श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रिक्शा।)

☆ लघुकथा – रिक्शा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

गिरधारी हर शाम जब रिक्शा चला कर घर लौटता तो रिक्शा को घर के सामने खड़ा करता, हाथ मुँह धोता और शराब के ठेके की तरफ़ चल पड़ता। आज भी वह घर से ठेके की ओर कुछ ही दूर चला था कि उसे याद आया – हाथ मुँह धोने के बाद उसने कुर्ता बदला था और पुराने कुर्ते से पैसे निकालना भूल गया था। पैसे लाने के लिए वह वापस लौटा तो देखा – रिक्शा की गद्दी पर सात वर्षीय बेटा विक्रांत – जिसे घर में विक्की बुलाते थे – बैठा था। बच्चों के लिए हर चीज़ कौतुक होती है – उसने सोचा। वह विक्की की तरफ़ देखकर मुस्कुराया और भीतर चला गया। कुर्ते से पैसे निकाल वह बाहर निकला तो गद्दी पर बैठे विक्की ने कहा, “आओ पापा, आज हम आपको रिक्शा की सवारी कराते हैं।”

“तू नहीं चला पाएगा बेटा, यह इतना आसान नहीं है।”

“आप बैठो तो सही।” हँसता हुआ गिरधारी सीट पर जा बैठा। विक्की ने रिक्शा खींचना शुरू किया तो गिरधारी हैरान रह गया। विक्की ऐसे रिक्शा चला रहा था जैसे जन्मों से रिक्शा ही चलाता आ रहा हो। उसने पूछा, “तूने रिक्शा चलाना कब सीखा?”

“जब आप ठेके पर जाते हो तब। सही चलाता हूँ न!”

“बहुत बढ़िया।” गिरधारी के होठों से जब ये शब्द निकले, ठीक उसी वक्त दहशत में डूबा दिल चीखा – तुम्हारे बेटे का भविष्य भी तय हो गया गिरधारी…! गिरधारी जैसे किसी समुद्र में डूबता जा रहा था।

“आया मज़ा?” समुद्र में डूब रहे गिरधारी के अचेतन ने सुना तो उसकी आँखें खुलीं। उसने देखा – रिक्शा ठेके के सामने खड़ा था और बेटा पूछ रहा था – आया मज़ा?

“हूँ… हँ…!” इतना भर बोलते हुए गिरधारी की जैसे सारी ताक़त निचुड़ गई।

“जाओ पापा, अपना काम कर आओ, फिर आपको वापस ले चलूँगा।” विक्की की यह बात सुन बौराया-सा गिरधारी कुछ क़दम ठेके की तरफ़ चला, फिर लौट आया। आते ही विक्की से बोला, “चल तू पीछे बैठ, मैं चलाता हूँ।”

“आप अपना काम तो कर लो पापा! पीने के बाद आपसे नहीं चलेगा, मैं ही चलाऊँगा।”

विक्की की बाजू पकड़ उसे गद्दी से खींचता गिरधारी बोला, “चुपचाप बैठ पीछे, अब से न मैं कभी इधर आऊँगा और न तू रिक्शा चलायेगा।”

अब विक्की सीट पर बैठा था और गिरधारी रिक्शा चला रहा था। सूरज कब का अस्त हो चुका था, पर अँधेरा कहीं नहीं था। गिरधारी कुछ गुनगुना रहा था। अचानक उसकी गुनगुनाहट में व्यवधान पड़ा। विक्की कुछ कह रहा था। उसने सुना- पापा, आपके रिक्शा पर पहले भी कई बार बैठा हूँ, पर आज जैसा मज़ा कभी नहीं आया।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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