डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

आप इस कथा का मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद निम्न लिंक्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं। 

मराठी भावानुवाद 👉 ढासळत चाललय काळीज सौ. उज्ज्वला केळकर 

अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद 👉 Broken Heart Translated by – Mrs. Rajni Mishra

☆ कथा कहानी – टूक-टूक कलेजा ☆ डॉ. हंसा दीप 

सामान का आखिरी कनस्तर ट्रक में जा चुका था। बच्चों को अपने सामान से भरे ट्रक के साथ निकलने की जल्दी थी। वे अपनी गाड़ी में बैठकर, बगैर हाथ हिलाए चले गए थे और मैं वहीं कुछ पलों तक खाली सड़क को ताकती, हाथ हिलाती खड़ी रह गयी थी। जब इस बात का अहसास हुआ तो झेंपकर इधर-उधर देखने लगी कि मेरी इस हरकत को कहीं कोई पड़ोसी देख तो नहीं रहा!

खिसियाते हुए घर में कदम रखा तो उसी खामोशी ने मुझे झिंझोड़ दिया जिसे अपने पुराने वाले घर को छोड़ते हुए मैंने अपने भीतर कैद की थी। उन पलों को महसूस करने लगी जब अपने उस लाड़ले घर को छोड़कर मैं इस नए घर में आयी थी। उसी घर को, जिसमें मैंने अपने जीवन के सबसे अच्छे बारह साल व्यतीत किए थे। माँ कहा करती थीं- “बारह साल बाद तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं।” न जाने किसके दिन फिरे थे, मेरे या घर के! मेरे दिन तो उस घर में बहुत अच्छे थे। शायद इसीलिए मैं नयी जगह आ गयी थी ताकि उस घर के दिन फिर जाएँ! जो भी नया परिवार उसमें रहने के लिए आए वह उसे मुझसे अधिक समझे!

यह बात और थी कि मैंने उस घर की सार-सँभाल में अपनी जान फूँक दी थी। मन से सजाया-सँवारा था। कमरों की हर दीवार पर मेरे हाथों की चित्रकारी थी। हर बल्ब और फानूस की रौशनी मेरी आँखों ने पसंद की थी। मेरी कुर्सी, मेरी मेज और मेरा पलंग, ये सब मिलकर किसी पाँच सितारा होटल का अहसास देते थे। मैंने उस आशियाने पर बहुत प्यार लुटाया था और बदले में उसने भी मुझे बहुत कुछ दिया था। वहाँ रहते हुए मैंने नाम, पैसा और शोहरत सब कुछ कमाया। इतना सब कुछ पाने के बावजूद अचानक ऐसा क्या हुआ कि मैंने उसे छोड़ने का फैसला कर लिया! शायद मेरे परिवार के खयालों की दौड़ उसे पिछड़ा मानने लगी थी। हालाँकि उसका दिल बहुत बड़ा था, इतना बड़ा कि हम सब उसमें समा जाते थे। एक-एक करके जरूरतों की सूची बड़ी होती गयी और घर की दीवारें छोटी होती गयीं। सब कुछ बहुत ‘छोटा’ लगने लगा। इतना छोटा कि उस घर के लिए मेरी असीम चाहत, मेरे अपने दिलो-दिमाग से रेत की तरह फिसलती चली गयी।  

याद है मुझे, जब हम उस घर में आए थे तो मैं चहक-चहककर घर आए मेहमानों को उसकी खास बातें बताती थी- “देखो, यहाँ से सीएन टावर दिखाई देता है; और पतझड़ के मौसम की अनोखी छटा का तो कहना ही क्या! रंग-बिरंगे पत्तों से लदे, पेड़ों के झुरमुट, यहाँ से सुंदरतम दिखाई देते हैं। यहाँ का सूर्योदय किसी भी हिल स्टेशन को मात देने में सक्षम है। सिंदूरी बादलों से निकलता सूरज जब सामने, काँच की अट्टालिकाओं पर पड़कर परावर्तित होता है तो ये सारी इमारतें सोनेरी हो जाती हैं, सोने-सी जगमगातीं।”

बेचारे मेहमान! उन्हें जरूर लगता रहा होगा कि मैं किसी गाइड की तरह उन्हें अपना म्यूजियम दिखा रही हूँ। सच कहूँ तो वह छोटा-सा घर मेरे जीवन की यादों का संग्रहालय ही बन गया था। सबसे प्यारा और सबसे आरामदायक घर जिसने मेरी तमाम ऊर्जा को मेरे लेखन में जगह देने में कोताही नहीं बरती। सामने दिखाई देती झिलमिल रौशनियों के सैलाब में खोकर मैंने कई कहानियाँ लिखीं, उपन्यास लिखे। कई कक्षाएँ पढ़ायीं। कोविड में भी मुझे यहाँ से दिखाई देता, रौशनी से नहाता यह शहर कभी उदास नहीं लगा।

देखते ही देखते मैं उस घर की हर ईंट, हर तकलीफ से वाकिफ हो चुकी थी। कभी कोई चीज़ टूटकर नीचे बिखरे उसके पहले ही उस पर मेरी तेज़ नजर पड़ जाती और मैं उसकी मरम्मत करवा देती। वह भी शायद मेरी थकान समझ लेता था। उस समय कहीं से गंदा नजर न आता और मैं संतोष की साँस लेकर अच्छे से आराम कर लेती। हम एक दूसरे से इस कदर परिचित थे! फिर भी, मैं उसे छोड़कर यहाँ नए, बड़े घर में आ गयी थी। सवेरे उठकर दुनिया देखने का मेरा वह जज़्बा इस नए मकान में कहीं दबकर रह गया था। यह है बहुत बड़ा, लेकिन जमीन पर, उस छोटे मकान की तरह सीना ताने ऊँचाई पर नहीं खड़ा है। छोटे लेकिन बड़े दिल वाले लोग मुझे हमेशा अच्छे लगे हैं। यही तो उस घर की खास बात थी, उसका दिल।

हर सुबह उस उगते सूरज की लालिमा को निहारते हुए, मुट्ठी में जकड़कर अपने भीतर तक कैद किया है मैंने। उसकी नस-नस को जब मैं शब्दों में चित्रित करती तो घर वाले कहते- “तुम ईंटों से प्यार करती हो जो बेजान हैं। फर्श से बात करती हो जो खामोश है।” लेकिन सच कहूँ तो मैंने उन सबको सुना है। घर का ज़र्रा-ज़र्रा मेरे हाथों का स्पर्श पहचानता था। जब-जब झाड़-पोंछकर साफ करती, तब-तब ऐसा लगता था जैसे वह घर हँसकर, बोलने लगा है।

उसी घर को छोड़ते हुए, अपने सामान को ठीक से ट्रक पर चढ़ाने की चिंता में मैं इतनी व्यस्त थी कि ठीक से अलविदा भी नहीं कह पाई थी। अपने उसी घर की चाबी किसी और को पकड़ाते हुए मेरा मन जरा भी नहीं पसीजा था बल्कि स्वयं को बहुत हल्का महसूस किया था मैंने, मानो किसी कैद से मुक्ति मिल गयी हो। उस घर से चुप्पी साधे निकल गयी थी मैं। घर उदास था, मुझे जाते हुए देख रहा था। इस उम्मीद में कि मैं उसे छोड़ते हुए आँखों को गीला होने से रोक नहीं पाऊँगी, पर उस समय मुझे ताला बंद करने, पेपर वर्क करने और ऐसी ही कई सारी चिंताओं ने घेर रखा था। मैं अपनी नयी मंजिल की ओर बढ़ते हुए, उस आपाधापी में सब कुछ भूल गयी थी। मेरी सारी भावनाएँ इन दीवारों में समा गयी थीं। मुझे इस तरह जाता देख उन पर उदासी छा गयी थी। घर का हर कोना मेरा ध्यान खींचने की पुरजोर कोशिश कर रहा था जिसे मैंने कभी फूलों से, कभी फॉल के रंग-बिरंगे शो पीस से सजाया था। बाहर कदम रखते ही मेरे हाथ में सीमेंट की एक परत गिरकर आ गयी थी। मैं उस आलिंगन को समझ नहीं पाई थी और यह सोचा कि “अच्छा ही हुआ यहाँ से निकल लिए, इस घर के अस्थिपंजर ढीले हो रहे हैं। पुरानी तकनीक, आउट डेटेड।” मैंने उस परत को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया और तेजी से ट्रक के साथ निकल गयी थी। 

आज जब बच्चों की तटस्थ आँखें, मेरी आँखों की गीली तहों से कुछ कहे बगैर ओझल हो गयीं तो मुझे लग रहा है कि मेरा अपना शरीर सीमेंट जैसा मजबूत और ईंटों जैसा पक्का हो गया है। भट्टी की आँच में पकी वे ईंटें जो सारा बोझ अपने कंधों पर लेकर भी ताउम्र खामोश रहती हैं। मेरा हर अंग उस खामोशी में जकड़-सा गया है। दिनभर चहकते, मेरे अगल-बगल मंडराते बच्चे, जरूरत पड़ने पर मुझमें पिता को पा लेते और माँ तो हर साँस के स्पंदन में उनके साथ ही होती। आज बच्चों का यह रूप अपने उन नन्हे बच्चों से अलग था जब वे स्कूल जाते हुए ममा को छोड़ने की तकलीफ अपनी आँखों से जता देते थे। बार-बार मुड़कर हाथ हिलाते रहते थे। मेरी हर मनोदशा को मुझसे पहले पहचान लेते थे। कुछ पढ़ने बैठती और चश्मा न मिलता तो तुरंत मेरे हाथ में लाकर थमा देते। आज उन्हीं दोनों बच्चों ने अपने अलग घरों में जाते हुए ममा को पलट कर देखा तक नहीं था।

मैंने बच्चों की सुविधा के लिए उस घर को छोड़ा था। अब बच्चों ने अपनी सुविधा के लिए मुझे छोड़ दिया। अचानक इतना ‘बड़ा’ घर भी ‘छोटा’ पड़ने लगा या फिर शायद मैं ही छोटी हो गयी थी और बच्चों का कद बड़ा हो चला था। घर की अतिरिक्त चाबियाँ मुझे थमाकर बच्चों ने जैसे मुक्ति पा ली थी। पुरानेपन और छोटेपन से मुक्ति का अहसास! शायद मुझे छोड़ते हुए उन्हें भी उतनी ही जल्दी रही होगी। मेरा अस्तित्व उनके लिए उस मकान की तरह ही फौलादी था, भाव प्रूफ। उन्हें मेरे अस्थिपंजर ढीले होते दिख गए होंगे।

सूखे आँसुओं की चुभन से परे मेरा शरीर मुझे पहले से कहीं अधिक मजबूत लगा। पक्की दीवारों से बना हुआ, मुझे किसी भी भावुकता के मौसम से मुक्त रखता हुआ। सीमेंट और कंक्रीट इस या उस मकान में नहीं, मेरे हाड़-माँस के भीतर कहीं गहरे तक समा गये हैं। अपने बच्चों के लिए मैं भी एक मकान से ज्यादा कुछ नहीं हूँ। ये खामोश दीवारें चीख-चीखकर मेरे अपने ही शब्द दोहरा रही हैं, “पुरानी तकनीक, आउट डेटेड।” मैंने भी इस सच को स्वीकार कर लिया है कि नयी तकनीक में घर बोलते हैं, इंसान नहीं।

कान जरूर कुछ सुन रहे हैं, शायद नया घर ठहाके लगा रहा है या फिर इसमें पुराने घर की आवाज का अट्टहास शामिल है। बरस-दर-बरस, ममतामयी पलस्तर की परतों से ढँका मेरा कलेजा टूक-टूक हो गया था, जड़वत।

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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MAHENDRA Narayan SHEJAV

सुखद ! पढ़कर अपने आप को इस से जुड़ा होने का अहसास हुआ है।