श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
?? संजय दृष्टि – प्रकृति (1-2) ??
प्रकृति-1
प्रकृति ने चितेरे थे चित्र चहुँ ओर
मनुष्य ने कुछ चित्र मिटाये
अपने बसेरे बसाये,
प्रकृति बनाती रही चित्र निरंतर,
मनुष्य ने गेरू-चूने से
वही चित्र दीवारों पर लगाये,
प्रकृति ने येन केन प्रकारेण
जारी रखा चित्र बनाना
मनुष्य ने पशुचर्म, नख, दंत सजाये,
निर्वासन भोगती रही
सिमटती रही, मिटती रही,
विसंगतियों में यथासंभव
चित्र बनाती रही प्रकृति,
प्रकृति को उकेरनेवाला
प्रकृति के खात्मे पर तुला
मनुष्य की कृति में
अब नहीं बची प्रकृति,
मनुष्य अब खींचने लगा है
मनुष्य के चित्र..,
मैं आशंकित हूँ,
बेहद आशंकित हूँ..!
प्रकृति-2
चित्र बनाने के लिए उसने
उतरवा दिये उसके परिधान,
फटी आँखे लिए वह बुदबुदाया-
अनन्य सौंदर्य! अद्भुत कृति!
वीभत्स परिभाषाएँ सुनकर
शर्म से गड़ गई प्रकृति..!
© संजय भारद्वाज, पुणे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी
मोबाइल– 9890122603
सच्चाई!?
वास्तविकता है .