सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”
( सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर. प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं में भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह “Sahyadri Echoes” सहित और कई संग्रहों में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद कहानी – आँख खुल गयी। )
आँख खुल गयी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”
पापा की पोस्टिंग रेलवे की नौकरी की वजह से बदलती रहती थी और हमारा स्कूल भी। जब तक हम दोनों भाई बहन छोटे थे तब तक कोई समस्या नहीं थी पर जैसे-जैसे हम बड़े होने लगे हमे स्कूल बदलने में परेशानी होने लगी। हर बार नयी जगह नया सिलेबस, नए अध्यापक, नए दोस्त। ये सब हमे चिड़चिड़ा करने लगा. मेरा तो स्कूल में रिजल्ट भी गिरने लगा। मम्मी और पापा इस से चिंता में आ गए। स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग के दौरान अध्यपक ने भी उनको स्कूल बार-बार चेंज नहीं करने की सलाह दी। आखिरकार ये तय हुआ की हम दिल्ली में ही रह कर अपनी पढ़ाई पूरी करेंगे और पापा अकेले ही अपनी पोस्टिंग के अनुसार अलग रहेंगे। पापा अपनी छुट्टियों के हिसाब से हमसे मिलने आया जाया करते थे। बढ़ती उम्र ने हमे आत्मनिर्भर बना दिया था और उसका मतलब हमारे लिए था “अपने फैसले खुद लेना और अपने हिसाब से ज़िंदगी जीना”। मम्मी भी ज्यादा रोक-टोक नहीं करती थी। पापा जब भी आते वो हमारी बेढंगी दिनचर्या नोटिस करते थे, पर कुछ बोलने पर मम्मी उन्हें ये कह कर चुप करा देती थी कि “बच्चे अब समझदार हो गए है नए ज़माने के है ज्यादा रोक-टोक अच्छी नहीं”।
उन्हें हमारी दिनचर्या बिलकुल पसंद नहीं आती थी वो पुराने ख्याल के जो थे और हमें उनका टोकना पसंद नहीं आता था। हम दोनों ही पक्ष “जनरेशन गैप” को कोस कर अपने-अपने विचार लिए आगे बढ़ जाते. शायद हमे धीरे-धीरे उनके बिना रहने की आदत होती जा रही थी। फिर वो वक़्त आया जब पापा की आखिरी पोस्टिंग दिल्ली में ही हो गयी। अब तो बस रोज़ की टोका-टाकी तय थी। छोटी मोटी चिक-चिक तो रोज़ की दिनचर्या हो गयी थी। एक दिन इसी बात को लेकर मैं और मेरी बहन बात कर रहे थे ” रोज़ की टोका-टोकी मुझे पसंद नहीं आती, आखिर हम भी बड़े हो गए है हमे भी सब समझता है। इस से तो पापा बाहर ही अच्छे थे कम से कम शान्ति तो थी ” तभी मेरी बहन का रंग उड़ा चेहरा देख कर मैं पीछे पलटा और देखा पापा और मम्मी ठीक मेरे पीछे खड़े थे। मेरा चेहरा शर्म से पीला पड़ गया। पापा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चले गए। मैं भी सर झुकाये अपने कमरे में चला गया। अब रोज़ पापा बिना कुछ कहे सीधे ऑफिस चले जाते और आने के बाद भी बात नहीं करते। उनकी खामोशी मुझे अच्छी नहीं लग रही थी, पर अब शान्ति देख मैं कही न कहीं चैन की सांस भी ले रहा था।
एक दिन अचानक मैं जब घर लौटा तो सभी टीवी चैनल पर न्यूज़ देख रहे थे, जिस पर कोरोना की वजह से बंद की खबर दिखाई जा रही थी। अब सबको बंद की वजह से घर में ही रहना पड़ रहा था. मुझे तो ये काला-पानी की सजा लग रही थी। रोज़ की खबरों ने दिमाग ख़राब कर रखा था और धीरे-धीरे ये डर में तब्दील होने लगा, जब अचानक मुझे एक दिन लगा की मुझे गले में खराश महसूस हो रही है और हल्का बुखार भी। मैं अंदर ही अंदर बहुत डर गया और मुझे रोना आ गया। मेरे रोने की आवाज़ सुनकर पापा जो की रात को पानी पीने रसोई में आये थे मेरे कमरे में आ गए। मुझे घबराया हुआ देख उन्होंने पूछा “क्या हुआ बेटा” उन शब्दों ने जैसे मेरे अंदर एक सुकून की लहर दौड़ा दी। पापा ने जब हाथ सर पर रखा तो मानो मुझे लगा कि मैं अब ठीक हूँ और कोई है जो मुझे संभाल लेगा। पापा ने टेम्प्रेचर चेक किया मुझे कोई बुखार नहीं था, रोज़ की खबर सुन-सुन कर मेरे दिमाग में वहम ने घर कर लिया था। पापा ने मुझे गरम दूध में हल्दी मिला कर पिलाया और सुला दिया। सुबह जब मेरी आँख खुली तो मैंने देखा पापा वहीँ कुर्सी पर ही सो गए। मुझे ये देख कर खुद पर बहुत शर्म आ रही थी।
मुझे समझ आ गया अपनों का साथ और बड़ो का हाथ हमारे सर पर कितना जरुरी होता है। उनकी हमारी बिगड़ी हुई दिनचर्या पर टोका-टाकी हमारे भले के लिए थी। जो दिनचर्या हम लॉकडाउन में मज़बूरी में निभा रहे थे वही तो पापा हमे हमेशा से समझाते थे , टाइम पे उठना , टाइम पे सोना , घर का खाना , जल्दी उठकर व्यायाम करना कुल मिला कर अपने पुराने तौर तरीको से स्वस्थ्पूर्ण। जीवन जीना, जो हमे बंदिश लगता था। पर अब इस बंद के दौर ने संयुक्त परिवार और हमारे देश के प्रति हमारे कर्तव्य और उनके महत्व को अच्छी तरह से समझा दिया था। अब हम सब वो चीज़ें करने लगे थे जो हमारी ही देश की धरोहर है, और हमे स्वस्थ और खुशहाल जीवन जीना सिखाती है।
आज हम मॉडर्न बनाने के चक्कर में अपनों से दूर हो रहे है, गलत दिनचर्या अपना रहे हैं ऊपर से खुश रहने के लिए अंदर से खोखले होते जा रहे है। ये हम सब के लिए आँखे खोलने का वक़्त है हमे अपनी संस्कृति चाहे वो संयुक्त परिवार में रहना हो या हमारी देसी दिनचर्या इन सब को अपनाना चाहिए। ये मूल-मन्त्र ही हमें हर समस्या से निकालने में मदद कर सकता है।
© सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान ”
पुणे, महाराष्ट्र
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Nice story…!!! Prefect for todays scenario…!!
Very rightly written about generation gap and importance of Elders in our life for guidance and support…!!
Thank you so much for kind words!
Kahani aaj ke haalat ko dekhte huye bahut achhi likhi huyi h. Isse hume prerna milti h ki hume apne sanskar aur sanskriti ko jeevit rakhna chahiye aur hume iss par garv h.
बहुत सुन्दर विचार ! बहुत आभार!?
Bahut hi man bhavan aur dil ko chhoo dene wali rachna. Jaisa shirshak waise hi bhaav dil me aaye.
Whatever we do for our parents is less in front of the sacrifices they have made for us in life.
Bahut bahut Aabhar Aapki haunsla afzayi la ?
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