श्री हरिप्रकाश राठी
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरिप्रकाश राठी जी ने यूनियन बैंक ऑफ़ इण्डिया से स्वसेवनिवृत्ति के पश्चात स्वयं को साहित्य सेवा में समर्पित कर दिया और अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। श्री राठी जी अपनी साहित्य सेवा के लिए अब तक कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं। इसके अंतर्गत ‘कथाबिंब’ पत्रिका द्वारा कमलेश्वर स्मृति श्रेष्ठ कथा सृजन पुरस्कार 2018, पंजाब कला साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, विक्रमशीला विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर जैमिनी अकादमी, हरियाणा द्वारा उत्कृष्ट कथा सृजन हेतु राजस्थान रत्न, राष्ट्रकिंकर नई दिल्ली द्वारा संस्कृति सम्मान, मौनतीर्थ फाउंडेशन उज्जैन द्वारा मानसश्री सम्मान, वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान, जोधुपर मेहरानगढ़ से निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान बस्ती (यूपी) द्वारा राष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी एवं यूनेस्को द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक कहानी ‘ प्रतिबिम्ब’।)
☆ कथा कहानी ☆ समय-रथ ☆ श्री हरिप्रकाश राठी ☆
अस्ताचल में उतरने के पूर्व सूर्यदेव कुछ पल के लिए रुके, पूर्वी क्षितिज से पश्चिमी छोर तक के यात्रा-पथ को निहारा, कुछ गंभीर हुए एवं तत्पश्चात् क्षणभर में ओझल हो गए। डूबने से पूर्व आखिर इस मार्ग को निहार कर वे क्या सोच रहे थे? क्या वे यह विवेचन कर रहे थे कि इस पथ में उन्होंने क्या देखा एवं क्या देखने से वंचित रह गए? क्या वे यह सोच रहे थे कि यह यात्रा ऐसे न होकर वैसे होती तो अच्छा होता? क्या सूर्यदेव मंसूबे मन में बसाये ही डूब गए? क्या उनकी चाहनाएं अधूरी रह गई? डूबते हुए उनके चेहरे पर इतने प्रश्न क्यों थे ?
सांझ का झुरमुटा अब सर्वत्र फैलने लगा था। एक प्रहर और बीता होगा एवं तदनंतर धाय की तरह जगत को गोद में आश्रय देने वाली रात्रिदेवी का सर्वत्र आधिपत्य हो गया।
जीरो बल्ब की रोशनी में बिस्तर पर पड़े काशीनाथ जाने किस चिंता में डूबे थे? अभी बीस मिनट पूर्व डिनर लेकर वे कमरे में आए थे, कुछ देर एक पुस्तक का पारायण किया, नित्य की तरह पांच मिनट पद्मासन में बैठ प्रभुनाम का स्मरण किया एवं चुपचाप लेट गए। उन्होंने सोने का प्रयास किया, पर जैसा कि होता है प्रयास करने पर नींद ज्यादा उखड़ती है, वे नहीं सो पाए। जैसे जवानी में धन कमाना, न कमाना भाग्य की बात है, बुढ़ापे में भी नींद आना, न आना भाग्य के अधीन है। वे सŸार पार थे एवं इस उम्र में अक्सर ऐसा होता है। वे उठे, अंतिम प्रयास के रूप में जीरो बल्ब ऑफ किया एवं पुनः लेट गए। यह प्रयास भी निरर्थक सिद्ध हुआ एवं अब नींद उनकी आँखों से कोसों दूर थी। आज जाने क्यों कमरे के अंधेरे से भी गहन अंधेरा उनके हृदय में उतर आया था। देखते ही देखते चिंतन की गहरी लकीरें उनके ललाट पर उभर आई एवं वे जाने किस लोक में खो गए।
काशीनाथ की लौकिक आँखों के आगे घुप्प अंधेरा था, लेकिन मन की आँखों के आगे अतीत रोशन होकर नाच रहा था। इस अंधेरे में भी वे देख रहे थे कि एक पाँच साल का बच्चा, कांधे पर बैग डाले अपनी मस्ती में स्कूल की ओर भाग रहा है। चित्रपट की तरह उनके सारे जीवन की फिल्म रिवाईंड होकर पीछे की ओर घूम गई एवं वे वहाँ जाकर खडे़ हो गए जहाँ से उनकी जीवनयात्रा प्रारंभ हुई थी। इसके पूर्व की किसी घटना का उन्हें इल्म न था। उनके स्मृति-कोष में यही आखिरी याद थी। विद्यालय में यद्यपि कभी-कभार गेम्स के पीरियड्स होते, लेकिन मन में अदम्य इच्छा होते हुए भी वे उनमें कम ही भाग ले पाते थे। पिताजी के स्पष्ट निर्देश थे कि खेलकूद पर ज्यादा ध्यान न दो, अंततः पढ़ाई में अच्छे नंबर लाने वाले ही आगे बढ़ते हैं। बलात् पिता की बात उन्होंने मान तो ली, लेकिन अब लगता है असली नवाब पढ़ने-लिखने वाले नहीं, खेलने-कूदने वाले बनते हैं। खेल बालक में न सिर्फ ऊर्जा का संचार करते हैं, ताउम्र प्रतिस्पर्धी होने का सबक भी देते हैं। स्वास्थ्य अच्छा रहता है, वह फिर अतिरिक्त बोनस है। काश! उन्होंने पिताजी की राय दरकिनार कर खेलों पर ध्यान दिया होता तो शायद राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी होते। काश! क्रिकेट का बल्ला पकड़ने पर पिताजी ने तीखी आँखों से देखने की बजाय कंधे पर हाथ रखकर उत्साहित किया होता तो वे मात्र किताबी कीड़े नहीं बनते। निरंतर पुस्तकों के मनन ने उन्हें अच्छे नंबर तो दिलाए लेकिन बेहद अव्यावहारिक, अहंकारी एवं अक्खड़ भी बना दिया। जिस फाइटिंग इंस्टिक्ट, स्पर्धाभाव के साथ व्यक्ति आगे बढ़ता है एवं जिसकी जीवन में पल-पल आवश्यकता होती है, मानो विलुप्त हो गया। पढ़ाई के साथ खेलों में भी यदि उनकी समभागिता होती तो आज आत्मविश्वास सिर चढ़ कर बोलता।
ऐसे ही अगड़म-बगड़म कितनी ही बातें उनके जेहन में ‘काश!’ बनकर उनसे प्रश्न करने लगी थी। उन्हें कैशोर्य के वे पल भी याद आए जब कॉलेज में साथ पढ़ने वाली निरुपमा से उन्हें प्रेम हुआ था। दोनों एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर देखते, जी-जान से चाहते, पर इतना साहस भी न बटोर पाए कि वे कह सके निरुपमा मैं तुम्हें चाहता हूँ। हर बार वही अकड़, वही दम्भ, वही अहंकार कि पहले वह कहेगी एवं इसी अकड़ में उसका विवाह अन्यत्र हो गया। ओह! निरुपमा कितनी सुंदर, समझदार एवं संवेदनशील लड़की थी। उसने आँखों से संदेश भी भेजे लेकिन वे एक कदम चूक गए। निरुपमा के संबंध होने का समाचार मिला तब दस दिन तक दाढ़ी बढ़ाये मंजनू की तरह घूमते रहे, लेकिन प्लेटफार्म पर छूटी ट्रेन की तरह वह फिर कभी नहीं दिखी।
अब तो मालती से विवाह हुए भी चालीस वर्ष हुए। तीन वर्ष पूर्व जबसे उसका निधन हुआ तब से बुढ़ापा ढो रहे हैं। वह थी तो कौन-सी उससे बनती थी! वही हठी स्वभाव कि हर जगह मेरा रौब चले। अब चलाओ रौब। आज वो मिल जाए तो सब कुछ करने को तैयार है, नाक रगड़ने तक को मना नहीं करेंगे, पर वही बात चिड़िया खेत चुग जाने पर पछतावा करने से बनता क्या है ? वह दिन भूल गए जब किसी पार्टी में जाने की अनिच्छा जाहिर करने पर तुमने न सिर्फ उसे खरी-खोटी सुनाई, आग बबूला होकर थप्पड़ भी जड़ा था। बेचारी खून का घूंट पीकर रह गई। वह दिन भूल गए जब उसने भाई की शादी में दो गहने बनाने का क्या कहा, तुम पारे की तरह बिखर गए। क्या कहा था, पैसा पेड़ पर लटकता है कि मैं तोड़कर तुम्हारी सभी इच्छाएं पूरी कर दूँ? मालती तब मन मसोसकर कमरे में चली गई थी। उसका विवश चेहरा याद है तुम्हें ? वह दिन तो तुम्हें जरूर याद होगा जब तुम्हारे लाये नये डिनर सेट की प्लेटें धोकर वह अल्मारी में रख रही थी, यकायक उसका पैर फिसला, वह नीचे गिरी एवं सारी प्लेटें फूट गई। तब उससे यह कहने की बजाय कि मालती तुम्हारे चोट तो नहीं लगी, तुमने जमकर लताड़ पिलाई। यह उसके सहनशक्ति की इंतहा थी। सुबकती हुई मालती तब पीहर चली गई थी। श्वसुरजी तब यमराज की तरह कुपित होकर बोले थे, ‘‘मेरी फूल-सी बेटी को आपने क्या बना दिया है!’’ तीन-चार दिन पीहर रही तब तुम्हें नानी याद आई। तब झूठी तबीयत खराब होने का बहाना कर वापस बुलाया। तुम चाहते तो ससुराल जाकर उसे प्यार से भी ला सकते थे। मालती तब कितना खुश होती! तुम हारते तो वह वारि जाती, पर तुमने तो हर बार जीतकर उसे निराश किया। अब भुगतो! अब लाख आँसू बहाने से भी वह नहीं आने वाली। उसे निर्देश क्या देते हिदायतों की झड़ी लगा देते थे। काश! तुम संयत रहते, मालती को समझने की कोशिश करते तो आज यूँ मन न मसोसते। सारे गुण किस औरत में मिलते हैं। गुलाब काँटों के बिना मिलता है क्या? सोचते-सोचते काशीनाथ का चेहरा आँसुओं में नहा गया।
जिस पिता के माँ से मत-मतांतर हो उसके बच्चे उसे वैसे देखते हैं, जैसे पिटती हुई गाय के बछड़े ग्वाले की ओर देखते हैं। उनके अनुशासन एवं मालती के प्रेम की छाँव में बच्चे आगे तो बढे़, लेकिन अनेक मुद्दों पर उनका बच्चों से मतभेद रहा। कितने निर्देश वे बच्चों को देते थे? यह करो, वह करो, ऐसे रहो, वैसे रहो! वह तो साहस कर बच्चों ने अपने कैरियर-पथ को उनकी नैसर्गिक योग्यता के अनुसार चुना, अन्यथा कुंठित बच्चे विद्रोह करते तो अकल आती। आशीष ने जब कहा कि पापा, मैं इंजिनियरिंग तो पूरी करूँगा, लेकिन कैरियर संगीत के क्षेत्र में ही बनाऊँगा तो तुम कैसे उखड़े थे। याद है वे शब्द, ‘‘मैंने इंजिनियरिंग गवैया बनाने को नहीं करवाई है! यह काम तो अनपढ़ भी कर लेता है। मैंने जितना खर्च किया है, उसका रिटर्न चाहिए मुझे।’’ तब वह रूठकर मुंबई चला गया था। आज उसने अच्छा सिंगर बनकर सफलता का परचम लहराया है तो गर्व से कहते हो मेरा बेटा है! आस्था के अंतर्जातीय विवाह पर क्या कम तूफान खड़ा किया था ? मालती को आडे़ हाथों लिया था। यह आशिकमिजाजी इसमें आई कहाँ से ? तुम बच्चों का जरा भी ध्यान नहीं रखती? इसकी योजनाओं मंे अवश्य तुमने साथ दिया होगा एवं जाने क्या-क्या ? बाद में झख मारकर रिश्ता स्वीकार भी किया पर एक बार तो दूध बिगाड़ दिया ना। वह तो मालती और आस्था ने कुशलता से मामला समेट लिया वरना रूठे दामाद को मनाने में सारी ऐंठ निकल जाती। आज आस्था प्रसन्न है तो कहते हैं, ईश्वर तूने मुझे संतति का पूर्ण सुख दिया।
बहू आई तब कौन-सा कम तूफान खड़ा किया था ? यह करो, वह करो, यह पहनो, यह न पहनो। मेरे घर में जीन्स-टॉप, सलवार-कुर्ता नहीं चलेगा, मेरे घर में साड़ी ही पहननी होगी। यहाँ ऐसे रहना होगा, वैसे रहना होगा एवं जाने क्या-क्या ? तुम इतना भर न समझ पाए कि पराये घर से आने वाली इन दुलारियों से कैसे व्यवहार किया जाता है? तुम्हारा दामाद तुम्हारी बेटी के साथ ऐसा करता तो दिन में तारे नजर आ जाते। वह तो बहू भले घर से थी एवं समायोजन कर गई अन्यथा मालती के निधन के पश्चात् बगलें झांकते। अब बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचने से क्या फायदा कि काश! मैं जमाने की लय-ताल के साथ चलता तो घर स्वर्ग होता।
काशी! रिश्तेदारों से तुमने कौन-सी कम लड़ाइयाँ लड़ी। एक जरा-सी बात को लेकर छोटे भाई से तीन माह तक नहीं बोले। कितना अच्छा स्वभाव था उसका। एक बार जरा विरोध क्या कर दिया, बस बिगड़ गए। परिवारों में अंतर-विरोध तो होते ही हैं। कौैन-सा घर इससे अछूता है ? लेकिन तुम तो तानाशाह थे। उखड़ गए सो उखड़ गए। याद है उस दिन उससे क्या कहा था, ‘‘खबरदार! आज के बाद मुँह भी न दिखाना!’’ मजबूर वह भी अनेक दिन चुप रहा। बाद में मन ही मन दुःखी भी होते, लेकिन वही पुराना स्वभाव। पूरे तीन माह नहीं बोले। अब पडे़-पडे़ सोच रहे हैं, काश! मैं उस दिन ऐसा नहीं करता। वह तो भला हो मालती एवं उसकी देवरानी का, जिन्होंने मामला निपटा दिया अन्यथा घर युद्ध का मैदान बन जाता। अब सोच रहे हैं, काश! मैं धैर्य रखता! मैं बड़ा था, मुझे बड़प्पन दिखाना चाहिए था। तुम्हारा कितना आदर करता था वह! आज भी हर दूसरे दिन ‘दादा! दादा!’ कहकर तुम्हारी तबीयत की जानकारी लेता है। बेटा-बहू नहीं होते हैं तब उसी के घर जाकर आसरा लेते हो। आज भी तुम्हें हथेली के छाले की तरह रखता है। अब सर धुन-धुनकर पछताने से बीता समय बदल सकते हो क्या ?
छोटा भाई ही क्यों, समय-समय पर अन्य रिश्तेदारों यहाँ तक कि माँ-बाप तक से तुमने अकारण विरोध किया। अब किस मुँह से बच्चों को कहोगे कि माँ-बाप की सेवा करो। गये माँ-बाप लौटकर आते हैं क्या ? उनसे बड़ा हितैषी मिलता है भला ? काश! तुम माता-पिता का महत्त्व जीते-जी समझते तो आज यँू न रोते! अब उनकी तस्वीरों के आगे आँसू बहाने के अतिरिक्त विकल्प क्या है ?
काशी! मित्रों से तुम्हारे क्या कम मत-मतांतर रहे। यह जानते हुए भी कि मित्र जीवन-सुख के अहम पायदान होते हैं, अनेक बार तुम उनसे भी उलझ गए। हर बार वही रोना- मेरा स्वाभिमान, मेरा आत्मसम्मान, मेरा अभिमान। तुम इस छोटी-सी बात को क्यों नहीं समझ पाए कि मित्रता त्याग एवं कुर्बानी की पृष्ठभूमि में पल्लवित होती है। ‘अमन’ जैसे निष्कपट मित्र से भी तुम अनेक बार उलझ पडे़ थे। आज कहते हो, अमन! तुम-सा मित्र सौभाग्य से मिलता है। काश! तुम यह समझ पाते कि मित्रता एक अमूल्य धन है तो अनेक मित्रों को गंवाने का दुःख नहीं भोगते।
ऑफिस में तुमने कौन-सी कम हैकड़ी चलाई ? बात-बात में वही अनुशासन की पूंगी। तीन कर्मचारियों को तो छोटी-सी बात पर निलंबित कर दिया। ऐसे में कर्मचारी खडू़स नहीं तो और क्या कहते! हर बॉस से तुम्हारा शनि-सूरज का आँकड़ा रहा। इसी के चलते अकारण घर में तनाव लाते एवं परिवार को भी तनावग्रस्त करते। काश! तुम अधीनस्थ कर्मचारियों को अनुजवत् रखते तो वे भी अग्रजवत् आदर देते। काश! तुम समझते कि उच्चाधिकारियों की अपनी समस्याएं होती हैं। ऐसे में तुम न सिर्फ उनका प्यार पाते, समयानुकूल पदोन्नति भी मिलती। अरे बॉस मिट्टी का पुतला हो तो भी आदरणीय है। तुमने तो जीवंत अधिकारियों से पंगा ले लिया। लेकिन अब रोने से क्या फायदा? अब तो बस पुरानी गलतियों को याद करो एवं बैठे-बैठे भाग्य को कोसते रहो कि वह मुझसे आगे निकल गया, उसने इतनी तरक्की कर ली। भले तुम उन्हें ‘चमचा‘ आदि कहकर मन का कोप शांत कर लो, सच्चाई यह है कि वे आगे बढ़े हैं तो अपने संयम, श्रम एवं काबिलियत से। याद करो समकक्ष कर्मचारी तुम्हारे बॉस बनकर ऑफिस विजिट पर आते तब कैसी टें बोलती! तब जलने के अतिरिक्त चारा क्या था।
आज अनेक मित्र-रिश्तेदार धनी हो गए हैं तो सोचते हो काश! मैं भी इनकी तरह धनी होता। यह बात जवानी में सोचते तो बेहतर होता कि बुढ़ापे में धन निकटस्थ मित्र होता है। तब त्याग कर चार पैसे बचाते, संयम से विनियोजन करते तो अन्यों की तरह तुम्हारी फसल भी लहलहाती। तब तो बेपरवाह होकर खर्च करते थे। धन जेब को काटता था। अब कलपो!
पड़ोसियों से कौन-से तुम्हारे मधुर संबंध रहे काशीनाथ ? जब मौका मिला तुमने उन्हें भी आड़े हाथों लिया। याद है कॉमन दीवार से पड़ोसी का गमला एक बार तुम्हारी ओर गिर गया था। ऐसा होने से तुम्हारा गमला फूट गया। तब पड़ोसी को कैसी हिकारत से देखा था। तुम इतना भी नहीं समझ पाए कि पड़ोसी परमात्मा का प्रतिरूप होता है। मित्र-रिश्तेदारों से भी पहले विपत्ति में वह आता है।
तुम्हारे बड़बोले स्वभाव से तो बाप रे बाप, कौन दुःखी नहीं हुआ! हर बार हर स्थिति में इसी फिराक में रहते थे कि मैं बिल्ली मार लूँ। काश! धैर्य से कभी दूसरों की भी सुनते तो जीवन के अनेक गलत निर्णयों के लिए नहीं पछताते। तुम तो यह भी नहीं सोच पाए कि जब हम दूसरों की सुनते हैं तभी हमारे ज्ञान में बढ़ोतरी होती है। अच्छा श्रोता अनायास ही शांत रहकर अपने ज्ञान-विज्ञान एवं विवेक की धार पैनी कर लेता है। अनेक बार तुमने स्वयं महसूस किया कि काश! मैं दूसरों की सुनता तो मेरे निर्णय गलत नहीं होते।
स्वास्थ्य के प्रति तुम कौन-सा जागरुक रहे ? अब कौन-सा सुधर गए हो ? मिठाई देखते ही जुबान लपलपाती है। पूरी-पकवान तो फकीरों की तरह स्वप्न में दिखाई देते हैं। काश! तुम्हारी आदतें संयमित होती तो उच्च रक्तचाप, हृदयरोग आदि से पीड़ित नहीं होते। आज जो बीमारी पर इतना पैसा खर्च कर रहे हो, उसका मुख्य कारण तुम्हारी स्वयं की लापरवाही एवं अदूरदर्शिता ही है।
बवण्डर की तरह हर एक गिल्ट, हर एक अपराध, हर एक दुर्व्यवहार आज उनके विचार-व्योम पर गिद्धों की तरह मंडरा रहा था। उनकी आत्मा मानो बार-बार उनसे पूछ रही थी काश! तुम अपने भाई से नहीं लड़ते, काश! तुम्हारा व्यवहार पत्नी, मित्र, रिश्तेदारों, पड़ोसियों एवं जीवन में आने वाले हर एक व्यक्ति के साथ सुमधुर होता। काश! तुम अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से स्नेह रखते तो आज सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे तुम्हें आँखों पर रखते। अपने उच्चाधिकारियों से ढंग से पेश आते तो कैरियर खोने के गम में गमगीन नहीं होते। काश! तुम समय पर धन संग्रहण करते, संयम रखते तो आज विषम परिस्थितियों में नहीं होते। काश! तुम अपनी वाणी पर संयम रखते, काश! तुम अपने खाने-पीने की आदतंे सीमाओं में रखते, ऐसा करते, वैसा करते तो जीवन में कुण्ठा, निराशा एवं व्यर्थता का बोध नहीं होता। तुम्हारे पास विकल्प खुले थे, लेकिन तुम्हीं ने अवसर खो दिया। अब यह कहाँ संभव है ? शरीर जब झूलती मीनारों की तरह हिल रहा हो तो मनुष्य का कौन-सा स्वप्न फलित हो सकता है ? कौन-सा अरेचित मन रेचन पा सकता है ? कौन-सी अतृप्त अभिलाषाएं पूर्ण हो सकती हैं ?
यकायक उन्हें लगा वे बिल्कुल ऐसे तो नहीं थे। क्या उन्होंने निरुपमा को अनेक बार कहने का प्रयास नहीं किया ? मालती उन्हें प्राणों से अधिक प्यारी थी। उसे खुश करने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया ? अपने बच्चों के कैरियर के लिए वे कब सजग नहीं रहे ? अपने साथी कर्मचारियों एवं उच्चाधिकारियों से उन्होंने बेवजह तो पंगा नहीं लिया ? उनके मित्र-रिश्तेदार-पड़ोसी आज भी उनका आदर करते हैं। उन्होंने भी इन रिश्तों को बनाने के लिए क्या नहीं किया ? स्वास्थ्य के प्रति वे कब जागरुक नहीं थे ? अब आदमी हर समय दण्ड तो नहीं पेल सकता। आज भी उनके पास इतना धन है कि वे आराम से जी सकते हैं। ऐसा होते हुए भी विचारों की यह आँधी आज उन्हें क्यों परेशान कर रही थी ? क्यों मात्र उनकी त्रुटियाँ, कमजोरियाँ एवं दुर्व्यवहार ही आज उनके मन-मस्तिष्क में झंझावत बनकर तैर रहे थे ?
सोचते-सोचते काशीनाथ की आँखें मुंद गई। भयभीत उनकी अंतरात्मा में असंख्य प्रश्न कौंधने लगे। वे मानो पुकार उठे, प्रभु! एक अवसर और दो तो उन सभी गलतियों की भरपाई करूँ। अपने एक-एक गुनाह का प्रायश्चित करूँ। अपने हर एक दुर्व्यवहार के लिए घर-घर जाकर क्षमा मांगूं, पर यह क्या……. ? उनकी देह ठण्डी क्यों पड़ गई है ? यकायक उन्हें लगा उनकी देह से एक अलौकिक तत्त्व विलग होकर उनसे कह रहा है, काशी! अब शांत हो जाओ। जाने-अनजाने मनुष्य कितनी गलतियाँ करता है, अनेक गुनाहों को अंजाम देता है लेकिन हर गलती, हर गुनाह, हर चालाकी अंततः अपना हिसाब मांग लेती है। तुम्हारा यह पश्चात्ताप, यह अंतर-मंथन उन गलतियों को चुकता करने के लिए ही है। यहाँ जितना चुका पाए, अच्छा है बाकी अब आगे जन्मों में विमोचित करना। चुकाना तो तुम्हें पड़ेगा ही। यह बात तुम जीते-जी समझते तो अच्छा होता, लेकिन अब तो ‘हंसा’ उड़ चला। अब तुम कुछ नहीं कर सकते।
संसार में समय-रथ भी क्या कभी थमा है ?
© श्री हरिप्रकाश राठी
संपर्क – सी-136, कमला नेहरू नगर प्रथम विस्तार, जोधपुर – 342 009
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जीवन के कटु सत्य को दर्शाती एवं अंतर्मन को झकझोर देने वाली कथा।
बहुत ही सुंदर, संवेदनशील,दिल को छू लेने वाली रचना, बधाई