हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-३ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-३ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(श्रमिकों की खस्ता हालत और श्रमिक नेताओं द्वारा किया जाने वाला उनका शोषण.. इसी विषय पर जयंत बाते करता था। सभा, संमेलन, चर्चाऍं, मोर्चा, इसमें वह रात -दिन की, गर्मी की, भूख- प्यास की परवाह न करते हुए जाता रहा )…. अब आगे

 एक दिन शाम के वक्त घर के सामने टॅक्सी रुकी। चार-पाच लोग जयंत को उठा के घर ले आए। उसका चेहरा सफेद, तेज विहीन दिख रहा था किसी ने बताया वह चक्कर खाके गिर गया था।

 फिर हॉस्पिटल… यूरिन, ब्लड, स्टूलटेस्ट, सलाइन, एक्सरे, कार्डियोग्राम सिलसिला शुरू हो गया।

 बेड रेस्ट लेने की डॉक्टर की सलाह के बावजूद उसको घर से निकलने से नहीं रोकना यह मेरा डॉक्टर के हिसाब से अपराध था। डॉक्टर ने सारा गुस्सा मुझ पर उतारा। जयंत डॉक्टर से बहसबाजी करता रहा। उसका आत्मविश्वास, जीने की इच्छा बहुत अपार थी। पर उसकी हेल्थ कंडीशन बद से बदतर होती जा रही थी। उसके हित चिंतक, मिलने आते थे। स्नेही-साथी रात दिन उसकी सेवा कर रहे थे। सांसद, विधायककों के संदेश आते थे। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? उसे हेपेटायटिस बी ने पकड़ लिया था, यह रिपोर्ट बता रहे थे। स्पेशलिस्ट का कहना यही था कि पहले बीमारी में उसको खून चढ़ाया गया था तब कुछ ॳॅफेक्टेड खून उसके शरीर में चला गया था। वह दिन प्रतिदिन ज्यादा ज्यादा कमजोर होने लगा। ज्यादा बोलने से भी वह थक जाता था। आखिर आखिर में वह मेरी तरफ सिर्फ देखता रहता था। हाथ हाथ में लेकर कहता, ” मैंने तुम पर बहुत अन्याय किया है। .. मेरे जाने के बाद तुम फिर शादी कर लेना। मैं कहती, “ऐसी बातें मन में भी मत लाना, मैं तुमको दोष नहीं दे रही हूॅं। मेरा उसको प्यार से समझाना कि तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगे… यह तसल्ली झूठी है, यह बात मैं भी जानती थी.. और वह भी ! ‌बीमारी बढ़ गई और मेरा अभागन का साथ छोड़कर वह भगवान को प्यारा हो गया। आखिर सब खत्म हो गया उसका और मेरा रिश्ता, ऋणानुबंध …सब कुछ !

अब इसका भवितव्य क्या? मेरे मायके वाले… ससुराल वाले …स्नेही संबंधी… सबके मन में एक ही सवाल था। जयंत के दफ्तर में ही मुझे नौकरी मिल गई। एक महत्वपूर्ण समस्या का अस्थाई रूप से हल निकला। जाने वाला तो चला गया, पीछे रह गये लोगों की जिंदगी थोड़े ही रुक जाती है। काल प्रवाह के साथ उनको आगे बढ़ना ही होता है, ….जैसा भी बन पड़ेगा…। मम्मी दुखी थी, परेशान थी। एक बात उसके दिमाग से उतर ही नहीं रही थी। कहती थी, “उसने हमें धोखा दिया, जरूर उसको कोई बड़ी बीमारी थी। तभी तो दहेज भी नहीं लिया उसने!….वही पुरानी टेप !लेकिन मुझे तभी भी वैसा नहीं लगा था और अभी भी नहीं लगता है। वह सीधे सरल मन का था। कोई दांवपेच, छक्के-

पंजे, छल कपट उसके पास थे ही नहीं। …..यह तो मेरी ही बदकिस्मती और क्या? इतना सुंदर, आकर्षक पति मिला, और पूरी पहचान होने से पहले ही वह दूर चला गया। फिर कभी वापस न लौटने के लिए। सह- जीवन के कितने सुंदर सपने मैंने देखे थे। जीवन भर के लिए नहीं कम से कम थोड़े पल के लिए ही सही… पर उतना भी उसका साथ नहीं मिला।

फिर तीन साल बाद मेरी प्रभाकर जी से शादी हुई। प्रभाकर बहुत नामांकित रिसर्च सेंटर में रिसर्च ऑफिसर थे। जयंत से भी सुंदर, अच्छी खासी तनख्वाह पाने वाले, खुद की बड़ी कोठी…. आगे पीछे बाग बगीचा ! मेरे भाई के दोस्त उनको जानते थे। उन्होंने ही पहल करके शादी की बात छेडी और मेरी शादी हो गई। मेरी यह दूसरी शादी, लेकिन उनकी पहली ही थी। आजकल के हिसाब से मेरेसे उनकी उम्र थोड़ी ज्यादा थी। उनके रुप में मुझे एक दोस्त नहीं एक धीर गंभीर प्रवृत्ति का पति मिला। शादी न करने का उनका इरादा था। लेकिन ऊपर वाले ने स्वर्ग में ही हमारा जोड़ा बनाया था ना तो वैसे ही हुआ। मेरे पहले ससुराल वालों ने भी समझदारी दिखाई, ” इसमें कुछ भी गलत नहीं है। बेचारी अकेली कब तक रहेगी? वैसे भी जयंत की आखिरी इच्छा यही थी। उसकी आत्मा को शांति मिलेगी!” उन्होंने कहा। आत्मा का शरीर में अस्तित्व होना… उसका शरीर से निकल जाना…. यह बातें सच्ची होती है क्या? अगर होती है, तो मुझे यकीन है कि मेरी आज की हालत देख कर उसकीआत्मा जरूर दुखी हुई होगी।

मेरी शादी के साथ ही मेरे ससुराल वाले, पीहर वाले, सब ने राहत महसूस की। मेरे मम्मी पापा, भाई-बहन सारे तो मेरे अपने, अंतरंग के लोग, लेकिन जिंदगी भर का साथ कौन किसको देता है? ससुराल में जेठ, जेठानी ननद इनसे मेरा ज्यादा परिचय भी नहीं हुआ था। बाकी बचे रिश्तेदारों ने शायद मेरे भाग्य पर अचरज किया होगा। किसी -किसी को जलन भी हुई होगी। ” देखो पहले से भी अच्छा घर बार, ज्यादा सुंदर दुल्हा, कहीं पर भी समझौता नहीं करना पड़ा। लोगों की नजर में तो सब कुछ बहुत ही सुंदर, मनलुभावन था।

प्रभाकर नाक की सीध में चलने वाले आदमी। आराम से जो मिल रहा है वह लेने वाले या कभी-कभी ना लेने वाले! मितभाषी, घून्ने, खुद में ही मस्त, थोड़े से रिजर्व नेचर के। बेशक ये सब मुझे शादी के बाद धीरे-धीरे ज्ञात हुआ। शुरू शुरू में यह सब अच्छा भी लगा।

मानो हम दोनों सागर में पास पास रहने वाले दो अलग-अलग द्वीपखंड है। एक द्विप के आसमान में पूरा वनस्पति शास्त्र भरा पड़ा हैं। दूसरे द्विप के आसमान में बस, जयंत की यादें ही यादें हैं। कभी कभार दो द्वीप- खंड अनजाने में ही, पानी के बहुत तेज प्रवाह से पास आते हैं। एक दूसरे को टकराते हैं। ओवरलैप भी करते हैं, फिर पानी का प्रवाह के संथ होते ही अपनी जगह पर स्थिर हो जाते हैं।

शुरू में सब बहुत ही अजीब लगा। …बाद में ठीक लगने लगा। क्योंकि जयंत की यादों में बने रहने की आजादी मुझे मिल रही थी। लगता था प्रभाकर के इस घर में भी जयंत ही मुझे साथ दे रहा है। कभी-कभी नहीं, बहुत बार मन दुखी भी हो जाता हैं। लगता हैं यह प्रभाकर को धोखा देने वाली बात है। शादी तो उनसे की, पर पूरे मन से मैं पत्नी धर्म का पालन नहीं कर रही हूॅं। यह बहुत बड़ी प्रतारणा है। पाप है। लेकिन मैं बेबस हूॅं। प्रभाकर अच्छे वैज्ञानिक, अच्छे संशोधक जरूर है, पर अच्छे पति, अच्छे जीवन साथी बिल्कुल नहीं बन पाए।

फिर दो साल बाद गौरी का जन्म हुआ। यह भी लगता है शायद सागर में दो द्वीप आपस में टकराने से यह दुर्घटना घटी होगी। लेकिन बेटी को पाके इधर-उधर भटकने वाले मेरे मन को बहुत शांति मिली। मानो गौरी हमारे दोनों द्वीप को जोड़ने वाला पुल थी। गौरी की देखभाल, परवरिश करते हुए मैं उसमें इस कदर व्यस्त हो गई कि धीरे-धीरे मन में बसी जयंत की छवि भी धुंधली हो गयी।

तभी अचानक भैया जी और भाभी वापस आ गए। हमारे शादी के वक्त वे लोग कनाडा में अपने बेटे के पास गए थे। फिर लंदन वाली बेटी के घर। इधर-उधर करते करते अब तीन साल बाद फिर भारत वापस आए थे। मुझे मिलने के लिए वे मेरे दफ्तर आ पहुॅंचे। वैसे भैया जी के बेटे का एड्रेस मेरे पास था, लेकिन भैया जी को शादी की खबर देनी चाहिए यह बात मुझे उस वक्त सुझी ही नहीं… पता नहीं क्यों?

…जब भैया जी, भाभी जी हमारे घर पर आए, मन ही मन मैं बहुत सकुचाई थी। लेकिन दोनों ने बताया, पहले से हम तुम्हें बहू मानते आए हैं, और अब भी तुम हमारी बहू ही हो, और प्रभाकर हमारा बेटा है। हम लोगों का एक दूसरे के घर आना जाना पहले जैसा ही रहना चाहिए। “ऑफ कोर्स आप लोगों की इच्छा नहीं हो तो फिर”….भैया जी बहुत भावुक हो गए थे। उनकी ममता उनके स्वर में छलक रही थी।

वे दोनों, …कभी-कभी अकेले भैया जी…आते जाते रहे। बीच-बीच में कभी-कभार हम भी उनके घर जाते। भैया जी के लिए प्रभाकर सर, प्रभाकर जी, सिर्फ प्रभाकर कब बने पता ही नहीं चला। हमेशा से मितभाषी, आत्ममग्न रहने वाला यह इंसान उनके साथ खुलकर बातें कैसे करता है? …यह अद्भुत पहेली मेरे समझ से परे है। अब सब कुछ अच्छा ही चल रहा है। घर का बदला हुआ माहौल भी प्यारा है। फिर भी मैं बेचैन हो जाती हूॅं। भैया जी के आते ही जयंत बहुत याद आता है। मन के किसी सिकूडे कोने में दुबक कर यादों में पड़ा जयंत दुबारा से स्पष्ट हो जाता है। नायक की भूमिका में मेरे सामने खड़ा हो जाता है। धीरे-धीरे मेरे मन पर छा जाता है। मेरा मन अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। उसका घना साया मन को बेचैन करता रहता है। ….और यह बेचैनी मैं किसी के सामने व्यक्त भी नहीं कर सकती।

 – समाप्त – 

मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈