श्री हरिप्रकाश राठी
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरिप्रकाश राठी जी ने यूनियन बैंक ऑफ़ इण्डिया से स्वसेवनिवृत्ति के पश्चात स्वयं को साहित्य सेवा में समर्पित कर दिया और अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। श्री राठी जी अपनी साहित्य सेवा के लिए अब तक कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं। इसके अंतर्गत ‘कथाबिंब’ पत्रिका द्वारा कमलेश्वर स्मृति श्रेष्ठ कथा सृजन पुरस्कार 2018, पंजाब कला साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, विक्रमशीला विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर जैमिनी अकादमी, हरियाणा द्वारा उत्कृष्ट कथा सृजन हेतु राजस्थान रत्न, राष्ट्रकिंकर नई दिल्ली द्वारा संस्कृति सम्मान, मौनतीर्थ फाउंडेशन उज्जैन द्वारा मानसश्री सम्मान, वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान, जोधुपर मेहरानगढ़ से निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान बस्ती (यूपी) द्वारा राष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी एवं यूनेस्को द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक कहानी ‘रोशनदान’।)
☆ कथा कहानी ☆ रोशनदान ☆ श्री हरिप्रकाश राठी ☆
नित्य की तरह ऑफिस से घर पहुंचा तब तक सांझ का झुरमुटा फैल चुका था। घर के ठीक सामने स्थित बगीचे में खड़े नीम, पीपल आदि ऊंचे पेड़ों पर पक्षियों का शोर बढ़ने लगा था। मैंने दरवाजा खोलकर स्कूटर भीतर पार्क किया, डाक के डिब्बे में रखे दो-तीन पत्र बिना उन पर तवज्जो दिये उठाए एवं भीतर चला आया। आज एक विचित्र तरह की अन्यमनस्कता मुझे घेरे हुई थी, दिन भर ऑफिस में कार्य भी बहुत था एवं दो बार बॉस से अकारण बहस भी हुई। मुझे अकडू़ बॉस जरा नहीं सुहाते, दिन भर पिलो, जी-हजूरी करो फिर यह देखते ऐसे हैं मानो कह रहे हों बरखुरदार ! मैं हूं तो आप नौकरी में हैं अन्यथा छकड़ी याद आ जाती। अरे, यह क्यों नहीं सोचता तू भी हमसे है, दिन भर तेल तो हम ही निकालते हैं तेरा तो इत्ता-सा कार्य है कि ऊपर हेडऑफिस को रिपोर्ट भेजना कि इन मासूमों का कित्ता तेल निकाला है। कीडे़ पड़ें साले को।
भीतर आकर बेड पर लेट गया हूं। मैं ऑफिस से आकर सबसे पहले यही करता हूं तत्पश्चात कुछ देर बाद उठकर भोजन की व्यवस्था करता हूं। अकेले आदमी को हजार दर्द हैं। सुगंधा थी तो आते ही गर्म चाय मिल जाती थी, साथ में पकौड़े, स्नैक्स भी होते थे पर वह भी लड़-भिड़कर ऐसे पीहर गई कि वहीं की होकर रह गयी। आज इस बात को भी एक वर्ष होने को आया। ओह! ऐसे भी कोई रूठता है भला ! इगो इतना कि गरज है तो खुद लेने आओ जैसे उस दिन मैंने घर से धक्का देकर निकाला हो। खुद ही बिगड़ी थी। अभी तो शादी किये दो वर्ष हुए हैं। यह औरतें होती ही ऐसी हैं। इनके मां-बाप भी तो इनको शह देते हैं। कौन कहता है बेटियां पराया धन होती हैं मुझे तो ये पीहर की ऐसी फिक्सड डिपोजिट लगती है जिस पर मियाद तक न लिखी हो। जब रूसे उधर प्रयाण। पति मरे इनकी बला से। सोचते-सोचते मैं कुढ़ गया।
कोई आसमान नहीं गिर गया था उस दिन। मैंने जब कहा आज होटल ताज में डिनर लेते हैं तो बोली, “हरगिज नहीं ! इन फाइव स्टार होटलों में जाने की औकात है तुम्हारी। घर में इन-मीन जरा सी तनख्वाह आती है वह भी तवे की बूंदों की तरह पन्द्रह-बीस रोज में उड़ जाती है। बस, जैसे-तैसे घर चलता है।’’ कहते हुए उसके चेहरे पर परेषानी के भाव उभर आए।
“उस दिन तुम्हारे मम्मी-पापा आए और हमें ताज चलने को कहा, तब तो तुरत मान गई थी। वहां पूरे एक घण्टा बैठे चहक रही थी। बस मैंने क्या कह दिया उखड़ गई।’’ मैंने नहले पर दहला दिया। औरत को सीधा जवाब देना चाहिए वरना सर पर चढ़ जाती है।
“उस दिन मेज़बान वे थे, उनकी हैसियत है, वे अफॉर्ड कर सकते हैं, हमें हमारे बजट में चलना होगा। कुछ जिम्मेदारी सीखिए। यूं दार्षनिकों की तरह दीवारें देखने से घर नहीं चलता। ’’ इस बार उसकी आवाज पहले से तेज थी।
“घर फिर क्या तुम चलाती हो ?’’ मेरी आवाज उससे भी तेज थी।
“जी हां ! आप कमाते हैं तो मैं उसका प्रबंधन करती हूं। झक नहीं मारती, बस जस-तस धकियाती हूं। मि. मनीष, शेखचिल्ली की तरह बादलों में घोंसला नहीं बनाती।’’ इस बार उत्तर देते हुए वह लगभग चीख पड़ी।
“यू आर इम्पोसिबल सुगंधा! तुम्हें मेरे मूड की केाई दरकार नहीं। तुम्हें तो बस अपने हिसाब से नाव खेनी है। यूं चप्पू दांये-बांये चलने लगे तो चल गई गृहस्थी। खैर ! तुम्हारे साथ खुदा भी नहीं रह सकता।’’ मैंने पूरी भड़ास एक श्वास में निकाल दी।
“अच्छा! यह मुंह और मसूर की दाल। टाट का लंगोटा और फाग खेलूं। अरे मैं नहीं होती तो घर आपके भरोसे अब तक कबूतरखाना बन जाता। यू आर मोर देन इंम्पोसिबल। ’’ इस बार उत्तर देते हुए उसके होठ फड़कने लगे।
इस घटना के बाद घर में चुप्पी छा गई। उसका रौद्ररूप देख मैंने स्वयं को ज़ब्त किया। इसके आगे तो बस लठ बजना बाकी था। रात बिस्तर पर आई तो चेहरा ऐसा था मानो देखकर भस्म कर देगी।
बात यहीं नहीं रुकी। अगले दस दिन तक लांछन-प्रतिलांछन का दौर चलता रहा। तब मुझे पता चला वह मुझे लेकर क्या-क्या सोचती है, यहीं नहीं उसने कितने कपोलकल्पित भ्रम पाल रखे हैं। मैं उसकी याददाष्त देखकर दंग रह गया। यहां दो दिन पुरानी बात याद नहीं रहती। हद तो तब हुई जब उसने एक दिन फालतू बातों की उल्टी कर दी। जाने क्या-क्या बकती रही। आपको पराई औरतें सूंघने की आदत है। दिनभर जाने किस-किस से बतियाते रहते हो। देर रात तक सखियों से बकवास चैट करते हो। इतना कहकर भी वह रुकी कहां, आप में जरा भी मैनर्स नहीं है, मेहमान आते हैं तो खुद ही खुद बोलते हो, अरे उनकी भी तो सुनो। आधा तीतर आधा बटेर की तरह लोग क्या पूछते हैं, आप क्या उत्तर देते हैं। उन्हें कुछ सर्व करती हूं तो आधा आप खा जाते हो। भगवान जाने किस अज्ञात देव को भोग चढ़ाते रहते हो। कभी एक ही ड्रेस चार दिन चलती है तो कभी रोज नयी ड्रेस चाहिए। अजी़ब उल्टी खोपड़ी हो। ऑफिस में जाने किस-किस से झगड़कर आते हो। वहां का सारा तनाव यहां लाते हो एवं ठीकरा हम पर फोड़ते हो । एक बॉस तो बताओ जिससे आपकी बनी हो ! लोग तो मिट्टी के बॉस तक को मनाकर रखते हैं।’’
यह मेरे सब्र की इंतिहा थी। प्रत्युत्तर में मैंने भी उसकी हजार कमियां बताई। मैं स्वयं मेरे मीन-मेख निकालने के अंदाज पर दंग था। बात बढ़ती गई एवं फिर इतनी बढ़ी कि वह उसी रात अटैची लेकर पीहर चली गई। धीरे-धीरे रिष्तों में बर्फ जम गई। कानपुर मेरे मां-बाप ने उसे मनाने का प्रयास किया, ससुराल भी वहीं था, सास-श्वसुर ने मुझे समझाया पर हम अड़े रहे। ऐसी कम तैसी। दिन बीते, महीने समाप्त हुए एवं अब पूरा एक वर्ष भी गुजर गया।
बेड पर यही सोचते-सोचते मेरी खोपड़ी गरमा गई। यकायक मैं चौंका। घर के अन्य कार्य मेरे जहन में तैरने लगे। मैं पलंग से उठकर बाहर आया। मेरी नज़र डाइनिंग टेबल पर रखे पत्रों पर पड़ी। मैंने अनमने, असहज एक पत्र उठाया ,इसे खोला, खाली लिफाफा डस्टबिन में डाला एवं पत्र पढ़ने लगा। मैंने पढ़ना प्रारम्भ ही किया था कि मोबाइल बजा, बॉस का फोन था, मि. इस बार आपके टारगेट्स पूरे नहीं हुए हैं, अब मात्र बीस दिन बचे हैं, इन्हें पूरा करो वरना अंजाम आप खुद जानते हैं। यह कोढ़ में खाज जैसी बात थी। तनाव में भेजा घूम गया।
मैं डाइनिंग टेबल से कुर्सी खींचकर वहीं धंस गया। आज सुगंधा होती तो मन बांट लेता पर अब क्या, भुगतो। बीता समय लौटकर आता है भला! मैंने पुनः पत्र पढ़ना प्रारम्भ किया। पत्र टाइप किया हुआ था। ऊपर कानपुर एवं पांच दिन पहले की तारीख लगी थी, नीचे सुगंधा के हस्ताक्षर थे। मैं बल्लियों उछल पड़ा। मेरे लिए यह किसी महान आष्चर्य से कम न था। सुगंधा झुक सकती है यह मेरी कल्पना से परे था। घर के छोटे-छोटे युद्धों में जब भी ठन जाती, मैं ही पहलकर उसे मनाता था। अच्छा है पीहर में रहकर अक्ल तो आई। अब वहां का दम भरेगी तो दस बार सोचेगी। मेरे मन के अज्ञात कोने में कहीं विजय-दुदुंभी बजने लगी। मैंने इस बार मनोयोग से पत्र पढ़ना प्रारम्भ किया –
प्रिय !
आपसे अलग हुए अब एक वर्ष होने को आया। सच पूछो तो यह एक वर्ष मैंने पल-पल आपका इंतजार करते हुए बिताया है। अनेक बार तो मेरी नज़रें सड़क पर बिछ जाती कि तुम अब आए, अब आए पर तुम नहीं आए। कई बार तुम मेरे ख्वाबों में आते। ओह मनीष! तुम इतने कठोर कब से हो गये? कहां तुम एक पल भी मेरे बिना नहीं रह सकते थे, जीने-मरने की कसमें खाते थे और अब एक अरसा होने को आया। मुझे आश्चर्य है इस पूरे वर्ष में तुमने फोन तक नहीं किया। क्या मैं इतनी बुरी थी कि तुम मेरा हाल तक न जानते?
आज पूरे दिन आपकी याद आंखों में तैरती रही। बहुत देर स्वयं को संयत किया फिर लगा आपको पत्र लिखूँ, आखिर ऐसा जीवन कितने समय तक बिताया जा सकता है? कभी-कभी तो लगता जो अधिकार, स्वायत्तता पति के घर में है, वह पीहर में नहीं है। अनेक बार यह भी लगता कि अब मम्मी-पापा की आंखों में खटकने लगी हूं, हालांकि उन्होंने कहा कुछ भी नहीं पर उनकी बेबसी, मजबूरी मैं समझ सकती हूं। कल पड़ौस की आण्टी मम्मी को बता रही थी कि कॉलोनी के निवासी मुझे एवं आपको लेकर जाने क्या-क्या भ्रम पाले हैं। ऐसे वातावरण में मेरा दम घुटने लगा है।
तुम्हें नहीं लगता हमें इन सब बातों पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिए। माना मुझमें कुछ दोष हैं, आपको अधिकार भी था कहने का लेकिन क्या हर बात आंखें फाड़कर कहना आवष्यक है ? अगर मैंने आपको घर के अनुरूप जिम्मेदार बनने को कहा तो क्या गलत कहा? अनेक घर किसी न किसी सदस्य के गैर जिम्मेदारना व्यवहार से ही तबाह हुए हैं। फिर अपने ही तो अपनों को कहते हैं। प्रेम असंख्य अनकहे अधिकार आपकी झोली में डालता है। गृहस्थी में कुछ बचत भी चाहिये, तंगी में कौन संगी बनता है। पैसे की महत्ता तब पता चलती है जब पैसा नहीं रहता। तब कौड़ी-कौड़ी दांतों से चबाते हैं।
आप रात में अनेक बार बिना ऑफिस कार्य के अपनी सहकर्मी स्त्रियों से बातें करते थे, उनसें घण्टों चैट करते, यही मैं करती तो आप सह लेते? अगर आप ईमानदारी से हृदय पर हाथ रखकर सोचें तो मैंने यह दोष आपके एवं परिवार के हित के लिए ही बताए थे।
प्रिय ! अब हम और समय बरबाद नहीं करेंगे। मैं जानती हूं मैंने तुम्हें कितना मिस किया है। बस , पत्र मिलते ही मुझे लेने आ जाओ, मैं यहां अब एक पल भी नहीं रुकना चाहती।
तुम्हारी
सुगंधा
पत्र पढ़कर मैं भीतर तक भीग गया। आंखों में आंसू तैरने लगे। ओह सुगंधा ! यू आर सो ग्रेट। रह-रहकर उसका प्रेम, अहसास, सेवा याद आने लगे। उसने इतना कुछ दिया और तुमने क्षणभर में बिसरा दिया। इतना अहंकार! जिन मुद्दों पर बात बिगड़ी क्या वे दोष तुममें नहीं हैं? सोचते-सोचते लगा जैसे मुझसे कोई गंभीर अपराध हो गया है एवं मैं अपने ही चिन्तन के कटघरे में खड़ा चिल्ला रहा हूं। हां, यह दोष मुझमें हैं बस मैं सुधरना ही नहीं चाहता था। मैं एक ऐसे प्रमादवन में गुजर रहा था जहां आगे मात्र दुःखों का दावानल था।
मैं दूसरे ही दिन कानपुर के लिए रवाना हो गया। मेरा अचानक यूं ससुराल पहुंचना सबके लिए आश्चर्य था। हर्षातिरेक सुगंधा मुझे देखते ही रो पड़ी। उसकी गड्ढों में धंसी आंखें देखकर मैं भीतर तक कांप गया। मैं मेरी निष्ठुरता को धिक्कारने लगा। आंखों से धुंध छंट गई। मेरा खून सूखने लगा। ओह सुगंधा, मैने तुम्हें अकारण इतना कष्ट दिया। एक दिन रुककर मैं पुनः उदयपुर लौट आया।
डाइनिंग टेबल पर मैं फिर सुगंधा के साथ बैठा चाय पी रहा था। ओह! यह कैसा सुखभरा दिन था। लगा जैसे मन के बगीचे में असंख्य पक्षी एक साथ चहक उठे हांे। बातों ही बातों में सुगंधा ने मुस्कुराकर बात छेड़ी –
“यह एकाएक आपको बोध आया कैसे? अब पता चला बीवी के बिना घर कितना सूना होता है।’’
“ओह डार्लिंग! तुम्हारे पत्र ने मेरी आंखें खोल दी।’’ मैंने चाय का सिप लेते हुए उत्तर दिया।
“मैंने तो तुम्हें कोई पत्र लिखा ही नहीं।’’ उसकी आंखें आश्चर्य से लबालब थी।
“अब रहने दो। दिन अच्छे आए हैं तो उन्हें झूठे विनोद से मत बिगाड़ो।’’ उत्तर देते हुए मैंने पत्र लाकर उसके हाथ में थमाया।
उसने पत्र पढ़ा, भीतर ही भीतर मुस्कुराई एवं पत्र वहीं रख दिया। मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आंखों में भी वही आश्चर्य था जो मेरी आंखों में था।
तभी दरवाजे पर बेल बजी। घर के पड़ौस में रहने वाले भार्गव अंकल दरवाजे पर खड़े थे।
वे मुस्कुराते हुए भीतर आए, हमारे साथ चाय पी एवं जाते हुए धीरे से मेरी ओर देखकर बेाले, “यह पत्र मैंने लिखा था। पत्र पर झूठे दस्तखत भी मैंने ही बनाए थे। कोई पन्द्रह रोज पूर्व सुगंधा का पत्र आया, जिसमें अंकलजी, इनका ध्यान रखना आदि ऐसी ही कुछ बातें लिखी थी। मैं ताड़ गया। सुगंधा ने इस पत्र के बारे में तुम्हें कुछ भी नहीं कहने को लिखा था। उस दिन पत्र पढ़कर लगा सुगंधा तुम्हें कितना चाहती है। मैंने टेलीफोन पर बात कर उससे सारी विगत ली। मुझसे भला वह सच कैसे छुपाती। तुमसे भी मेरी जब-तब बात होती तो मैं तुम्हें उसे मिस करता हुआ देखता। तुम्हारी आंखें सदैव उसी को ढूंढती हुई-सी लगती।’’ कहते-कहते अंकल चुप हो गये।
हम दोनों आश्चर्यमुग्ध थे। उन्होंने अपनी सूझबूझ से हमारा घर पुनः बसा दिया। आज मुझे समझ आया कि बुजुर्ग अंधेरे घरों के रोशनदान होते हैं।
वे उठकर बाहर जाने लगे तो मुझे लगा आज अंकल नहीं, घर से कोई देवदूत लौट रहा था।
© श्री हरिप्रकाश राठी
दिनांक: 06/08/2019
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