किसी के वश की बात नहीं रही। आज के वैभवशाली युग में विलास की अनेकों वस्तुयें हम दूसरों को उपयोग करते देखकर अपना मन उन्हें पाने का बनाते जाते हैं। आज के युग में विज्ञापनों ने भी इस बीमारी को बढ़ाया है। हर नई वस्तु कुछ दिन बाद बदल जाती है। उससे अधिक उपयोगी उपकरण बाजार में आ जाते हैं। उनमें अधिक आकर्षण होता है और ये सभी सुख के साधन समय और आवश्यकता के अनुसार बदलते और बढ़ते जाते हैं। समय के परिवर्तन, नये अविष्कारों तथा बढ़ती जरूरतों ने हमारे लोभ या लालच को खूब बढ़ा दिया है और हमारे मन को अतृप्ति की आग में झोंक दिया है। हर आवश्यकता की पूर्ति के लिये हर व्यक्ति कोल्हू के बैल की भांति घूमता रहता है पर अपने लक्ष्य को न देख पाता न छू पाता है।

आवश्यकता है कि कुछ धन की वृद्धि के साथ कुछ वैभव प्रदर्शन के लिये कुछ समय परिवर्तन के साथ बदलती रहती है। इसी अंधी दौड़ ने मनुष्य के मन में धन प्राप्ति का लोभ बेहद बढ़ा दिया है और आज जीवन की आपाधापी को नित नया स्वरूप देता जा रहा है। धन प्राप्त करने की कामना ने मनुष्य को अनैतिक कृत्य करने को उत्प्रेरित किया है और समाज में उसी के कारण दुराचार, बुराईयां फैलती जाती हैं। प्रत्येक में लोभ की मात्रा कम या अधिक होती है। नीतिशास्त्र और धर्मों ने इसीलिये लोभ को त्यागने का उपदेश दिया है। कहा है लोभ पाप का मूल है। लोभ को संयमित करना आवश्यक है। संतोष से लोभ को संयम में रखा जा सकता है। संतोष से व्यक्ति संग्रह करने की वृत्ति से बच सकता है और सुखी हो सकता है।

वास्तव में जीवन के लिये बहुत सीमित आवश्यकता है। सनातन धर्म में जीवन काल को चार भागों में बांट कर जनहितकारी, परोपकारी, जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दी है। ये चार आश्रम के रूप में वर्णित हैं, ब्रम्हचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। प्रत्येक की धर्म और कर्तव्य हैं, जो सभी जानते हैं। मनुष्य तृतीय आश्रम में वानप्रस्थ अर्थात् वन में रहकर लोभ को त्याग कर बहुत थोड़ी आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र और जनसेवा मात्र से जीवन यापन कर सकता है और सन्यास में तो और भी सीमित एक कोपीन, दण्ड व कमण्डल से जीवन यापन कर सकता है। भारत में सभी धर्मों में लोभ-लालच को छोडक़र परमार्थ, तप और त्याग को महत्व दे जीने के आदेश दिये हैं। जैन धर्म ने तो वस्त्र तक त्याग कर दिगम्बर रहने की साधना को जीवन दर्शन बताया है। सत्य, अहिंसा, दया, सेवा, साधनापूर्ण जीवन बिताने पर लोभ समाप्त किया जा सकता है। इसीलिये सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म और इस्लाम तथा क्रिश्चियन धर्मों में दान की महिमा बताई गई है और सात्विक जीवन से ईश्वरोपासना कर सच्चे अर्थ में मनुष्य बन मुक्ति प्राप्ति का उपदेश है। लोभ से मुक्त होना ही वास्तव में मुक्ति है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments