हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दोरंगी लेन ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ कथा कहानी ☆ दोरंगी लेन ☆ डॉ. हंसा दीप 

फोन पर उसकी आवाज से लगा था कि वह एक उम्रदराज महिला होगी। अपना सामान लेकर कार से जब मैं वहाँ पहुँची तो मेरा अनुमान सही निकला। मुझे देखते ही बोली– ओरा?

मैंने “हाँ” कहते हुए सिर झुकाया। मेरा प्रतिप्रश्न था- एंजिला?

उसने हामी भरी। ध्यान से देखने पर लगा कि उसकी उम्र साठ से पैंसठ के बीच होगी। वह एक श्वेत महिला थी। बाल करीने से सेट किए हुए थे। सारे बाल सफेद होते हुए भी मुँह पर तेज था। कपड़े महंगे व अच्छे थे। चेहरा तटस्थ था। न जाने क्यों उसकी मुस्कान मुझे सहज नहीं लगी। एक थोपी हुई मुस्कान से स्वागत किया उसने। ऐसे, जैसे कि उसे आते-जाते किराएदारों से बात करने की आदत हो। पहले भी कई छात्र यहाँ रह कर गए होंगे। वेस्टर्न यूनिवर्सिटी पास होने से इस छोटे-से कस्बे ‘फरगस’ में मेडिसिन के छात्रों का आना-जाना लगा रहता होगा।

अंदर आकर एक नजर डाली। घर पुराना था। फर्नीचर, तस्वीरें, सजावट के तौर-तरीके, हर एक चीज से, उनके आकार-प्रकार से एंटिक सामान की अनुभूति हो रही थी। सुसज्जित कमरे ऐसे थे मानो किसी भी एक चीज को हटा दें तो खालीपन उभर कर सामने आ जाएगा। शायद एंजिला के तटस्थ चेहरे की तरह इनका भी अपना एक अतीत होगा, जो गाहे-बगाहे अपनी आपबीती सुनाकर एक दूसरे का मन बहला देता होगा। वह मुझे अपना कमरा दिखाने नीचे ले गयी।

हाथ में चाबी पकड़ाते बोली- “कुछ भी चाहिए तो मुझसे कहना।”

वह चली गयी। चाबी लेते हुए मैंने करीब से देखा उसे। गिनी-चुनी झुर्रियों को छोड़ दें तो चेहरा सौम्य लेकिन भाव रहित था। मैंने अपने कमरे में नज़र दौड़ायी। वहाँ एक साफ चादर-तकिए के साथ पलंग था, टेबल थी, छोटा-सा फ्रिज़, स्टोव व किचन काउंटर था। साथ ही लगा हुआ स्नानघर और शौचालय भी था। यानी एक छात्र के रहने लायक समुचित सुविधाएँ थीं। मैं अपने आप में सहमी हुई थी। घर की हर चीज मानों मुझे मेरे रंग का अहसास करा रही थी। फिर चाहे वे पलंग पर बिछे सफेद चादर-तकिए हों या फिर बाथरूम में टंगे सफेद टॉवेल हों। किचन के सफेद केबिनेट हों या सफेद छत हो। अश्वेत को घर में जगह देना श्वेत लोगों के लिए आसान नहीं होता होगा।

खैर, पहला दिन था। एंजिला से पहली मुलाकात थी। जगह अच्छी लग रही थी। अपनी इंटर्नशिप के लिए मुझे कुछ महीने इस गाँव में रुकना था। मेरा अपने काम पर आना-जाना शुरू हुआ तो उससे आमना-सामना होने लगा। गुड मॉर्निंग, गुड नाइट के अलावा पिछले तीन दिनों में कोई बात नहीं हुई, न ही उसके चेहरे में कोई अंतर नजर आया। एक खामोशी ओढ़े आवाज निकलती और हवा में खो जाती। चाहे शुभप्रभात का ताजा अभिवादन हो या शुभरात्रि का अलसाया हुआ, एंजिला के चेहरे को पढ़ना बहुत मुश्किल था। धीरे-धीरे यह भी मेरे व्यस्त समय का एक हिस्सा बन गया। यंत्रवत लौटकर कमरे में चली जाती और अगले दिन सुबह तैयार होकर अपने काम पर।

एक महीना हो चला था। अब कुछ मित्र थे जिनके साथ समय कटता। एक दिन काम के बाद हमने फिल्म देखने जाने की योजना बना ली। स्वाभाविक ही एंजिला को सूचित करने की कोई जरूरत नहीं समझी। रोज के नियमित समय से तकरीबन ढाई घंटे लेट घर पहुँची तो अंधेरा गहरा गया था। उसे बाहर बेचैनी से घूमते पाया। मुखमुद्रा बदली हुई थी। चिंता की रेखाएँ कुछ झुर्रियों को पारदर्शी कर रही थीं।

मैंने पूछा- “कहीं आप मेरा इंतजार तो नहीं कर रही थीं?”

“नहीं।” कहकर वह तेज कदमों से भीतर चली गयी।

मुझे अच्छा नहीं लगा। शायद वह मेरे आने का इंतजार ही कर रही थी। यूँ बगैर कुछ कहे उसका जाना चुभ गया। उसकी चुप्पी मुझे खलने लगी थी। यह मौन टकराहट कचोटती थी। अपने अंदर छुपी वह धारणा दिन-ब-दिन बलवती हो रही थी कि मेरा अश्वेत होना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसके न बोलने की यही वजह है। न बोले, लेकिन एक मुस्कान तो दे ही सकती है। गुड मॉर्निंग बोलती भी है, तो चेहरा ऐसा सपाट रहता है मानो कोई रिकॉर्डिंग बजा दी हो। मैं कुछ भी बोलूँ, चाहे कोई सवाल हो या जवाब। मेरे चेहरे का भाव और हाथ पैर, सब मेरे साथ बोलने लगते हैं, पल दर पल बदलते हैं। उसके मुँह से आवाज भर निकलती, शेष अंग उस आवाज का साथ नहीं देते। ऐसा लगता मानों सारे अंगों का एक दूसरे से संपर्क टूट गया हो। एक बार में एक अंग ही काम करता हो। अतीत जब पीछा नहीं छोड़ता तो अंतर्मन के भावों पर ताले लग जाते होंगे; ऐसा ही कुछ एंजिला की खामोशी के पीछे होगा।

खैर, उसका अतीत जो भी हो। मुझे अपने काम से काम रखना है। वैसे भी हम दोनों के बीच के अंतर को कभी पाटा नहीं जा सकता। बहुत होशियार छात्र होने के बावजूद एक बात मुझे हमेशा सालती रही है। अपने व्यक्तित्व को लेकर तमाम ऐसी हीन भावनाएँ थीं जो कभी-कभी मेरी प्रतिभा को भी दबाने का प्रयास करतीं। तब मैं इस माहौल में खुद को मिस-फिट समझती। हालाँकि किताबें मेरे दिमाग में फिट होती रहतीं। मेडिसिन की पढ़ाई करके मैं बहुत आगे जाना चाहती थी ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों की मदद कर सकूँ। मेरे ममा-पापा ने भी अपने जीवन भर यही किया था। मेरे लिए सपने भी देखे मगर बाहर भेजने से डरते थे। मेरी स्कालरशिप और अदम्य इच्छा ने उन्हें बाध्य कर दिया था कि मुझे न रोकें, जाने दें, अपने रास्ते खुद बनाने दें। मैं भी एक नयी दुनिया देखना चाहती थी। बहुत सोच-समझकर यही तय हुआ था कि मैं टोरंटो जाने का सुनहरा अवसर न खोऊँ।

टोरंटो आने के बाद किसी से भी मिलते हुए इस बात पर ध्यान जाता कि सामने वाला कौन है- श्वेत, अश्वेत, या फिर एशियन। मैं युगांडा से आयी थी, एक अश्वेत। वहाँ कभी ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ क्योंकि वहाँ हम सब एक जैसे थे। बाहरी काले रंग से भीतर की रंग-बिरंगी दुनिया का कोई वास्ता नहीं होता। बेखबर होकर सपनों की दौड़ लगाते। मैंने दाखिला तो बी.एससी. में लिया मगर बहुत तेजी से अपने कदम बढ़ाते हुए तीसरे वर्ष के अंत में ही वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में मेडिसिन में चयन हो गया। कैनेडा में आने के तीन सालों के अंदर ही मैंने ऐसी छलांग लगायी कि अपने इलाके के लोगों में मेरा नाम हो गया। अत्याधुनिक व्यवस्था में, विकसित देश में पढ़ाई करके डॉक्टर बनने का हौसला अंदर ही अंदर कुलाँचे मारता रहा।

आ तो गयी थी इस दुनिया में, लेकिन कई श्वेत छात्रों के बीच रहते हीनता से ग्रस्त होना स्वाभाविक था। न जाने भगवान ने हम अश्वेत लोगों को इतना काला क्यों बनाया। हमें गढ़ते हुए रंगों की इतनी कमी हो गयी कि काले रंग के अलावा कोई रंग बचा ही नहीं। जन्म के साथ ही अन्याय शुरू हो गया। और यह बात माँ ने मुझे बहुत अच्छी तरह समझायी थी- “तुम्हारे साथ कदम-कदम पर पक्षपात होगा। अपने लोगों के साथ उठना-बैठना। तुम कभी अकेले महसूस मत करना। अपना एक ग्रुप बनाना।” ऐसी कई चेतावनियाँ दी थीं। माँ का कहा एक वाक्य मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था- “हमारा रंग हमें अपंग बना देता है। यह जन्मजात अभिशाप है।” बहस करना चाहती, पर न कर पाती। ये माँ के अपने अनुभव थे। वे यूरोप गयी थीं पढ़ने के लिए लेकिन छह महीने में लौट आयी थीं। अपना तिरस्कार सह नहीं पायी थीं। यहाँ आकर मैं स्वयं उन लोगों से दूर रहती जो मुझे अपने रंग के दिखाई न देते। शायद यही वजह थी कि अभी तक ऐसा कोई कड़वा अनुभव नहीं हुआ था। मेरी कक्षाओं के कई साथी मेरे करीब आने का, दोस्ती करने का प्रयास करते लेकिन उनके एकतरफा प्रयास कारगर न होते। मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहती थी। किसी पक्षपात का शिकार होकर वापस लौटना बिल्कुल स्वीकार्य नहीं था। हालाँकि, इस बात से भी इनकार नहीं करती कि आज तक किसी ने भी टोरंटो में रंग को लेकर मुझ पर कोई फिकरा कसा हो, या फिर मुझे परेशान किया हो।   

एंजिला को देखते ही स्वत: दूरियाँ बन गयी थीं। पैसे देकर सिर्फ एक किराएदार का संबंध रखना चाहती थी मैं। मेरा आत्मविश्वास मेरी पढ़ाई थी, न कि मेरे आसपास के लोग। वैसे भी मैं बेहद सफाई पसंद लड़की हूँ, मुझसे किसी को कोई तकलीफ हो ही नहीं सकती। उसकी बेरूखी को मैं तवज्जो नहीं देती।  

एक दिन बहुत बर्फ गिर रही थी। पूरा लॉन बर्फ की सफेदी से घिरा था। एंजिला ने ड्राइव-वे साफ करवाने के लिए लोगों को रखा हुआ था। लेकिन बर्फ इतनी गिर रही थी कि अच्छा-खासा पहाड़ खड़ा हो गया था। मुझे बाहर जाना था। मैं चाबी लेकर अपनी कार की ओर बढ़ने लगी तो उसने मुझे कार चलाने से रोका। चेतावनी भी दी कि यहाँ की बर्फबारी टोरंटो से अधिक खतरनाक होती है। बर्फ जम कर आइस बन जाती है और गाड़ी के टायर स्लिप होने के कारण कोई भी दुर्घटना हो सकती है।

मैंने कहा- “मेरा जाना बहुत जरूरी है। मैं जल्दी ही लौट आऊँगी।” वह आश्वस्त नहीं थी। आज उसके चेहरे पर मैं गुस्सा देख रही थी जो उसकी आँखों में उतर आया था। उसके गुस्से में मेरी चिंता की झलक नहीं थी बल्कि उसकी बात मनवाने का रौब था। ये भी एक वजह थी कि मैं उसके खिलाफ जाना चाहती थी। इतने दिनों में एक बार भी सीधे मुँह बात तक नहीं की थी उसने मुझसे। आज चाहती है कि मैं उसकी बात मानूँ। मैं जहाँ जाना चाहूँ, जाऊँ, उसे रोकने का कोई हक नहीं। उसका निराकार चेहरा अब आकार ले रहा था, क्रोध से घिरा। उस भाव को वहाँ गहराते देख मेरा जाने का मन और अधिक प्रबल हो रहा था।

बगैर उसकी इच्छा की परवाह किए मैं तेजी से बाहर निकल गयी। गाड़ी स्टार्ट करके चल दी। उस समय मेरे शरीर का हर अंग ताकत से भरपूर था। न जाने बगावत की बू थी, या सफेदी को हराने की साजिश। एंजिला को, या फिर बर्फ को, क्योंकि दोनों ही सफेदी से भरपूर थे। जाने कैसा तैश था जो अंदर से मुझे शीतल कर रहा था।

यह शीतलता बहुत महंगी पड़ी मुझे। अंतत: मेरे साथ वही हुआ जिसकी आशंका एंजिला को थी। मेरी गाड़ी फिसल गयी। मैं बाल-बाल बची लेकिन गाड़ी को बहुत नुकसान हुआ। मैं जैसे-तैसे गाड़ी को टो-ट्रक के हवाले करके घर लौटी। थकान के मारे, ठंड के मारे मेरा बुरा हाल था। बहुत देर तक बाहर खड़ा रहना पड़ा था। घर लौटी तो देखा वह और ज्यादा गुस्से में है। जितना शांत चेहरा हुआ करता था उससे कई गुना ज्यादा त्योरियाँ चढ़ी हुई थीं। आँखें आग उगल रही थीं। कई दिनों से दबी चिंगारी को जैसे किसी ने फूँक मार-मारकर आग में तबदील कर दिया था, अंदर के भावों को झिंझोड़ कर बाहर निकाल दिया था!    

उसने मुझसे बात नहीं की। लेकिन उसके अनकहे शब्द बहुत कुछ कह रहे थे। शायद यही– “तुम लोग सुनते नहीं हो।”

चेहरे पर जमा क्रोध की परतें मैं महसूस कर रही थी। मुझे उसके गुस्से पर गुस्सा आ रहा था। गाड़ी के लिए इंश्योरेंस कंपनी को रिपोर्ट करनी थी। ममा-पापा को नहीं बताया वरना उन्हें भी जवाब देना मुश्किल हो जाता। मैं न तो कुछ खा पायी, न उससे बात ही कर पायी। मुझे इस समय सहानुभूति की जरूरत थी, किसी के गुस्से की नहीं। आज मैं बहुत कठिन परिस्थितियों में बाल-बाल बची थी। वह कँपकँपी थी, खौफ था। मौत का सामना करते वे क्षण थे, जो लौट-लौटकर डरा रहे थे। गाड़ी का फिसलना, भड़ाम की आवाज के साथ पलट जाना और मेरा किसी तरह दरवाजा खोलना और बाहर निकलकर इमरजेंसी नंबर पर कॉल करना। पूरी फिल्म स्लो मोशन में कई बार चलती रही। हर दृश्य के साथ शरीर में झुरझुरी अभी भी थी। बहुत हिम्मत दिखाकर गाड़ी को टो-ट्रक के हवाले करके आयी थी। ऐसे में एंजिला के इस बर्ताव में मुझे नफरत की आग धधकती नजर आयी। अब मैंने भी ठान लिया कि मुझे उससे बात करने का कोई शौक नहीं। किराएदार और मकान मालिक का संबंध पैसों तक ही रहे। मुझ पर हुक्म चलाने का उसे कोई हक नहीं।   

अब माहौल बदल चुका था। ममा-पापा की आशंकाएँ सच हो चली थीं। मेरे और उसके बीच की खाई और गहरी होती जा रही थी। आपसी पूर्वाग्रहों के बीच एक घर में रहते दो इंसान झुलस रहे थे। मैं पढ़ाई में सब कुछ भूल जाती थी लेकिन उसके पास तो समय ही समय था। वह शायद एक ही बात में उलझी रहती थी इसीलिए कई दिनों तक उसका चेहरा वैसा ही बना रहा। मुझे लगा कि वह अपने आप में इतनी खोयी रहती है कि एक बार किसी बात पर अड़ जाती है तो शायद महीनों तक उसके शरीर के हर हाव-भाव में वही बात रहती है। फिर चाहे उदासी हो, चुप्पी हो या फिर गुस्सा हो।   

मैं गुस्से में थी, एंजिला भी। अब तो हमारे बीच गुड मॉर्निंग, गुड नाइट की औपचारिकता भी शेष नहीं रही थी। एक बार फिर से मेरे भीतर बँधी गाँठ में कसाव आया। मेरा आईना मुझे विद्रोही बनाता। भले ही मैं एक बड़ी डॉक्टर क्यों न बन जाऊँ मगर मेरा रंग मुझे सालता रहेगा। मैं और एंजिला, हम दोनों एक दूसरे से बेहद नाराज थे। उसकी नाराजगी का लेवल मुझसे कहीं अधिक था। आशंकाओं के चलते शीत युद्ध बढ़ता चला जा रहा था। बीतते दिनों के साथ मैं सहज होने लगी थी लेकिन वह नहीं। कई दिनों से उससे बात नहीं हुई थी। मैं कभी अपने प्रेजेंटेशन में, तो कभी अपने केस की स्टडी में व्यस्त रहती।

एक दिन रात में मैं गहरी नींद में थी कि एंबुलेंस के कानफोड़ू हार्न से मेरी नींद खुल गयी। धड़-धड़ करते बूटों की आवाज आयी और दरवाजा भी खुला। मैं तुरंत उठ कर ऊपर गयी। एंजिला को अस्पताल ले जाया जा रहा था। उसे सीने में दर्द हो रहा था। मैंने उसके साथ जाना उचित समझा। उसे अस्पताल में भर्ती कर लिया गया। शायद बायपास सर्जरी करनी पड़े। मैं रोज उसे देखने जाती पर कभी बात नहीं होती। या तो वह सो रही होती या फिर नर्स होती उसके आसपास।

कुछ समय बाद उसकी सर्जरी हुई और रिकवरी के बाद घर भेज दिया गया। उसकी मदद के लिए अस्पताल से एक नर्स लगा दी गयी थी जो उसकी सारी जरूरतों का ध्यान रखती। शनिवार की एक दोपहर मैं उसे रोज की तरह सोया हुआ देखकर अपने कमरे में लौट रही थी कि उसने मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बैठने को कहा। मैं उसके सामने बैठ गयी। हम दोनों के चेहरे सपाट थे, निर्विकार।

कुछ क्षणों के बाद उसने तकिए के नीचे से एक फोटो निकालकर मुझे बताया। उसमें मेरी उम्र की दो अश्वेत लड़कियाँ और अधेड़ उम्र का एक अश्वेत व्यक्ति एंजिला का हाथ थामे हुए था। फोटो देखने के बाद उसके चेहरे पर मेरी प्रश्नवाचक निगाहें टिक गयीं।

“ये मेरी बेटियाँ हैं।”

मैं अवाक उसका मुँह देख रही थी। वह शांत भाव से कहने लगी– “मैं अपने इस परिवार को खो चुकी हूँ।”

मैंने कहा- “ये?” जैसे एक बच्चा उलझी पहेली को सुलझाने की कोशिश करता है कुछ वैसी ही उलझन मेरे हर अंग से टपकते हुए उसके चेहरे पर जाकर टिक गयी थी।   

“ये हैं मेरे पति, बच्चियों के पापा।”

“क्या?”

“ऐसे ही बर्फबारी में तीनों गए थे, वापस नहीं लौटे। उस दिन उन्होंने मेरी बात नहीं मानी थी,  सालों बाद फिर से तुमने भी मेरी बात नहीं मानी।”

मैं जड़वत थी।

“तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाती। तुम्हारे यहाँ रहते मुझे घर में जैसे अपनी बेटियाँ दिखती रहीं। इसलिए अधिकार से तुम्हें बर्फ में जाने से मना करती रही।”

मैं अब उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ रही थी। मेरे लिए संदेश भी था कि मुझे कुछ हो जाता तो वह किस भयानक सदमे से गुजरती। मैं क्या कहती! नि:शब्द थी। आज मेरा चेहरा उसके चेहरे की तरह भाव विहीन था। चार लोगों के उसके परिवार में अब वह अकेली है, वे तीनों नहीं हैं। जाने-अनजाने मैंने उसका दर्द भरा इतिहास दोहरा दिया था। वह दृश्य मेरे सामने था- किस तरह घर के तीन सदस्य बर्फबारी में निकल गए होंगे। वह चिंता कर रही होगी, और जब उसे खबर मिली होगी कि उनका एक्सीडेंट हो गया तो भरे-पूरे परिवार को खोकर उस पर क्या गुजरी होगी!

मैं कल्पना में बहुत दूर तक गयी और उन दृश्यों को जाकर वर्तमान में लौट आयी। यह सोचकर ही काँपती रही कि एंजिला ने स्वयं को कैसे संभाला होगा। मैं उसके प्रति सहानुभूति जताने लायक भी नहीं रही थी। किस मुँह से कुछ कहती! उस अतीत को जिसे वह भूलना चाहती है, मैं फिर एक बार उसके सामने लेकर आयी। उसके घायल मन को मैंने फिर लहूलुहान किया था। मेरा मन पश्चाताप में झुलस उठा।  

मेरे रंग-रूप में उसे अपनी बेटियों का अक्स नजर आता होगा। उसने मुझे लेकर कई कल्पनाएँ बुन ली होंगी और मैं रंगों के चक्कर में अपने मन को बेरंग करती रही। पता नहीं उसका हाथ मेरे हाथ में था, या मेरा उसके हाथ में। अपनी आँखों की गीली पोरों में अब मैं सिर्फ स्पर्श को महसूस कर रही थी। भीतर बँधी कई गाँठें चटक-चटक कर टूट रही थीं। एक डॉक्टर बनना था मुझे जो लोगों की ग्रंथियाँ खोलता है, बाँधता नहीं।

मेरे सामीप्य से उसके चेहरे पर जो मुस्कान थी, वह बरसों तक बनी रहे, यह जिम्मेदारी मुझ पर थी। मेरे कंधों ने खुशी-खुशी यह जिम्मेदारी ओढ़ ली। हिमपात कहर ढा कर गुजर गया था, घर के बाहर भी और भीतर भी। घर की आबोहवा में ताजी धूप ने दस्तक दे दी थी। हर तरफ़ फैले दूधिया बर्फ के कण और एंजिला का चेहरा दोनों ही मुझे मुझसे मिला रहे थे।

दोरंगी लेन एकमेक हो गयी थी।

********

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈