डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – उड़ता यौवन ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

वसंत ऋतु के आते ही, भंवरे कलियां मुस्काते है।

ऐसे ही मानव जीवन में, यौवन के दिन आते है।।

जैसे ही यौवन आता, अंग प्रस्फुटित हो उठता।

मुख आभान्वित, कजरारी आंखें ,अंग अंग दमक उठता।।

लुभा रही है नागिन वेणी, लहराती, बलखाती चमेली।

चाल चले हिरनी सा देखो, इतराती संग सखी सहेली।।

यौवन का हुस्न देख ज़माना, तारीफों के पुल बंधते देखूं।

सुन -सुन कर तारीफें ऐसी, बार -बार दर्पण को देखूं।।

मैं हंसती ,दर्पण भी हंसता, मैं रोती तो वो भी रोता।

दर्पण से याराना ऐसा, मैं खाती,जब वो भी खाता।।

दर्पण से यारी को देख, मन में लड्डू फूटे जाएं।

हर दिन मेरी उम्र बताकर, मुझसे मेरी पहचान कराए।।

उत्तरोत्तर दर्पण में एक दिन, शक्ल में उम्र परिवर्तन देखा।

पहली बार चमकता बाल, चांदी का मैने सिर में देखा।।

लगा जोर का झटका ऐसा, झकझोर दिया दर्पण को मैने।

जब दर्पण में बूढ़े तन की झुर्रियों को देखा मैने।।

कहाँ गयी कजरारी आँखें, और दमकता मेरा यौवन।

कहाँ गयी आभा चेहरे की, अंग फूल सा मेरा कोमल।।

दर्पण बोला उम्र बढ़ गयी, जिंदगी कगार पर पहुंच गई।

जहाँ खत्म हो जाता यौवन, इसी को कहते उड़ता यौवन।।

छणभंगुर है काया, जीवन, कुछ पल तक ही रहता यौवन।

जहाँ खत्म हो जाता सब कुछ, उसी को कहते उड़ता यौवन।।

मत घमंड करो काया पर इतना, ये भी साथ ना जाएगी।

होगा देह का अंत तो एक दिन, सिर्फ आत्मा रह जायेगी।।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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