सुश्री ऋतु गुप्ता
(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं / स्वार्थ और बच्चों के प्रति कर्तव्य के निर्वहन पर आधारित एक संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा।)
☆ ज़िम्मेदारी ☆
उमा अपने पति के देहान्त के बाद अपने घर में अकेले रह रही थी, दोनों बच्चों की शादी हो चुकी थी। बेटी के घर में रहना नहीं चाहती थी, बेटा-बहु ले जाने को तैयार नहीं थे बेचारी किसी ने किसी तरह अपना वक्त गुजार रही थी। पति की मौत ने उसे तोड़ डाला था बेटे के दो बच्चे हो चुके थे।
बेटा-बहु दोनों ही नवोदय स्कूल में सेवारत थे। अब बच्चों की परवरिश की दिक्कत आने लगी थी। काम वाली के सहारे बच्चों को छोड़ना सुरक्षा के लिहाज से तो सही था ही नहीं, खर्चा भी मोटा होता।
बहु ने बेटे से कहा,,” क्यों ऩ हम माँ जी को अपने पास ले आये ,उनका मन भी लग जाएगा व अपनी समस्या भी हल हो जायेगी”। बेटा तो कुछ दिन से यह चाह ही रहा था। क्योंकि समाज की थोड़ी परवाह थी उसे। उस माँ के संस्कार भी बाकी थे उसमें; लेकिन पत्नी के डर की वजह से चुप था।
दोनों माँ को लेने गाँव पहुँच गये। उनको इतने दिनों बाद देख कर वह कुछ अचंभित हई; लेकिन माँ तो माँ ही होती है। अपने आँसू छुपाते हुए कहने लगी , “बेटा सब ठीक तो है ना, कैसे हो तुम सब लोग? बच्चे क्यों नहीं आये”? बिना उत्तर सुने सवाल पर सवाल करती रही। उनको मुँह-हाथ धोने की बोल उनके लिए चाय बनाने चली गई। बेटा पीछे-पीछे रसोई में गया और बताया सब ठीक हैं बच्चे स्कूल का काम ज्यादा था इसलिए घर पर ही रह गये। बातों ही बातों में जाहिर कर दिया कि वे उसे अपने साथ ले जाने के लिए आये हैं। फटाफट जाने की तैयारी कर ले।
चाय देकर वह अपने कमरे में आ गई वह सोचने लगी व साथ जाने के लिए मना कर दे; लेकिन बच्चों का दिल तोड़ने की हिम्मत उसमें नहीं थी। वह चुपचाप कपड़े व जरूरत की चीजें पैक करने लगी। मन ही मन बुडबुडा रही थी कि यहाँ तो सब की यादें बसी हैं। उसके जानने वाले बहुत हैं कुछ दिन की बात तो अलग थी मगर हमेशा के लिए वहाँ जाना ……..।
बच्चे चाहें कितने ही बड़े क्यों न हो जाये माँ-बाप के फर्ज कभी पूरे नहीं होते। यह जिम्मेदारी भी उसे निभानी ही पड़ेगी।
यही विचार कर घर पर ताला लगा बच्चों के साथ घर से निकल गई। जब तक घर आँखों से ओझल न हो गया वह गाड़ी से बाहर झाँक कर देखती रही।
© ऋतु गुप्ता, दिल्ली