श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #106  🌻 लक्ष्मी नारायण और स्वर्ग 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

लक्ष्मी नारायण बहुत भोला लड़का था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताल, गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी।

एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मी नारायण स्वर्ग देखने के लिये हठ करने लगा। दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किन्तु लक्ष्मीनारायण रोने लगा। रोते- रोते ही वह सो गया।

उसे स्वप्न में दिखायी पड़ा कि एक चम-चम चमकते देवता उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं- बच्चे ! स्वर्ग देखने के लिये मूल्य देना पड़ता है। तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न? स्वर्ग देखने के लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे।

स्वप्न में लक्ष्मीनारायण सोचने लगा कि मैं दादी से रुपये माँगूँगा। लेकिन देवता ने कहा- स्वर्ग में तुम्हारे रुपये नहीं चलते। यहाँ तो भलाई और पुण्य कर्मों का रुपया चलता है।

अच्छा, काम करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से उड़ जायगा। जब यह डिबिया भर जायगी, तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।

जब लक्ष्मीनारायण की नींद टूटी तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन उसकी दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला।

एक रोगी भिखारी उससे पैसा माँगने लगा। लक्ष्मीनारायण भिखारी को बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था, इतने में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक उदार लड़कों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायण ने भिखारी को पैसा दे दिया। अध्यापक ने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की।

घर लौटकर लक्ष्मीनारायण ने वह डिबिया खोली, किन्तु वह खाली पड़ी थी। इस बात से लक्ष्मी नारायण को बहुत दुःख हुआ। वह रोते- रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और बोले- तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिये पैसा दिया था, सो प्रशंसा मिल गयी।

अब रोते क्यों हो ? किसी लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है, वह तो व्यापार है, वह पुण्य थोड़े ही है। दूसरे दिन लक्ष्मीनारायण को उसकी दादी ने दो आने पैसे दिये। पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे।

उसका साथी मोतीलाल बीमार था। बाजार से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने उसके घर चला गया। मोतीलाल को देखने उसके घर वैद्य आये थे। वैद्य जी ने दवा देकर मोती लाल की माता से कहा- इसे आज संतरे का रस देना।

मोतीलाल की माता बहुत गरीब थी। वह रोने लगी और बोली- ‘मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ। इस समय बेटे की बीमारी में कई दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिये एक भी पैसा नहीं है।’

लक्ष्मीनारायण ने अपने दोनों संतरे मोतीलाल की माँ को दिये। वह लक्ष्मीनारायण को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब लक्ष्मीनारायण ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।

एक दिन लक्ष्मीनारायण खेल में लगा था। उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनों को उठाने लगी। लक्ष्मीनारायण ने उसे रोका। जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया।

बेचारी लड़की रोने लगी। इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं। अब उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने आगे कोई बुरा काम न करने का पक्का निश्चय कर लिया।

मनुष्य जैसे काम करता है, वैसा उसका स्वभाव हो जाता है। जो बुरे काम करता है, उसका स्वभाव बुरा हो जाता है। उसे फिर बुरा काम करने में ही आनन्द आता है। जो अच्छा काम करता है, उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है। उसे बुरा काम करने की बात भी बुरी लगती है।

लक्ष्मीनारायण पहले रुपये के लोभ से अच्छा काम करता था। धीरे- धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया। अच्छा काम करते- करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गयी। स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न होता, उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुँचा।

लक्ष्मीनारायण ने देखा कि बगीचे में पेड़ के नीचे बैठा हुआ एक बूढ़ा साधु रो रहा है। वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और बोला- बाबा ! आप क्यों रो रहे है? साधु बोला- बेटा जैसी डिबिया तुम्हारे हाथ में है, वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था।

बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से स्वर्ग देखूँगा, किन्तु आज गंगा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी में गिर गयी। लक्ष्मी नारायण ने कहा- बाबा ! आप रोओ मत। मेरी डिबिया भी भरी हुई है। आप इसे ले लो।

साधु बोला- तुमने इसे बड़े परिश्रम से भरा है, इसे देने से तुम्हें दुःख होगा। लक्ष्मी नारायण ने कहा- मुझे दुःख नहीं होगा बाबा ! मैं तो लड़का हूँ। मुझे तो अभी बहुत दिन जीना है। मैं तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हुँ। आप बूढ़े हो गये हैं। आप मेरी डिबिया ले लीजिये।

साधु ने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायण के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। लक्ष्मीनारायण के नेत्र बंद हो गये। उसे स्वर्ग दिखायी पड़ने लगा। ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादी ने जो स्वर्ग का वर्णन किया था, वह वर्णन तो स्वर्ग के एक कोने का भी ठीक वर्णन नहीं था।

जब लक्ष्मीनारायण ने नेत्र खोले तो साधु के बदले स्वप्न में दिखायी पड़ने वाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। देवता ने कहा- बेटा ! जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनका घर स्वर्ग बन जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अन्त में स्वर्ग में पहुँच जाओगे।’ देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments