श्री हेमन्त बावनकर
(गत 12 मई 2019 को अंजुमन लिटररी क्लब द्वारा अट्टा गलट्टा, कोरमंगला में आयोजित कार्यक्रम में इस कविता की काव्यभिव्यक्ति दी थी। आशा है आपको पसंद आएगी।)
☆ एक आम मजदूर का साक्षात्कार ☆
जब से चैनलों पर देखे हैं
कई हस्तियों के साक्षात्कार
मन में आया ये विचार
क्यों न
किसी आम मजदूर का
लिया जाए साक्षात्कार।
कोई राष्ट्राध्यक्ष तो
कह सकता है
मन के विचार
कभी भी करवा सकता है
अपना साक्षात्कार
उसके लिए हैं तैयार
कई सेलिब्रिटी और पत्रकार
भला कौन साझा करेगा
और क्यों करेगा?
आम मजदूर के विचार
खाक छान ली
एक प्रश्नावली लेकर
सारे शहर की मजदूर बस्तियों में
बस्ती की
एक एक गलियों में
सब के सब
अतिव्यस्त दिखे
अस्तव्यस्त दिखे
सुबह काम पर जाने की जल्दी
शाम को थक कर सोने की जल्दी
फिर
पिये व्यक्ति से बातें करना था फिजूल
कौन सुन सकता है
उनकी बातें ऊल जुलूल।
ध्यान आया
हर शहर में
एक लेबर चौक होता है।
जहां हर उस मजदूर का
हर सुबह सौदा होता है।
जो है बेरोजगार
और रहता है
बिकने को तैयार।
अलसुबह कलेवा लेकर
अपने चंद औज़ार समेटकर
चौक पर खड़ा हो जाता है
खरीददार ठेकेदार आता है।
कद, काठी, हुनर तलाशता है
जरूरत और काम के मुताबिक
किसी को चंद घंटों के लिए
तो
किसी को चंद दिनों के लिए
खरीदकर ले जाता है।
जिस दिन बिक गए
तो समझो खुशनसीबी है
वरना
उस दिन मुफ़लिसी है
भूख है गरीबी है।
सोच कर ही काँप गया
कई बार वहाँ से गुजरा था
जहां भीड़ भरा नज़ारा था
इस खेल से अंजान था
जहां सरे आम बिकता कोई
हमारे आप सा इंसान था।
देह के इस व्यापार के पीछे
कई कथाएँ हैं
सबकी
अपनी अपनी व्यथाएं हैं।
लेबर चौक की भीड़ में घुसकर
तलाशने की कोशिश की
उस मजदूर की
जो दे सके
मेरे सवालों का जवाब
बता सके मुझको
अपनी जिंदगी का हिसाब-किताब।
एक बुजुर्ग
दायें पैर से अपाहिज
मेरी नाकाम कोशिश को
काफी देर से देख रहा था
थोड़ी देर बाद
वही व्यक्ति
मेरा हाथ पकड़ कर
करीब करीब घसीट कर
मजदूरों की बस्ती की आँखों से
मजदूरों की दुनिया दिखा रहा था।
एक सुनसान नुक्कड़ पर
बोला मुझको रोक कर
क्या कर लोगे?
क्या कर लोगे?
ये साक्षात्कार-आक्षात्कार लेकर।
तुम्हारे जैसे लोग
यहाँ रोज आते हैं
मीठी मीठी बातें करते हैं
फिल्मों की शूटिंग करते हैं
कोई एन जी ओ से
कोई न्यूज़ चैनल से
कोई इस पार्टी से
तो कोई उस पार्टी से
बाद में पता चलता है
फलां फिल्म ने करोड़ों कमाए
फलां नेता चुनाव जीत गया।
सब सपने दिखाते हैं
टी वी की भीड़ में
कभी अपना चेहरा दिखता नहीं।
और
तुम्हारे जैसा चेहरा कभी आता नहीं।
मेरे तो जैसे
हाथ पाँव ही फूल गए
उसके जोश के आगे
मेरे सारे प्रश्न हवा हो गए
मेरे ही बनाए गए प्रश्न
प्रश्नों के फंदे पर झूल गए।
बड़ी हिम्मत कर पूछा
“तुम्हारे पैर को क्या हो गया?”
इसके बाद
मेरे पास पूछने को
कुछ भी नहीं बचा
और
उसके पास न बताने जैसा
कुछ भी नहीं बचा
वह बताता रहा
और
मैं सुनता रहा।
सारी जिंदगी
हमारे दादा-परदादा
मारिशस कनाडा के
प्रवासी भारतीयों के
सपने दिखाते रहे
और
हम अपने ही देश में
परप्रदेशी होते रहे।
जिस दिन एक नेता का
प्रदेश प्रेम जाग उठा था
उसी दिन
मेरा दायाँ पैर टूटा था
तब से
दिन रात जाग रहा हूँ।
एक पैर से भाग रहा हूँ।
दोस्त
अकील बचा कर लाया है
बस वही एक हमसाया है।
मेरे माँ बाप यह नहीं जानते
कि- उसकी माँ ने
आँसू पोंछे
और गोद में सुलाया है।
वह कभी भी नहीं रुलाती है
ईद, होली और दिवाली
साथ ही मनाती है।
साक्षात्कार लेना है
तो
ऐसे शख्स का लो।
जो तोड़ता नहीं जोड़ता हो।
अब जाओ
यदि ये छाप सको तो
बेनाम छाप देना
और
दुबारा इन गलियों में मत आना
मैं
दुबारा रोना नहीं चाहता
और अकील जैसा दोस्त
खोना नहीं चाहता।
दुनिया में जो भी
पेट के लिए मजबूर है
वही सच्चा मजदूर है।
किन्तु,
अफसोस
मजदूर
मजदूर दिवस पर भी
गरीबी मुफ़लिसी में जीता है
और
तथाकथित व्हाइट और ब्लू कालर्ड मजदूर
मजदूर दिवस की छुट्टियाँ
किसी रिज़ॉर्ट में
सपरिवार मनाता है।
- हेमन्त बावनकर
मार्मिक।हमारे समाज की पीड़ादायक सच्चाई।
अदभुत वास्तविक अभिव्यक्ति।
धन्यवाद एवं आभार।
मर्मान्तक, हम विकास का दम भरते है, पर सच बात यह है कि हम मानवीय विकास में एक कदम आगे नहीं बढ़े. हम दिखावा पसंद प्रजाति के लोग हैं.
आभार सर।
हृदय स्पर्शी, मार्मिक कविता मजदूर, श्रमिकों की बेबसी को लेकर,
आपका काव्य संसार श्लाघनीय है। बधाई!
निसंदेह यह जो आप कार्य'( व्लागिंग) कर रहे है
जहाँ वह महत्वपूर्ण है वही स्तु त्भ भी!