॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अहंकार का त्याग करें ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

भूतल पर हमें अनुपम प्राकृतिक संरचना दिखाई देती है। इसमें तरह-तरह की वनस्पतियां और आश्चर्य में डाल देने वाला प्राणि जगत है। प्राणियों में जलचर, नभचर, थलचर सभी हैं। छोटे-छोटे कीट पतंगों से लेकर हाथी तक विशालकाय भयानक प्राणी हैं। बिना पैर के जीव जन्तुओं से लेकर बहुपद वाले थलचर और छोटी पंखियों से लेकर विशाल पंखधारी नभचर भी हैं। प्रकृति की यह अद्भुत व्यवस्था है। सब अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहकर व्यवहार करते हैं। सबमें एक समन्वय है। अनेकताओं के बीच में एक रूपता है। समस्त सृष्टि हर घटक का उद्भव, विकास और अवसान निरन्तर अबाध गति से चलता रहता है। सबके जीवन क्रम में पारस्परिक सहयोग और समन्वय के आयाम भी दिखाई देते हैं। यदि ऐसा न होता तो जीवन दूभर हो जाता। सब अपने में अकेले होते हुये भी एक परिवार के सदस्य हैं और प्रत्येक के कुछ निर्धारित कार्य हैं, जो दूसरों को किसी न किसी प्रकार हितकारी हैं। इसी सृष्टि का बारीक अध्ययन कर भारतीय मनीषियों ने कहा- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’।

परन्तु  बुद्धिवादी मनुष्य ने अपने विकास क्रम में नई-नई खोजें करके प्राकृतिक संतुलन को बदल दिया है। मेरे-तेरे की विभाजन रेखायें खींचकर संपूर्ण प्राकृतिक संपदाओं को टुकड़ों में बांट डाला है और उनपर अपना स्वत्व जमा रखा है। भूमि, नदी, पहाड़ ही नहीं अविभाज्य सागरों और आकाश पर भी अपना अधिकार दिखाता है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि एक परिवार की सम्मिलित भूमि और संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार व बंटवारे के लिये झगड़े हो रहे हैं। विश्व को विखंडित कर नई-नई सीमायें बनाई जा रही हैं और इसी के लिये स्वार्थवश बड़ी-बड़ी लड़ाईयां हो चुकी हैं। समस्त विश्व में अधिकार और धन संपत्ति के विभाजन से वैरभाव व मनोमालिन्य बढ़ रहे हैं। सब जानते हैं कि एकदिन यह सब यहीं छोडक़र मृत्यु की गोद में सोना होगा परन्तु मोह माया और अहंकार के भाव के कारण मन की चाह बढ़ती जाती है। आध्यात्मिक चिंतक इसीलिये कहते हैं कि यही मेरी-तेरी की भावना माया है, जो मनुष्य को सच्चिदानंद की प्राप्ति में बाधक है। पढ़लिखकर समझदार होने के बाद भी हमारे व्यवहार अज्ञानों या अनपढ़ मूर्खों सरीखे होते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से सारा संसार एक परिवार है पर फिर भी वैसा व्यवहार लोग नहीं कर पाते हैं। यही कारण है कि मनुष्य निरंतर किसी न किसी वस्तु के अभाव में दुखी होता रहता है। हमारे अहंकार ने ही सारे भूमंडल को राजनैतिक खण्डों में बांटकर नये-नये राज्य व देश  बना लिये हैं और पारस्परिक स्वार्थ में फंसकर अप्राकृतिक सीमाओं में कटीले तारों के घेरे लगा लिये हैं। थोड़े से स्वार्थ के लिये क्रोध कर लड़ते हैं और एक दूसरे को मार डालने में भी पीछे नहीं रहते। हमने अपने खुद को खुश करने के लिये कटीली बाड़ों में अपने को कैद कर रखा है। अपने को कैदकर खुद को अहंकार में रख दूसरे से लड़ते और दोनों पक्षों को दुखी करते हैं। यदि हमें सच्चे सुख की वास्तविक अभिलाषा है तो हमें सबसे मिलकर रहना होगा। अपने लगाये कटीले घेरों को तोडऩा होगा। वास्तविक सुख आपस में, प्रेम में, सहयोग में व समरसता में है। एकीकरण में है विभाजन में नहीं। ईश्वर ने सृष्टि को समग्रता में रचा है। हमें उसकी रचना के रहस्य और उद्देश्य को समझकर संवेदनशील बनना होगा और सबके साथ भावनात्मक एकता से रहना होगा। अहंकार को छोडऩा होगा और वसुधैव कुटुम्बकम के भाव को विकसित कर रहना होगा तभी सुखी हो सकेंगे।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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