॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ सदाचार की महिमा ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
व्यक्ति समाज की एक इकाई है। व्यक्ति के विचार और कार्य उसके खुद के विकास के लिये तो महत्वपूर्ण होते ही हैं परन्तु उनका प्रभाव उस समाज पर भी पड़ता है, जिसकी वह इकाई होता है। व्यक्ति के सोच विचार और कार्य से ही नये वातावरण का निर्माण होता है। सात्विक विचार और व्यवहार तथा जनहितकारी कार्यों से ही समाज का उत्थान होता है। यदि विचार और कार्य अपावन होते हैं तो व्यक्ति और समाज का क्रमश: पतन होता है। इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहां किसी एक व्यक्ति के विचारों की पावनता और महानता ने समाज में भारी परिवर्तन लाकर नया जीवनदान दिया है।
पुरातनकाल में सम्राट अशोक और अर्वाचीनकाल में भारत में महात्मा गांधी ऐसे महापुरुष हुये जिनने समाज में भारी परिवर्तन कर नई चेतना प्रदान की। सत्यवादिता, अहिंसा, दयालुता, सहयोग, करुणा व कर्तव्यनिष्ठा ऐसे गुण हैं, जिन्हें समाज सदा आदर देता आया है। इनके अपनाये जाने से समाज ने सदा लाभ पाया है। इन्हें केवल शालेय पाठ्य पुस्तकों से पढक़र नहीं सीखा जा सकता। इन्हें घर-परिवार के स्नेहिल पवित्र वातावरण में बचपन से रहकर और अनुकरण से अनुभव प्राप्त कर ही आत्मसात किया जा सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर हमारे देश की पारिवारिक और सामाजिक संरचना में आपसी स्नेह व आदरपूर्ण संबंधों को विकसित करने प्रेम तथा त्यागपूर्ण जीवन जीने की व्यवस्था है। धर्म भी ऐसे मधुर संबंधों का उपदेश देते हैं। आज के आपाधापी के युग में पारिवारिक स्नेह बंधन टूटते जाते हैं। स्वार्थ और आत्म-सुख की प्राप्ति की हवा बह रही है। लोग सहयोग और संवेदनशीलता को भुला चले हैं। आज सामान्य जन पढऩे की जगह देखने, सुनने की जगह सुनाने और कुछ नया गुण सीखने की जगह हलके मनोरंजन में अधिक रुचि लेने लगे हैं। इसी से हमारी संस्कृति के मान्य मूल्यों का अवमूल्यन हो चला है। तनाव बढ़ रहा है। चारित्रिक पतन हो रहा है। सादगी और सरल जीवन की जगह दिखावों और आडम्बरों का चलन बढ़ गया है। मनुष्य जीवन में शांति का अभाव हो चला है। उलझाव बढ़ रहे हैं। ऐसे वातावरण में सुधार के लिये सही सोच-विचार और कार्य व्यवहार की आवश्यकता है। पारस्परिक सहयोग और चारित्रिक दृढ़ता तथा धर्म कर्मनिष्ठा द्वारा बुराइयों को त्याग कर नई अच्छी आदतें निर्माण करने का कार्य किया जाना चाहिये। यह सद्बुद्धि और सद्शिक्षा से ही संभव है।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समय बदलता है, नवीनता लाता है, उसे रोका नहीं जा सकता। परन्तु हमें क्या करना, क्या नहीं करना? अच्छा क्या है? क्या बुरा है? इसका विवेक से निर्णय कर सही कार्य करना चाहिये। जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन रखकर ही नवीनता को स्वीकारना चाहिये। नवीनता के प्रवाह में बिना विचार के बह नहीं जाना चाहिये। कोई भी अनुचित एकांगी व्यवहार, समाज को स्वीकार्य नहीं होता और बिना विचारे किये कार्य भविष्य में दुख के कारण बनते हैं। कहा है-
‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय।
काम बिगारै आपुनो जग में होत हंसाय॥’
सदाचारी बनकर हम अपना और अपने समाज का हित कर सकते हैं। सदाचारी को लालची और आलसी नहीं होना चाहिये। सदाचार का आशय है ऐसा अच्छा व्यवहार जो सबको पसंद हो और हितकर हो। सरल परख यह है कि हमारा कार्य, किसी के लिये दुख देने वाला और अरुचिकर न हो। आज सदाचार के स्थान पर भ्रष्टाचार बढ़ रहा है जिससे दोनों पक्षों और समाज को कष्ट हो रहा है। सदाचार से न केवल सबका कल्याण होता है वरन सबको सुख और प्रसन्नता होती है। वातावरण पवित्र होता है अत: शांति भी सहजता से मिलती है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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