श्री मच्छिंद्र बापू भिसे
(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आज प्रस्तुत है उनकी कविता “बने हैं एकत्व को”।)
☆ बने हैं एकत्व को ☆
सृष्टि के निर्माता को वंदन हमारा
स्वीकार हो एक अनुनय प्यारा,
चाहत छोटी-सी है अपनी
बनें एक-दूजे का हम ही सहारा ।
बनें विशाल तन के कंकड़ हम,
हिमालयी चमकते ‘शूल’ बनों तुम।
बनें अथाह जलनिधि की बूंदें हम,
गरजती-इतराती ‘लहरें’ बनों तुम।
बनें उठती धूल के रजकण हम,
अंगार बरसे तूफानी ‘बयार’ बनों तुम।
बनें मिट्टी में ख़ुद समेटे जड़ें हम,
खुशबू बिखराए वो ‘फूल’ बनों तुम।
बनें मंडराते हल्के बादल हम,
असीम पथ ‘आसमान’ बनों तुम।
बनें धूप की हल्की-तेज किरण हम,
दे दुनिया को चमक ‘सूरज’ बनों तुम।
बनें शमशानी उठती लौ-राख हम,
जिंदगी को जिए हर ‘साँस’ बनो तुम।
कहोगे तुम,
माँगा तो क्या माँगा!
खिल्ली उडाएँगे फिर सभी,
दीन अरज पर हँसोगे तुम
हम निराश न होंगे कभी।
बने हैं एकत्व को हम और तुम,
न्योच्छावर जीवन तुमपर सभी ।
समझकर देखो बात को,
‘श्वर’ हैं हम और ‘क्षर’ हो तुम।
© मच्छिंद्र बापू भिसे
भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)
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