श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-3 (अंतिम भाग) 

शेरू का बलिदान

अब तक आपने पढ़ा कि – शेरू अचानक एक दिन मिला था, उसका मिलना मजबूरी भूख  संवेदना तथा प्रेम निवेदन की कथा बनकर रह गई।  वहीं दूसरे भाग में उस अबोध जानवर की कहानी पढ़ी जिसकी संवेदना को मानवीय संवेदनाओ से कहीं भी कमतर नहीं ‌आका जा सकता।  अब आगे पढें उसके त्याग व बलिदान की कथा जो किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख देगी। आज जब इंसान लोभ मोह तथा स्वार्थ के दलदल में जकड़ा पडा़ है, तब शेरू बाबा का बलिदान हमें अवश्य ही कुछ सोचने पंर मजबूर करता है। शेरू का निष्कपट प्रेम तथा बलिदान मानव समाज को झकझोरने के लिए प्रर्याप्त है। इस कथा को पढ़ते कहीं मुंशी प्रेमचंद की कथा कहानियों की याद आ जाये,  तो आश्चर्य नहीं। अब आगे पढ़ें ——-

समय धीरे धीरे अपनी मंथर गति से ‌चल रहा था। उसकी जवानी अपने पूरे उफान पर थी। ऐसे में वह अपनी बिरादरी के चार चार लोगों पर अकेला भारी‌ पड़ता। किसी की क्या मजाल जो पास भी फटक जाय। वह जिधर से निकलता शान से आगे बढ़ता चला जाता बेख़ौफ़ और बिरादरी के लोग गुर्राते ही रह जाते।

अब बरसात का मौसम आ गया था।

अचानक से एक दिन शेरू गंभीर रूप से बीमारी से जकड़ गया था।  उसे पतले दस्त आ रहे थे। मुंह से झाग भी निकल रहा था। इसके चलते वह कुछ भी खा पी नहीं पा रहा था। बस वह घर के अंधेरे कोने में पड़ा सूनी-सूनी आंखों से मेरी राहें तकता रहता। जब मुझे देख लेता तो वहीं पड़े पड़े धीरे-धीरे सिर उठा अपनी पूंछ हिलाता।

मेरे प्रति अपना प्रेम प्रकट करता, मैंने उसे पशू डाक्टर को दिखाया बहुत सारा इलाज चला।  लेकिन कोई आशातीत सफलता नहीं मिली। उसका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता चला जा रहा था। जिससे मेरा मन काफी विचलित था। आज उसने पानी भी नहीं पिया था। जब मैं पाही पर चला था तो शेरू  भी मेरे पीछे पीछे लड़खड़ाते कदमों से मेरे पीछे पीछे चला आया।

मैंने उसे अपने पीछे आने से उसे बहुत रोका लेकिन मेरे लाख प्रयासों के बाद भी वह नहीं माना और पीछे चलता हुआ आकर हर रोज की भांति दरवाजे पर बैठ गया। शायद उसे अपने जीवन के आखिरी पलों का आभास हो चला था।

वह बहुत उदास था पुरवा हवाएँ काफी तेज चल रही थी। कमरे के बीच टिमटिमाती लालटेन की पीली रोशनी के बीच मैं अपने बिस्तर पर अननमना सा लेटा हुआ था। रह-रह कर फड़कते अंग और दिल की अंजानी बेचैनी घबराहट किसी अनहोनी का संकेत दे रहे थे। जो सोने में बाधक बन रहे थे। लेकिन तेज पुरवा हवा के ‌झोंकों ने कुछ देर बाद नींद से बोझिल आंखों को सुला दिया था। शेरू अगल बगल की झाड़ियों के बीच हल्की सरसराहट सी सुनता‌ तो सतर्क‌ हो उठता तथा चौकन्ना हो भौंकने गुर्राने लगता, जिससे बार बार मेरी नींद में खलल पड़ता। मैं बार बार उसे चुप कराता लेकिन वह फिर भौंकना चालू कर देता। मैंने उसे गुस्से में डंडा फेंक मारा, हालांकि उसे चोटें नहीं लगी लेकिन फिर भी मारे डर वह कूंकूं करता थोड़ी दूर भाग गया था और फिर वह तत्काल भौंकने लगा था। उसे आने वाले ‌संभावित खतरे का आभास हो चला था, जब कि मैं किसी भी खतरे से अनजान था। उसका बार बार भौंकना मुझे खल रहा था।

मेरी नींद बाधित हो रही थी। फिर भी मैं करवट बदल सोने का प्रयास कर रहा था। तभी एक भयानक काला कोबरा झाड़ियों से निकल मेरे ‌बिस्तर की तरफ बढ़ा था और उसे देखते ही शेरू के दिल में स्वामीभक्ति का‌ ज्वार उमड़ आया। अब शेरू और सांप के बीच धर्म युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अपनी-अपनी आन पे अड़े थे। जहां भूखा सांप ‌भोजन के लिए अंदर आने को आतुर था, वहीं शेरू अपना सब कुछ न्योछावर कर उसे बाहर रोकने पर आमादा था। इस महासंग्राम में जहां क्रोधित सर्प फुंफकार‌ भर‌‌ रहा‌ था, वहीं शेरू ‌अपनीं स्वामिभक्ति की‌‌ मौन साधना को पूर्ण रूपेण समर्पित था। पूरी ताकत से शेरू ने‌ सांप को भीतर आने से रोक‌ रखा था। सांप की फुफकार सुन मेरी नींद खुली थी और बाहरी दृश्य देख मैं घबरा उठा। पसीने से तर-बतर मेरा शरीर भी थर-थर कांप रहा था।  गला सूख गया जुबान तालू से जा चिपकी। भय के मारे मेरे गले से सिर्फ गों गों की फंसी फंसी आवाज निकल रही थी तथा मैं बदहवासी की हालत में अपने पांव जमीन पर  उतारने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। ऐसे में मैं स्वास रोके शेरू और सांप का धर्मयुद्ध देखने के लिए विवश था। अगर कोई रास्ता होता तो न जाने मैं कब का भाग खड़ा होता। इस महासंग्राम में ना जाने कितने बार‌ उस सर्प ने शेरू को काटा होगा, लेकिन हर बार शेरू दूनी ताकत से सांप को अपने तीखे नाखूनों के प्रहार से विदीर्ण कर मौत के मुंह में सुला दिया तथा सांप के जहर से कुछ दूर जा अपनी मौत के गले मिल गया। मैं घबराहट में चेतना शून्य हो गया।

सबेरे मेरे मुंह पर पानी के छींटें मार बेहोशी से जगाया गया। सामने सांप की क्षत-विक्षत शरीर तथा कुछ दूरी पर शेरू का निर्जीव शरीर देख मेरे जेहन में रात की सारी घटना घूम गई।

उस दिन चार रोटियां तथा कटोरे भर दूध पिला शेरू की ठंड से प्राण रक्षा की थी, लेकिन आज शेरू जानवर होते हुए भी अपनी संवेदनशीलता के चलते अपनी जान देकर अपनी वफादारी का फर्ज निभा गया। उस समय जिसने भी शेरू की कर्म निष्ठा को देखा सुना सबकी नजरें तथा सिर शेरू के प्रति सम्मान में झुकती चली गई।

शेरू का इस तरह अचानक उस दुनियां से जाना मेरे लिए किसी सदमे से कम‌ नहीं था। मेरे भीतर बैठा एक संवेदनशील इंसान भीतर ही भीतर ‌टूट चुका था। उस समय मैं शेरू के साथ बिताए पलों की स्मृतियों तथा आंख में आंसू लिए उसे उसी बाग में दफना रहा था, जहां उसने कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे एक इतिहास रचा था। उसे दफन करते हुए मेरा मन अपनी कायरता पर आत्मग्लानि से भर उठा ‌था।

उसी स्थान पर कालांतर में कुछ स्थानिय लोगों ने एक मकबरा बनवा दिया था जिसके भीतर भित्तिचित्रों में शेरू बाबा की कर्मनिष्ठा की कहानी अंकित हो गई थी।

अब उस रास्ते से ‌आते जाते लोग शेरू बाबा की कर्म निष्ठा को प्रणाम करते हैं। न जाने कब व कैसे वह स्थान शेरू बाबा के मकबरे के रूप में चर्चित हो गया तथा यह किंवदंती प्रचलित हो गई कि शेरू बाबा हर आसंन्न संकट से सबकी प्राण रक्षा करते हैं। और आज लोग अपने तथा परिवार की हर संकट से रक्षा के लिए शेरू बाबा के मकबरे पर मन्नतें मांगा करते हैं और शेरू के त्याग बलिदान की कथा कहते सुनते नजर आते हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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