डॉ . प्रदीप शशांक
☆ अछूत ☆
(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी की शब्द चयन एवं सांकेतिक शैली मौलिक है। )
इस जिले में स्थानांतरित होकर आये देवांश को लगभग एक वर्ष हो गया था । परिवार पुराने शहर में ही था । देवांश छुट्टियों में ही अपने घर आता जाता था एवं परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था । केवल वेतन के सहारे उसका दो जगह का खर्च ब- मुश्किल चल रहा था । अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति हेतु उधारी के कुचक्र में वह उलझता ही जा रहा था ।
विगत कुछ माहों से वह अनुभव कर रहा था कि यहां पर भ्रष्टाचार की नदी का बहाव कुछ ज्यादा ही तेज है । इस नदी में यहां कार्यरत कुछ पण्डों का एकाधिकार था । ये पण्डे रोज ही भ्रष्टाचार की नदी में डुबकी लगाकर पूण्य लाभ कमा रहे थे, इसका प्रसाद भी उन्हीं के भक्तों में वितरित होता था ।
देवांश की ईमानदारी की बदनामी उसके यहां आने के बाद तेजी से फैल चुकी थी । अतः वह यहां पर अछूत का जीवन व्यतीत कर रहा था । वह रोज दूर से ही नदी मैं तैरते, अठखेलियाँ करते इन लोगों को देखता रहता था । निरन्तर बढ़ते आर्थिक बोझ को कुछ कम करने के लिये उसका मन भी भ्रष्टाचार की नदी में डुबकी लगाने को प्रेरित करने लगा, लेकिन उसके आदर्श आड़े आ जाते, फिर उसे तैरना भी तो नहीं आता था क्योंकि वह इस कार्य में अनाड़ी जो था ।
आखिर एक दिन उसने सोचा कि जब सब ही भ्रष्टाचार की नदी में डुबकी लगाकर अपना जीवन सुखमय बना रहे हैं तो वह भी क्यों न किनारे पर बैठ कर लोटा -दो– लोटा लेकर, अपनी आर्थिक कठिनाइयों को कुछ कम कर ले । इसी सोच के तहत देवांश ने हिम्मत बटोरी एवं किनारे पर जाकर जैसे ही लोटा भरना चाहा, वहां पर तैर रहे पण्डों ने चिल्लाना शुरू कर दिया –
“अरे—रे — इस अछूत ने पवित्र नदी को भ्रष्ट कर दिया, पकड़ो इसे । इस घिनौने कृत्य के लिये इसे सजा अवश्य मिलनी चाहिये।”
सबके एकजुट स्वर में उसकी आवाज दबी रह गई ।
सभी भ्रष्टाचार विशेषज्ञ पण्डों ने मिलकर उसके विरूद्ध गवाही दी और उसे भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के अंतर्गत दोषी मानते हुए निलंबित कर दिया गया ।
वह निलंबन पत्र हाथ में लिये खड़ा था। उधर वे पण्डे, नदी में पुनः उसी आनंद के साथ डुबकी लगा रहे थे, तैर रहे थे, अठखेलियाँ कर रहे थे ।