श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #82 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’

योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’

रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।

भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments