हेमन्त बावनकर
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। आज प्रस्तुत है एक कविता “लघुकथा – अच्छी खबर”। )
☆ लघुकथा – अच्छी खबर ☆
दादी गुरप्रीत कौर का बुखार उतर ही नहीं रहा था।
बहू ज्ञानप्रीत कौर ने डॉ सतवीर सिंह को बताया – “प्रा जी। ये न बिलकुल किसी की नहीं सुनती। कल रात भर छत पर पता ही नहीं चला कब चली गई और खुले में बिस्तर बिछा कर कंबल ओढ़ कर सो गई? सबेरे जब पूछा तो बोलीं – अरे मैं देख रही थी, इतने दिनों से ऐसी ठंड में दिल्ली बार्डर पर सरदार जी और कीरत पुत्तर जी खुले में कैसे सो रहे हैं?”
पारिवारिक डॉ सतवीर ने देखा चाची को तेज बुखार है और शरीर काँप रहा है। बुखार का कारण सुनकर वे संतुष्ट हुए और ज्ञानप्रीत को बोले “भाभी, मैं दवाइयाँ लिख दे रहा हूँ, किसी से मँगवा लेना। सब ठीक हो जाएगा।“ फिर दादी से बोले – “दादी अब बिस्तर से नहीं उतरना। और चिंता मत करना। वहाँ बहुत लोग हैं एक दूसरे का ख्याल रखने के लिए।“
दादी सर्दी में काँपते हुए बोली – “पर पुत्तर टी वी पर देखा दिल्ली बार्डर पर बहुत सारे बेरिकेड, पुलिस फोर्स, पानी, आँसूगैस की व्यवस्था भी हो रही है।”
डॉ सतवीर ने समझाया – “दादी वो दिल्ली बार्डर है कोई वाघा – अटारी बार्डर थोड़े ही है। और बेरिकेड के उसपार पुलिस फोर्स में अपने ही भाई हैं। चिंता मत करो, जल्दी ही अच्छी खबर मिलेगी।”
पर बच्चों के समझाने से दादी का मन थोड़े ही मानने वाला था। चिंता होना भी स्वाभाविक ही था। सरदारजी की बायपास सर्जरी हो चुकी थी। शादी को पचास बरस से ऊपर हो गए थे। शादी ब्याह और परिवार में मौत के अलावा कभी भी उनसे इतने दिन अलग नहीं रहे। नौ बरस का उनका पोता गुरमीत उनकी सेवा में लग गया। जो माँगती दौड़ दौड़ कर लाता। जब तक दादी नहीं खाती, तब तक उसके गले से एक कौर नहीं उतरता।
ज्ञानप्रीत देख रही थी जब से गुरमीत के दादा सरदार गुरशरन सिंह और गुरमीत के पिता सरदार कीरत सिंह दिल्ली के लिए पिण्ड (गाँव) के सब लोगों के साथ रवाना हुए हैं उसका चेहरा मुरझा गया है। पिण्ड के और बच्चों के साथ अपने चाचा अजीत सिंह जी के घर बना रहता।
दादी दिन भर से बुखार में बड़बड़ाती रही। “अजीब बात है … परजातन्त्र है … लोगों ने इतनी सीटों से जिता कर लोगों की भलाई के लिए कानून बनाने का हक दिया … हक के लिए लड़ने के हक पर सियासत करने का हक थोड़े ही दिया है … सियासत कल मेज के इस ओर थी … आज मेज के उस ओर है … कल फिर इस ओर होगी … एक बेटा देश की हिफाजत के लिए है … उसे देश की हिफाजत करने दो … एक जमीन की हिफाजत के लिए है … उसे जमीन की हिफाजत करने दो …” और सरदार जी और बेटे को याद करके पता नहीं क्या क्या बड़बड़ाती रही।
गुरमीत के कुछ भी समझ नहीं आ रहा था … उसे परजातन्त्र … कानून … हक … सियासत …शब्द बड़े अजीब लग रहे थे। सुबह से शाम हो गई। देर शाम दादी का बुखार कुछ कम हुआ तो दौड़ कर चाचा अजीत सिंह के घर अपने दोस्तों के साथ जा पहुंचा।
ज्ञानप्रीत कौर को अपनी सास की सेहत में सुधार देख कर तसल्ली हुई। दो बार गुरमीत के पिता सरदार कीरत सिंह का फोन आया किन्तु, उसने उनको कुछ भी नहीं बताया। इतने में सास की आवाज आई – “ज्ञान, इनको फोन लगा दे, बात करने का जी कर रहा है।”
ज्ञानप्रीत कौर कुछ कहती कि- इतने में गुरमीत दौड़ कर आया और रसोई घर से थाली और चम्मच ले आया। दादी के कमरे में रखा टॉर्च लेकर छत की ओर जाने लगा। दादी बोली – “गुरमीत पुत्तर क्या हुआ? कुछ बोल तो सही।”
गुरमीत छत की ओर दौड़ते हुए बोला – “दादी, जब तक दादा अपनी बात मनवाकर नहीं आते। रोज शाम सात बजे मैं और मेरे दोस्त एक मिनट थाली चम्मच बजाएँगे और एक मिनट टॉर्च जलाएंगे।”
गुरप्रीत और ज्ञानप्रीत हतप्रभ एक दूसरे का चेहरा देखते रह गए। दोनों मन ही मन में अपने-अपने अर्थ निकाल रहे थे और गुरमीत छत पर चला गया।
© हेमन्त बावनकर, पुणे
18 दिसंबर 2020
बहुत ही सुन्दर ! आप एक बड़े अच्छे लेखक हो! कथा में को छू गई
धन्यवाद आदरणीया