डॉ प्रेरणा उबाळे
☆ कविता – स्पष्टता… ☆ डॉ प्रेरणा उबाळे ☆
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निर्मल, पारदर्शी
बहते झरने, कलकल नदियाँ
उछलती सागर लहरें
कांच की तरह आर-पार।
ओस की बूंदे
पत्तों पर तरल
मनुष्य का मन
क्यों नहीं इतना
तरल स्पष्ट ?
भीतर ही भीतर
गूढ से गूढ
समझ-बूझ से परे
कभी लगे सुंदर
कभी अति क्रूर
पढ़ पाते तो
हो जाता सब सरल
या रह जाता वैसे ही ?
है ना उत्तर पाना कठिन ?
तो बेहतर यही कि
उत्तर ही न मिले कभी ll
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© डॉ प्रेरणा उबाळे
रचनाकाल : 19.05.2017
मराठी से हिंदी अनुवाद – डॉ. प्रेरणा उबाळे : 16.11.2024
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभागाध्यक्षा, मॉडर्न कला, विज्ञान और वाणिज्य महाविद्यालय (स्वायत्त), शिवाजीनगर, पुणे ०५
संपर्क – 7028525378 / [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
आपकी अत्यंत सुंदर कविता से अंग्रेजी में ये कविता उपजी…
Transparent milky waterfalls,
Melodiously gurgling rivers
Leaping oceanic waves are
so divinely crystal clear…
Dew drops on lush green leaves
also shine like gems only…
Why is the human mind
so grossly intolerant…?
Always nebulously cloggy..
Mysterious incomprehensible…
Sometimes it seems enchantingly pretty
Sometimes it’s inexplicably diabolical…
One always wonders if it could
ever be unravelled layer-by-layer
Would it become simple or
it would remain the same?
Isn’t it arduously onerous
to find the answer?
Isn’t it is better that
it remains unanswered only…